शुक्रवार, 25 मार्च 2016

माया की गठरी:-

किसी गांव में एक फकीर घूमा करता था। उसकी सफेद लंबी दाढ़ी थी और हाथ में एक मोटा डंडा। चीथड़ों में लिपटा उसका ढीला—ढीला और झुर्रियों से भरा बुढ़ापे का शरीर। अपने साथ एक गठरी लिए रहता था सदा। और गठरी पर बड़े—बड़े अक्षरों में लिख रखा था : 'माया'। वह बार—बार उस गठरी को खोलता भी था। उसमें उसने बड़े जतन से रंगीन रही कागज लपेट कर रख छोड़े थे। कहीं मिल जाते रास्ते पर तो कागजों को इकट्ठा कर लेता। अपनी माया की गठरी में रख लेता। जिस गली से निकलता उसमें रंगीन कागज दिखता तो बड़ी सावधानी से उठा लेता। सिकुड़नों पर हाथ फेरता, उनकी गड्डी बनाकर, जैसे कोई नोटों की गड्डी बनाता है, अपनी माया की गठरी में रख लेता।

उसकी गठरी रोज बड़ी होती जाती थी।

लोग उसे समझाते कि पागल, यह कचरा क्यों ढोता है? वह हंसता और कहता कि जो खुद पागल हैं वे दूसरों को पागल बता रहे हैं।

कभी—कभी किसी दरवाजे पर बैठ जाता और कागजों को दिखा कर कहता, ये मेरे प्राण हैं। ये खो जाएं तो मैं एक क्षण जी न सकूंगा। ये खो जाएं तो मेरा दिवाला निकल जाएगा। ये चोरी चले जाएं तो मैं आत्महत्या कर लूंगा। कभी कहता ये मेरे रुपये हैं, यह मेरा धन है। इनसे मैं अपने गांव के गिरते हुए किले का पुन: निर्माण कराऊंगा। कभी अपनी सफेद दाढ़ी पर हाथ फेर कर स्वाभिमान से कहता, उस किले पर हमारा झंडा फहराएगा और मैं राजा बनूंगा। और कभी कहता किं इनको नोट ही मत समझो, इनकी ही मैं नावें बनाऊंगा। इन्हीं नावों में बैठ कर उस पार जाऊंगा।

और लोग हंसते। और बच्चे हंसते औरते भी हंसती। और जब भी कोई जोर से हंसता तो वह कहता, चुप रहो। पागल हो और दूसरों को पागल समझते हो।

तभी गांव में एक ज्ञानी का आगमन हुआ। और उस ज्ञानी ने गाव के लोगों से कहा, इसको पागल मत समझो और इसकी हंसी मत उड़ाओ। इसकी पूजा करो नासमझो! क्योंकि यह जो गठरी ढो रहा है, तुम्हारे लिए ढो रहा है। ऐसे ही कागज की गठरियां तुम ढो रहे हो। यह तुम्हारी मूढ़ता को प्रकट—करने के लिए इतना श्रम उठा रहा है। इसकी गठरी पर इसने 'माया' लिख रख छोड़ा है। कागज, कूड़ा—कचरा भरा है। तुम क्या लिए घूम रहे हो? तुम भी सोचते हो कि महल बनाएंगे, उस पर झंडा फहराएंगे। नाव बनाएंगे, उस पार जाएंगे। सिकंदर बनेंगे कि नेपोलियन। सारे ससार को जीत लेंगे। बड़े किले बनाएंगे कि मौत भी प्रवेश न कर सकेगी।

और जब यह फकीर समझाने लगा लोगों को तो वह का भिखमंगा हंसने लगा और उसने कहा कि मत समझाओ। ये खाक समझेंगे। ये कुछ भी न समझेंगे। मैं वर्षों से समझाने की कोशिश कर रहा हूं। ये सुनते नहीं। ये मेरी गठरी देखते हैं, अपनी गठरी नहीं देखते। ये मेरे रंगीन कागजों को रंगीन कागज समझते हैं .और जिन नोटों को इन्होंने तिजोडियो में भर रखा है उन्हें असली धन समझते हैं। मुझे कहते हैं पागल, खुद पागल हैं।

यह पृथ्वी बड़ा पागलखाना है। इसमें से जागो। इसमें से जागो, इसमें से न जागे तो बार—बार मौत आएगी और बार—बार तुम वापस इसी पागलखाने में फेंक दिए जाओगे। फिर—फिर जन्म! इसीलिए तो पूरब के मनीषी एक ही चिन्तन करते रहे हैं सदियों से— आवागमन से कैसे छुटकारा हो ? कैसे मिटे जन्म? कैसे मिटे मौत? मिटने का एक ही उपाय है। तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा है जिसका न कभी जन्म हुआ और न कभी मृत्यु होती है। तुम्हारे भीतर अजन्मा और अमृतस्वरूप कुछ पड़ा है। वही तुम्हारा हीरा है, उसे खोज लो। वही तुम्हारा धन।

शुभ प्रभात। आज का दिन आप के लिए शुभ एवं मंगलमय हो।

3 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

अजन्मा अविनाशी

Unknown ने कहा…

ज्ञान वर्धक ।

Unknown ने कहा…

ज्ञान वर्धक ।

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