शनिवार, 10 जुलाई 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ३९)

सृष्टि जगत का अधिष्ठाता

यह छोटे-छोटे उपादान बिना कर्त्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सके होते तो इतना सुन्दर संसार जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश व गर्मी देता है। रात थकों को अपना अंचल में विश्राम देती, तारे पथ-प्रदर्शन करते, ऋतुएं समय पर आतीं और चली जाती है। हर प्राणी के लिए अनुकूल आहार, जल-वायु की व्यवस्था, प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। करोड़ों की संख्या में तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के लड़ मरे होते। यदि इन सब में गणित कार्य न कर रहा होता तो अमुक दिन, अमुक समय सूर्य-ग्रहण-चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रान्ति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह प्राप्तोद्देश्य कर्म और सुन्दरतम रचना बिना किसी ऐसे कलाकार के सम्भव नहीं हो सकती थी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकरस देखता हो, सुनता हो, साधन जुटाता हो, नियम व्यवस्थाएं बनाता हो, न्याय करता हो जीवन मात्र का पोषण संरक्षण करता हो।

नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन चल तो सकते हैं, पर कुछ समय से अधिक नहीं जब कि पृथ्वी को ही अस्तित्व में आये करोड़ों वर्ष बीत चुके। परिवार के वयोवृद्ध के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है। गांव का एक मुखिया होता है तो कई गांवों के समूह की बनी तहसील का स्वामी तहसीलदार, जिले का मालिक कलक्टर, राज्य का गवर्नर और राष्ट्र का राष्ट्रपति। मिलों तक के लिए मैनेजर कम्पनियों के डाइरेक्टर न हों तो उनकी ही व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है और उनका अस्तित्व डावांडोल हो जाता है फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा का विरद् चरितार्थ हुए बिना नहीं रहता।

एक अखबार में एक लेख छपा था—‘‘वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं? इस लेख में विद्वान् लेखक ने बताया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है, यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासन हीनता आ जाये तो विराट ब्रह्माण्ड एक क्षण को भी नहीं टिक पाता। एक क्षण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त कुछ न होता।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ३९)

हरिकथा का श्रवण भी है भक्ति का ही रूप

भावनाएँ अंतर्लीन-भगवन्लीन थीं, भक्तिरस से भीगे हृदय निस्तब्ध बने रहे। जिसने कहा और जिन्होंने सुना, सभी गहन भावसमाधि में खोये थे। तभी अचानक सभी ने अपने अन्तराकाश में एक साथ दिव्य स्पन्दनों की अनुभूति पायी। बड़े ही अनोखे एवं मधुर थे ये स्पन्दन। हिमवान के आँगन में उपस्थित सभी देवों, ऋषियों, सिद्धों-संतों के अस्तित्व में रोमांच हो आया। इस रोमांच के अतिरेक में सभी की अंतश्चेतना के बहिर्द्वार खुल गये। सभी ने निहारा, बाहर की झाँकी कम सुमनोहर न थी। हिमवान के महाशैलशिखर सजग प्रहरियों की भाँति अडिग थे। वातावरण में हिम पक्षियों की कलरव ध्वनि मंत्रगान की तरह गूँज रही थी। एक दिव्य सुवास वहाँ अनायास ही बिखर रही थी। सभी वहाँ एक अलौकिक अवतरण का संकेत पा रहे थे।
    
कुछ ही क्षणों में इस दिव्यता का सघन स्वरूप सबके नेत्रों में उद्भासित हो आया। सबने देखा कि महामुनि शुकदेव ज्योतिर्मय साकार भक्तितत्त्व बनकर प्रकट हुए हैं। श्रीमद्भागवत कथा के प्रवक्ता शुकदेव। महर्षि वेदव्यास के वीतराग पुत्र शुकदेव। भक्ति के सघन-साकार विग्रह शुकदेव। उनकी इस उपस्थिति में सभी ने अपनी आध्यात्मिक चेतना में नवांकुरण अनुभव किया। शुकदेव ने भी सप्तर्षियों सहित सभी ऋषियों, सिद्धों, देवों की अभ्यर्थना की। इन सभी ने भी इनकी उपस्थिति से स्वयं को कृतार्थ माना, क्योंकि सभी इस सत्य से अवगत थे कि शुकदेव भक्ति की दुर्लभ विभूति हैं। जो इनके पास है वह अन्य कहीं नहीं है।
    
इस नयी उपस्थिति के साथ सभी को भक्ति के नवीन सूत्र की जिज्ञासा भी हो आयी। महर्षि मरीचि एवं मेघातिथि ने लगभग एक साथ ही देवर्षि की ओर देखा। हालाँकि देवर्षि स्वयं अभी तक शुकदेव की ओर देख रहे थे। उनकी यह एकटक एकाग्रता इन महर्षियों की दृष्टि से विच्छिन्न हुई। उन्हें आत्मचेत हो आया और उन्होंने ऋषि समुदाय की ओर निहारा। उन्हें इस तरह निहारते देख महर्षियों में श्रेष्ठ पुलह ने कहा-‘‘भक्ति के नवीन सूत्र को प्रकट करें देवर्षि!’’ ‘‘हे महर्षि आपका आदेश शिरोधार्य है। अब मैं भक्ति के विषय में ऋषि गर्ग के मत को प्रकट करता हूँ। यही मेरा अगला सूत्र है-
‘कथादिष्वति गर्गः’॥ १७॥
गर्गाचार्य के मत से भगवान की कथा में अनुराग भक्ति है।
    
जो भगवान की कथा सुनता है, अहोभाव से सुनता है, विभोर होकर सुनता है, अपने को मिटाकर सुनता है, वह स्वाभाविक भक्ति के तत्त्व को अनुभव कर पाता है।’’
    
इस सूत्र को कहने के साथ देवर्षि नारद ने फिर से एक बार परम वीतरागी मुनि शुकदेव को देखा और ऋषियों को सम्बोधित करते हुए कहा-‘‘श्रेष्ठ यही होगा कि इस सूत्र की व्याख्या भागवत कथा के परम आचार्य शुकदेव करें।’’ सभी ने देवर्षि के इस कथन को स्वीकारा और शुकदेव के पवित्र आभा से प्रदीप्त मुख की ओर देखा। शुकदेव के होंठों पर बड़ी ही सुख प्रदायी स्मित रेखा झलकी और वे बोले- ‘‘आपका आदेश मुझे शिरोधार्य है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ७४

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