सृष्टि जगत का अधिष्ठाता
यह छोटे-छोटे उपादान बिना कर्त्ता के अभिव्यक्ति नहीं पा सके होते तो इतना सुन्दर संसार जिसमें प्रातःकाल सूरज उगता और प्रकाश व गर्मी देता है। रात थकों को अपना अंचल में विश्राम देती, तारे पथ-प्रदर्शन करते, ऋतुएं समय पर आतीं और चली जाती है। हर प्राणी के लिए अनुकूल आहार, जल-वायु की व्यवस्था, प्रकृति का सुव्यवस्थित स्वच्छता अभियान सब कुछ व्यवस्थित ढंग से चल रहा है। करोड़ों की संख्या में तारागण किसी व्यवस्था के अभाव में अब तक न जाने कब के लड़ मरे होते। यदि इन सब में गणित कार्य न कर रहा होता तो अमुक दिन, अमुक समय सूर्य-ग्रहण-चन्द्र ग्रहण, मकर संक्रान्ति आदि का ज्ञान किस तरह हो पाता। यह प्राप्तोद्देश्य कर्म और सुन्दरतम रचना बिना किसी ऐसे कलाकार के सम्भव नहीं हो सकती थी जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को एकरस देखता हो, सुनता हो, साधन जुटाता हो, नियम व्यवस्थाएं बनाता हो, न्याय करता हो जीवन मात्र का पोषण संरक्षण करता हो।
नियामक के बिना नियम व्यवस्था, प्रशासक के बिना प्रशासन चल तो सकते हैं, पर कुछ समय से अधिक नहीं जब कि पृथ्वी को ही अस्तित्व में आये करोड़ों वर्ष बीत चुके। परिवार के वयोवृद्ध के हाथ सारी गृहस्थी का नियन्त्रण होता है। गांव का एक मुखिया होता है तो कई गांवों के समूह की बनी तहसील का स्वामी तहसीलदार, जिले का मालिक कलक्टर, राज्य का गवर्नर और राष्ट्र का राष्ट्रपति। मिलों तक के लिए मैनेजर कम्पनियों के डाइरेक्टर न हों तो उनकी ही व्यवस्था ठप्प पड़ जाती है और उनका अस्तित्व डावांडोल हो जाता है फिर इतनी बड़ी और व्यवस्थित सृष्टि का प्रशासक, स्वामी और मुखिया न होता तो संसार न जाने कब का विनष्ट हो चुका होता। जड़ में शक्ति हो सकती है व्यवस्था नहीं। नियम सचेतन सत्ता ही बना सकती है, सो इन तथ्यों के प्रकाश में परमात्मा का विरद् चरितार्थ हुए बिना नहीं रहता।
एक अखबार में एक लेख छपा था—‘‘वैज्ञानिक भगवान में विश्वास क्यों करते हैं? इस लेख में विद्वान् लेखक ने बताया है कि संसार का हर परमाणु एक निर्धारित नियम पर काम करता है, यदि इसमें रत्ती भर भी अव्यवस्था और अनुशासन हीनता आ जाये तो विराट ब्रह्माण्ड एक क्षण को भी नहीं टिक पाता। एक क्षण के विस्फोट से अनन्त प्रकृति में आग लग जाती और संसार अग्नि ज्वालाओं के अतिरिक्त कुछ न होता।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ६३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी