सोमवार, 12 अगस्त 2019
👉 चरित्र-रक्षा के लिये बलिदान
राजनर्तकी मुदाल के सौंदर्य की ख्याति पूर्णमासी के चन्द्रमा की तरह सारे उरु प्रदेश में फैली हुई थी। उसे पाने के लिए राजधानी के बड़े-बड़े सामंतों, विद्वानों, प्रचारकों तथा राज घराने तक के लोगों में कुचक्र चल रहा था। ठीक उसी समय मुदाल अपने बिस्तर पर लेटी अपने और राष्ट्र के भविष्य पर विचार कर रही थी।
देश के कर्णधार मार्गदर्शक और प्रभावशाली लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो गये तो फिर सामान्य प्रजा का क्या होगा ? अभी वह इस चिन्ता में डूबी थी कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी- मुदाल ने दरवाजा खोला तो सामने खड़े महाराज करुष को देखते ही स्तम्भित रह गई। इस समय आने का कारण महाराज! न चाहते हुए भी मुदाल को प्रश्न करना पड़ा।
बड़ा विद्रूप उत्तर मिला- मुदाल! तुम्हारे रूप और सौंदर्य पर सारा उरु प्रदेश मुग्ध है। त्यागी, तपस्वी तुम्हारे लिए सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हैं, फिर मेरे ही यहाँ आने का कारण क्यों पूछती हो भद्रे!
महाराज! सामान्य प्रजा की बात आप छोड़िये। आप इस देश के कर्णधार है, प्रजा मार्ग भ्रष्ट हो जाये तो उसे सुधारा भी जा सकता है पर यदि समाज के शीर्षस्थ लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो जाये तो वह देश खोखला हो जाता है, ऐसे देश, ऐसी जातियाँ अपने अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाती महाराज! इसीलिये आपका इस समय यहाँ आना, अशोभनीय ही नहीं, सामाजिक अपराध भी है।
किसी ने सच कहा है अधिकार और अहंकार मनुष्य के दो प्रबल शत्रु है। वह जिस अन्तः करण में प्रवेश कर जाते हैं उसमें उचित और अनुचित के विचार की शक्ति भी नहीं रह पाती। मुदाल के यह सीधे-साधे शब्द करुष को बाण की तरह चुभे। वे तड़प कर बोले- मुदाल हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये, तुम एक नर्तकी हो और शरीर का सौदा तुम्हारा धर्म है। कीमत माँग सकती हो, धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है।
नर्तकी भर होते तब तो आपका कथन सत्य था महाराज! मुदाल की गंभीरता अब दृढ़ता और वीरोचित स्वाभिमान में बदल रही थी - किन्तु हम मनुष्य भी है और मनुष्य होने के नाते समाज के हित, अहित की बात सोचना भी हमारा धर्म है। हम सत्ता को दलित करके अपने देशवासियों को मार्ग-भ्रष्ट करने का पाप अपने सिर कदापि नहीं ले सकते।
स्थिति बिगड़ते देखकर महाराज करुष ने बात का रुख बदल दिया। पर वे अब भी इस बात को तैयार नहीं थे कि साधारण नर्तकी उनकी वासना का दमन कर जाये और मुदाल का कहना था कि विचारशील और सत्तारूढ़ का पाप सारे समाज को पापी बना देता है। इसलिये चरित्र को वैभव के सामने झुकाया नहीं जा सकता। मुदाल ने बहुत समझाया पर महाराज का रौद्र कम न हुआ। स्थिति अनियंत्रित होते देखकर मुदाल ने कहा- महाराज यदि आप साधिकार चेष्टा करना ही चाहते हैं तो तीन दिन और रुके, मैं रजोदर्शन की स्थिति में हूँ आज से चौथे दिन आप मुझे “चैत्य सरोवर” के समीप मिलें, आपको यह शरीर वही समर्पित होगा।
तीन दिन करुष ने किस तरह बिताये यह वही जानते होगे। चौथे दिन चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में अगणित उपहारों के साथ महाराज करुष जब चैत्य विहार पहुँचे तो वहाँ जाकर उन्होंने जो कुछ देखा उससे उनकी तृष्णा और कामुकता स्तब्ध रह गई। मुदाल का शरीर तो वहां उपस्थित था पर उसमें जीवन नहीं था। एक पत्र पास ही पड़ा हुआ था - सौंदर्य राष्ट्र के चरित्र से बढ़कर नहीं चरित्र की रक्षा के लिये यदि सौंदर्य का बलिदान किया जा सकता है तो उसके लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ शव देखने से लगता था मुदाल ने विषपान कर लिया है।
मुदाल के बलिदान ने करुष की आंखें खोल दी। उस दिन से वे आत्म-सौंदर्य की साधना में लग गये।
📖 अखण्ड ज्योति 1971 फरवरी पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/February/v1.44
देश के कर्णधार मार्गदर्शक और प्रभावशाली लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो गये तो फिर सामान्य प्रजा का क्या होगा ? अभी वह इस चिन्ता में डूबी थी कि किसी ने द्वार पर दस्तक दी- मुदाल ने दरवाजा खोला तो सामने खड़े महाराज करुष को देखते ही स्तम्भित रह गई। इस समय आने का कारण महाराज! न चाहते हुए भी मुदाल को प्रश्न करना पड़ा।
बड़ा विद्रूप उत्तर मिला- मुदाल! तुम्हारे रूप और सौंदर्य पर सारा उरु प्रदेश मुग्ध है। त्यागी, तपस्वी तुम्हारे लिए सर्वस्व न्यौछावर कर सकते हैं, फिर मेरे ही यहाँ आने का कारण क्यों पूछती हो भद्रे!
महाराज! सामान्य प्रजा की बात आप छोड़िये। आप इस देश के कर्णधार है, प्रजा मार्ग भ्रष्ट हो जाये तो उसे सुधारा भी जा सकता है पर यदि समाज के शीर्षस्थ लोग ही चरित्र भ्रष्ट हो जाये तो वह देश खोखला हो जाता है, ऐसे देश, ऐसी जातियाँ अपने अस्तित्व की रक्षा भी नहीं कर पाती महाराज! इसीलिये आपका इस समय यहाँ आना, अशोभनीय ही नहीं, सामाजिक अपराध भी है।
किसी ने सच कहा है अधिकार और अहंकार मनुष्य के दो प्रबल शत्रु है। वह जिस अन्तः करण में प्रवेश कर जाते हैं उसमें उचित और अनुचित के विचार की शक्ति भी नहीं रह पाती। मुदाल के यह सीधे-साधे शब्द करुष को बाण की तरह चुभे। वे तड़प कर बोले- मुदाल हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये, तुम एक नर्तकी हो और शरीर का सौदा तुम्हारा धर्म है। कीमत माँग सकती हो, धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? यह सोचना तुम्हारा काम नहीं है।
नर्तकी भर होते तब तो आपका कथन सत्य था महाराज! मुदाल की गंभीरता अब दृढ़ता और वीरोचित स्वाभिमान में बदल रही थी - किन्तु हम मनुष्य भी है और मनुष्य होने के नाते समाज के हित, अहित की बात सोचना भी हमारा धर्म है। हम सत्ता को दलित करके अपने देशवासियों को मार्ग-भ्रष्ट करने का पाप अपने सिर कदापि नहीं ले सकते।
स्थिति बिगड़ते देखकर महाराज करुष ने बात का रुख बदल दिया। पर वे अब भी इस बात को तैयार नहीं थे कि साधारण नर्तकी उनकी वासना का दमन कर जाये और मुदाल का कहना था कि विचारशील और सत्तारूढ़ का पाप सारे समाज को पापी बना देता है। इसलिये चरित्र को वैभव के सामने झुकाया नहीं जा सकता। मुदाल ने बहुत समझाया पर महाराज का रौद्र कम न हुआ। स्थिति अनियंत्रित होते देखकर मुदाल ने कहा- महाराज यदि आप साधिकार चेष्टा करना ही चाहते हैं तो तीन दिन और रुके, मैं रजोदर्शन की स्थिति में हूँ आज से चौथे दिन आप मुझे “चैत्य सरोवर” के समीप मिलें, आपको यह शरीर वही समर्पित होगा।
तीन दिन करुष ने किस तरह बिताये यह वही जानते होगे। चौथे दिन चन्द्रमा के शीतल प्रकाश में अगणित उपहारों के साथ महाराज करुष जब चैत्य विहार पहुँचे तो वहाँ जाकर उन्होंने जो कुछ देखा उससे उनकी तृष्णा और कामुकता स्तब्ध रह गई। मुदाल का शरीर तो वहां उपस्थित था पर उसमें जीवन नहीं था। एक पत्र पास ही पड़ा हुआ था - सौंदर्य राष्ट्र के चरित्र से बढ़कर नहीं चरित्र की रक्षा के लिये यदि सौंदर्य का बलिदान किया जा सकता है तो उसके लिए मैं सहर्ष प्रस्तुत हूँ शव देखने से लगता था मुदाल ने विषपान कर लिया है।
मुदाल के बलिदान ने करुष की आंखें खोल दी। उस दिन से वे आत्म-सौंदर्य की साधना में लग गये।
📖 अखण्ड ज्योति 1971 फरवरी पृष्ठ 44
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/February/v1.44
👉 परिजनों को परामर्श
अपना विशाल परिवार हमने एक ही प्रयोजन के लिये बनाया और सींचा है कि विश्व-मानव की अन्तर्वेदना हलकी करने में और रुदन, दरिद्र, जलन से बचाने के लिये कुछ योगदान सम्भव हो सके, पेट और प्रजनन की कृमि कीटकों जैसी सड़न से ही हम सब बहुमूल्य जिन्दगी न बिता डालें वरन् कुछ ऐसे हो जो जीवनोद्देश्य को समझें और उसे पूरा करने के लिये अपनी विभूतियों और सम्पत्तियों का एक अंश अनुदान दे सकने में तत्पर हो सकें। उच्च आदर्शों पर चल कर विश्व के भावनात्मक नव-निर्माण की दृष्टि से ही हमने अपना विशाल परिवार बनाया। यों दुख कष्ट से पीड़ितों की सहायता के लिए हमारे पास जो कुछ था उसे देते रहे पर उसका प्रयोजन विवेकहीन तथा कथित दानियों द्वारा लोगों की तृष्णा भड़काना स्वल्प प्रयत्न में अधिक लाभ उठाने की दुष्प्रवृत्ति जगाना एवं भिक्षा-वृत्ति का अभ्यस्त बनाना नहीं था। सिद्ध पुरुष हमें संयोग ने ही बना दिया, मनोकामना पूर्ण करने की बात अनायास ही हमारे ऊपर लग पाई वस्तुतः हम लोक मानस में उत्कृष्टता की वृष्टि करने वाले एक संदेश वाहक के रूप में ही आये और जिये। परिवार भी अपने मूल प्रयोजन के लिये ही बनाया।
अपने इस हरे-भरे उद्यान परिवार के फले-फूले परिजन वट-वृक्षों से हम कुछ आशा अपेक्षा रखें तो उसे अनुचित नहीं कहा जाना चाहिए उनके लिए कुछ भाव भरा संदेश प्रस्तुत करें तो इसे उचित ओर उपयुक्त ही माना जना चाहिए। हमारा प्रत्येक परिजन को बहुत ही मार्मिक और दूर-दर्शिता भरा परामर्श हैं, उन्हें गम्भीरता पूर्वक लिया जाना चाहिए उन पर चिंतन−मनन किया जाना चाहिए और यदि वे उचित जंचे तो तद्नुकूल अपनी मनोभूमि एवं क्रिया-पद्धति में ढालने के लिए विचार किया जाना चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५७
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.57
अपने इस हरे-भरे उद्यान परिवार के फले-फूले परिजन वट-वृक्षों से हम कुछ आशा अपेक्षा रखें तो उसे अनुचित नहीं कहा जाना चाहिए उनके लिए कुछ भाव भरा संदेश प्रस्तुत करें तो इसे उचित ओर उपयुक्त ही माना जना चाहिए। हमारा प्रत्येक परिजन को बहुत ही मार्मिक और दूर-दर्शिता भरा परामर्श हैं, उन्हें गम्भीरता पूर्वक लिया जाना चाहिए उन पर चिंतन−मनन किया जाना चाहिए और यदि वे उचित जंचे तो तद्नुकूल अपनी मनोभूमि एवं क्रिया-पद्धति में ढालने के लिए विचार किया जाना चाहिए।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति, जून १९७१, पृष्ठ ५७
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1971/June/v1.57
👉 आध्यात्मिक तेज का प्रज्वलित पुंज होता है चिकित्सक (भाग ४७)
👉 मंत्रविद्या असम्भव को सम्भव बनाती हैं
मंत्र चिकित्सा अध्यात्म विद्या का महत्त्वपूर्ण आयाम है। इसके द्वारा असाध्य रोगों को ठीक किया जा सकता है। कठिनतम परिस्थितियों पर विजय पायी जा सकती है। व्यक्तित्व की कैसी भी विकृतियाँ व अवरोध दूर किये जा सकते हैं। अनुभव कहता है कि मंत्र विद्या से असम्भव- सम्भव बनता है, असाध्य सहज साध्य होता है। जो इस विद्या के सिद्धान्त एवं प्रयोगों से परिचित हैं वे प्रकृति की शक्तियों को मनोनुकूल मोड़ने में समर्थ होते हैं। प्रारब्ध उनके वशवर्ती होता है। जीवन की कर्मधाराएँ उनकी इच्छित दिशा में मुड़ने और प्रवाहित होने के लिए विवश होती हैं। इन पंक्तियों को पाठक अतिशयोक्ति समझने की भूल न करें। बल्कि इसे विशिष्ट साधकों की कठिन साधना का सार निष्कर्ष मानें।
मंत्र है क्या? तो इसके उत्तर में कहेंगे- ‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’ जिसके मनन से त्राण मिले। यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है, जो चेतना जगत् को आन्दोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। कई बार बुद्धिशील व्यक्ति मंत्र को पवित्र विचार के रूप मं परिभाषित करते हैं। उनका ऐसा कहना- मानना गलत नहीं है। उदाहरण के लिए गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है। इसमें परमात्मा से सभी के लिए सद्बुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गयी है। लेकिन इसके बावजूद इस परिभाषा की सीमाएँ सँकरी हैं। इसमें मंत्र के सभी आयाम नहीं समा सकते। मंत्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी। यह एक पवित्र विचार हो भी सकता है और नहीं भी। कई बार इसके अक्षरों का संयोजन इस रीति से होता है कि उससे कोई अर्थ प्रकट होता है और कई बार यह संयोजन इतना अटपटा होता है कि इसका कोई अर्थ नहीं खोजा जा सकता।
दरअसल मंत्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर की नहीं जाती। इसका तो एक ही मतलब है- ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की किसी विशेष धारा से सम्पर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास है। मंत्र कोई भी हो वैदिक अथवा पौराणिक या फिर तांत्रिक इसी विधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस क्रम में यह भी ध्यान रखने की बात है कि मंत्र की संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है। कोई भी व्यक्ति भले ही कितना भी प्रतिभावान् या बुद्धिमान क्यों न हो, वह मंत्रों की संरचना नहीं कर सकता। यह तो तप साधना के शिखर पर पहुँचे सूक्ष्म दृष्टाओं व दिव्यदर्शियों का काम है।
ये महासाधक अपनी साधना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न व विशिष्ट धाराओं को देखते हैं। इनकी अधिष्ठातृ शक्तियाँ जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है, उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष के प्रतिबिम्ब के रूप में मंत्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रकट होता है। इसे ऊर्जाधारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं। मंत्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मंत्र कहते हैं। इस देवशक्ति के ऊर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण- धारण करना है उसी के अनुरूप इस देवता के अन्य मंत्रों का विकास होता है। यही कारण है कि एक देवता या देवी के अनेकों मंत्र होते हैं। यथार्थ में इनमें से प्रत्येक मंत्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध व सार्थक करने में समर्थ होते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ६७
मंत्र चिकित्सा अध्यात्म विद्या का महत्त्वपूर्ण आयाम है। इसके द्वारा असाध्य रोगों को ठीक किया जा सकता है। कठिनतम परिस्थितियों पर विजय पायी जा सकती है। व्यक्तित्व की कैसी भी विकृतियाँ व अवरोध दूर किये जा सकते हैं। अनुभव कहता है कि मंत्र विद्या से असम्भव- सम्भव बनता है, असाध्य सहज साध्य होता है। जो इस विद्या के सिद्धान्त एवं प्रयोगों से परिचित हैं वे प्रकृति की शक्तियों को मनोनुकूल मोड़ने में समर्थ होते हैं। प्रारब्ध उनके वशवर्ती होता है। जीवन की कर्मधाराएँ उनकी इच्छित दिशा में मुड़ने और प्रवाहित होने के लिए विवश होती हैं। इन पंक्तियों को पाठक अतिशयोक्ति समझने की भूल न करें। बल्कि इसे विशिष्ट साधकों की कठिन साधना का सार निष्कर्ष मानें।
मंत्र है क्या? तो इसके उत्तर में कहेंगे- ‘मननात् त्रायते इति मंत्रः’ जिसके मनन से त्राण मिले। यह अक्षरों का ऐसा दुर्लभ एवं विशिष्ट संयोग है, जो चेतना जगत् को आन्दोलित, आलोड़ित एवं उद्वेलित करने में सक्षम होता है। कई बार बुद्धिशील व्यक्ति मंत्र को पवित्र विचार के रूप मं परिभाषित करते हैं। उनका ऐसा कहना- मानना गलत नहीं है। उदाहरण के लिए गायत्री महामंत्र सृष्टि का सबसे पवित्र विचार है। इसमें परमात्मा से सभी के लिए सद्बुद्धि एवं सन्मार्ग की प्रार्थना की गयी है। लेकिन इसके बावजूद इस परिभाषा की सीमाएँ सँकरी हैं। इसमें मंत्र के सभी आयाम नहीं समा सकते। मंत्र का कोई अर्थ हो भी सकता है और नहीं भी। यह एक पवित्र विचार हो भी सकता है और नहीं भी। कई बार इसके अक्षरों का संयोजन इस रीति से होता है कि उससे कोई अर्थ प्रकट होता है और कई बार यह संयोजन इतना अटपटा होता है कि इसका कोई अर्थ नहीं खोजा जा सकता।
दरअसल मंत्र की संरचना किसी विशेष अर्थ या विचार को ध्यान में रख कर की नहीं जाती। इसका तो एक ही मतलब है- ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की किसी विशेष धारा से सम्पर्क, आकर्षण, धारण और उसके सार्थक नियोजन की विधि का विकास है। मंत्र कोई भी हो वैदिक अथवा पौराणिक या फिर तांत्रिक इसी विधि के रूप में प्रयुक्त होते हैं। इस क्रम में यह भी ध्यान रखने की बात है कि मंत्र की संरचना या निर्माण कोई बौद्धिक क्रियाकलाप नहीं है। कोई भी व्यक्ति भले ही कितना भी प्रतिभावान् या बुद्धिमान क्यों न हो, वह मंत्रों की संरचना नहीं कर सकता। यह तो तप साधना के शिखर पर पहुँचे सूक्ष्म दृष्टाओं व दिव्यदर्शियों का काम है।
ये महासाधक अपनी साधना के माध्यम से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा की विभिन्न व विशिष्ट धाराओं को देखते हैं। इनकी अधिष्ठातृ शक्तियाँ जिन्हें देवी या देवता कहा जाता है, उन्हें प्रत्यक्ष करते हैं। इस प्रत्यक्ष के प्रतिबिम्ब के रूप में मंत्र का संयोजन उनकी भावचेतना में प्रकट होता है। इसे ऊर्जाधारा या देवशक्ति का शब्द रूप भी कह सकते हैं। मंत्र विद्या में इसे देव शक्ति का मूल मंत्र कहते हैं। इस देवशक्ति के ऊर्जा अंश के किस आयाम को और किस प्रयोजन के लिए ग्रहण- धारण करना है उसी के अनुरूप इस देवता के अन्य मंत्रों का विकास होता है। यही कारण है कि एक देवता या देवी के अनेकों मंत्र होते हैं। यथार्थ में इनमें से प्रत्येक मंत्र अपने विशिष्ट प्रयोजन को सिद्ध व सार्थक करने में समर्थ होते हैं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ ६७
👉 Solving Life’s Problems - Last Part
I got her a job in a florist shop so she could earn her living working with flowers. She loved it. She said she would do it for nothing. But we used the other things too. Remember, she needed more than just a livelihood. She needed other things. The swimming became her exercise. It fits in with sensible living habits. The piano playing became her path of service. She went to a retirement home and played the old songs for the people there. She got them to sing, and she was good at that. Out of those three things such a beautiful life was built for that woman. She became a very attractive woman and married a year or so later.. She stayed right in that life pattern.
I knew another woman who was confined to her room and had been there for quite some time. I went in to see her and I could tell immediately from the lines in her face and her tenseness that it wasn’t physical at all. And I don’t think I had talked to her for more than five minutes before she was telling me all about how mean her sister had been to her. The way she told it, I knew she had told that story again and again and mulled over in her mind constantly that bitterness against her sister. I found myself explaining to her that if she would forgive, ask forgiveness, and make peace with her sister, then she could look for an improvement in her health. “Huh!” she said. “I’d rather die. You have no idea how mean she was.” So the situation drifted for a while.
To be continued...
But early one morning at dawn this woman wrote a beautiful and inspired letter to her sister, which she showed to me. (There is something very wonderful to be said about dawn. Sunset is good, too. The only thing is, at sunset almost everybody is awake and they’re hurrying and scurrying around. At dawn, mostly everybody is slowed down or asleep and they are much more harmonious when they’re asleep. So dawn is often a good time for spiritual things.) I immediately went into town and mailed the letter before she could change her mind. When I got back, she had changed her mind — so it’s a good thing I had mailed it! She worried a little, but by return mail came a letter from her sister, and her sister was so glad they were to be reconciled. And, you know, on the same day that letter arrived from her sister the woman was up and around and out of bed, and the last I saw of her she was joyously off for a reconciliation with her sister.
There’s something to that old saying that hate injures the hater, not the hated.
...End...
📖 From Akhand Jyoti
I knew another woman who was confined to her room and had been there for quite some time. I went in to see her and I could tell immediately from the lines in her face and her tenseness that it wasn’t physical at all. And I don’t think I had talked to her for more than five minutes before she was telling me all about how mean her sister had been to her. The way she told it, I knew she had told that story again and again and mulled over in her mind constantly that bitterness against her sister. I found myself explaining to her that if she would forgive, ask forgiveness, and make peace with her sister, then she could look for an improvement in her health. “Huh!” she said. “I’d rather die. You have no idea how mean she was.” So the situation drifted for a while.
To be continued...
But early one morning at dawn this woman wrote a beautiful and inspired letter to her sister, which she showed to me. (There is something very wonderful to be said about dawn. Sunset is good, too. The only thing is, at sunset almost everybody is awake and they’re hurrying and scurrying around. At dawn, mostly everybody is slowed down or asleep and they are much more harmonious when they’re asleep. So dawn is often a good time for spiritual things.) I immediately went into town and mailed the letter before she could change her mind. When I got back, she had changed her mind — so it’s a good thing I had mailed it! She worried a little, but by return mail came a letter from her sister, and her sister was so glad they were to be reconciled. And, you know, on the same day that letter arrived from her sister the woman was up and around and out of bed, and the last I saw of her she was joyously off for a reconciliation with her sister.
There’s something to that old saying that hate injures the hater, not the hated.
...End...
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