क्रोध एक प्रकार का भूत है जिसके संचार होते ही मनुष्य आपे में नहीं रहता। उस पर किसी दूसरी सत्ता का प्रभाव हो जाता है। मन की निष्ठ वृत्तियाँ उस पर अपनी राक्षसी माया चढ़ा देती हैं, वह बेचारा इतना हत बुद्धि हो जाता है कि उसे यह ज्ञान ही नहीं रहता कि वह क्या कर रहा है।
आधुनिक मनुष्य का आन्तरिक जीवन और मानसिक अवस्था अत्यन्त विक्षुब्ध है, दूसरों में वह अनिष्ट देखता है, उनसे हानि होने की कुकल्पना में डूबा रहता है, जीवन पर्यन्त इधर उधर लुढ़कता, ठुकराया जाता रहता है, शोक दुःख, चिंता, अविश्वास, उद्वेग, व्याकुलता आदि विकारों के वशीभूत होता रहता है। ये क्रोध जन्य मनोविकार अपना विष फैलाकर मनुष्य का जीवन विषैला बना रहे हैं। उसकी आध्यात्मिक शक्तियों का शोषण कर रहे हैं। साधना का सबसे बड़ा विघ्न क्रोध नाम का महाराक्षस ही है।
क्रोध शान्ति भंग करने वाला मनोविकार है। एक बार क्रोध आते ही मन को अवस्था विचलित हो उठती है, श्वासोच्छवास तीव्र हो उठता है, हृदय विक्षुब्ध हो उठता है। यह अवस्था आत्मिक विकास के विपरीत है। आत्मिक उन्नति के लिए शान्ति, प्रसन्नता, प्रेम और सद्भाव चाहिए।
🔶 जो व्यक्ति क्रोध के वश में है, वह एक ऐसे दैत्य के वश में है, जो न जाने कब मनुष्य को पतन के मार्ग में धकेल दे। क्रोध तथा आवेश के विचार आत्म बल का ह्रास करते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति मई 1950 पृष्ठ 17
आधुनिक मनुष्य का आन्तरिक जीवन और मानसिक अवस्था अत्यन्त विक्षुब्ध है, दूसरों में वह अनिष्ट देखता है, उनसे हानि होने की कुकल्पना में डूबा रहता है, जीवन पर्यन्त इधर उधर लुढ़कता, ठुकराया जाता रहता है, शोक दुःख, चिंता, अविश्वास, उद्वेग, व्याकुलता आदि विकारों के वशीभूत होता रहता है। ये क्रोध जन्य मनोविकार अपना विष फैलाकर मनुष्य का जीवन विषैला बना रहे हैं। उसकी आध्यात्मिक शक्तियों का शोषण कर रहे हैं। साधना का सबसे बड़ा विघ्न क्रोध नाम का महाराक्षस ही है।
क्रोध शान्ति भंग करने वाला मनोविकार है। एक बार क्रोध आते ही मन को अवस्था विचलित हो उठती है, श्वासोच्छवास तीव्र हो उठता है, हृदय विक्षुब्ध हो उठता है। यह अवस्था आत्मिक विकास के विपरीत है। आत्मिक उन्नति के लिए शान्ति, प्रसन्नता, प्रेम और सद्भाव चाहिए।
🔶 जो व्यक्ति क्रोध के वश में है, वह एक ऐसे दैत्य के वश में है, जो न जाने कब मनुष्य को पतन के मार्ग में धकेल दे। क्रोध तथा आवेश के विचार आत्म बल का ह्रास करते हैं।
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