शनिवार, 24 जून 2017

👉 हमारा युग निर्माण सत्संकल्प (भाग 19)

🌹  इंद्रिय संयम, अर्थ संयम, समय संयम और विचार संयम का सतत अभ्यास करेंगे।

🔴 ध्यान रखना चाहिए कि जो उपार्जन से बचाया जाए, उसे उचित प्रयोजन में नियोजित कर दें। कमाने में न अनीति बरती जाए और न उपेक्षा। खर्च करने में सज्जनता एवं सत्परिणामों की जाँच पड़ताल रखी जाए अन्यथा संपन्नता, दरिद्रता से भी अधिक घातक सिद्ध होती है। इससे समाज में दूषित परंपराएँ पनपती है। धन के लक्ष्मी कहते हैं। सत्प्रयोजन में लगे तो लक्ष्मी, अपव्यय किया जाए, अनीति से कमाया या खर्च किया जाए तो वह माया है। माया का नाश सदैव हुआ है।
  
🔵 संयम पर न टिक पाने का कारण उसका स्वरूप न समझ पाना है। स्वरूप न समझ पाने से व्यक्ति उसी तरह फँस जाते हैं, जैसे अंधेरी रात में मार्ग में भरे पानी को सूखी जमीन समझकर व्यक्ति उसमें पैर फँसा देता है। स्वरूप एवं महत्त्व समझना कठिन नहीं है, परंतु उसके लिए मनुष्य को पूरा प्रयास तथा नित्य प्रति अभ्यास करना होगा। स्वरूप और महत्त्व समझने के लिए आवश्यक उद्योग न कर पाना भी असंयम की वृत्ति की ही प्रतिक्रिया है। अतः जो संयम का लाभ लेना चाहें वे उसका स्वरूप और महत्त्व समझें। संयम काँप एक पक्ष जहाँ अनावश्यक अपव्यय को रोकना है, वहाँ दूसरी हो उसे सृजनात्मक कार्यों हेतु नियोजित करना भी है। सामर्थ्य तभी श्रेयस्कर परिणाम उत्पन्न करती है, जब उसे अस्त- व्यस्तता एवं अनुपयुक्तता से बचाकर सृजनात्मक सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त किया जाए।
 
🔴 सप्तर्षियों की बैठक होने वाली थी। उससे पूर्व ही वेदव्यास को महाभारत लिखकर देना था। समय कम था, तो भी उन्होंने गणेश जी की मदद ली और महाभारत लिखना प्रारंभ कर दिया। महाभारत समय से पूर्व ही लिख गया। अंतिम श्लोक लिखाते व्यास जी ने कहा- गणेश आश्चर्य है कि पूरा महाभारत लिख गया और इस बीच आप एक शब्द भी नहीं बोले। गणेश जी ने कहा- भगवन् इस संयम के कारण ही हम लोग वर्षों का कार्य कुछ ही दिन में संपन्न करने में समर्थ हुए हैं। बातों में समय नष्ट करने से काम में विलंब होता है। अपने काम में दत्तचित्त एवं शांत होकर लगे रहना चाहिए।
  
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://literature.awgp.org/book/ikkeesaveen_sadee_ka_sanvidhan/v1.27

👉 इस धरा का पवित्र श्रृंगार है नारी (भाग 5)

🔴 वेद इतिहास के ग्रंथों का अनुशीलन करने से पता चलता है कि प्रारम्भिक समय में जब साधनों की कमी होने से पुरुषों को प्रायः जंगलों से आहार सामग्री प्राप्त करने तथा आत्म शिक्षा के कामों में अधिक ध्यान देना पड़ता था तब व्यवस्था, ज्ञान-विज्ञान तथा सभ्यता संस्कृति सम्बन्ध विषयों में अधिकाँश काम नारियाँ ही किया करती थी। इसलिये अनेक तत्त्ववेत्ता अन्वेषक मनुष्यों को आदिम सभ्यता की जन्मदात्री नारी को ही मानते है। ऐसा महत्वपूर्ण तथा जीवनदायिनी नारी की उपेक्षा करना कहाँ तक ठीक है यह विचारणीय विषय है।

🔵 नारी संसार की सुंदरता तथा श्रृंगार है। यदि नारी का मोहक रूप न होता तो बर्बर पुरुष बर्बर ही बना रहता है। हिंसा, आखेट तथा युद्ध में ही लगा रहता है यह नारी का ही आकर्षण तथा परामर्श था जिसने उसे हिंसा से विरत कर पशु पालन तथा खेती-बाड़ी के काम में लगाया। उसकी स्नेहमयी करुणा ने ही पुरुष की कठोरता जीतकर उसे सद्गृहस्थ में बदल दिया पारिवारिक बना दिया। यदि नारी न होती तो पुरुष में न तो सरसता का जागरण होता और न कला-कौशल से प्रेम।

🔴 रूप की अय्याशी उसकी आँख संसार में अपना केंद्र खोजते-खोजते थककर पथरा जाती। आखेट खोल लाने के अतिरिक्त उसकी आँखों का वह मूल्य महत्व तथा उपयोग न रहता जिसके आधार पर उसे प्रकृति के सुन्दर दृश्य और आकाश के सुंदर रंग अनुभूत करने की चेतना मिल सकी है। नारी के प्रति स्नेह आकर्षण ने पुरुष हृदय में न केवल कला का ही स्फुरण किया अपितु काम को भी जन्म दिया। नारी के रूप में भी नारी का महत्व कुछ कम नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- अगस्त 1995 पृष्ठ 25
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1995/August/v1.25

👉 आप किसी से ईर्ष्या मत कीजिए। (अंतिम भाग)

🔵 जो लोग यह समझते हैं कि वे ईर्ष्या की कुत्सित भावना को मन में छिपा कर रख सकते हैं और मानते हैं कि दूसरों व्यक्ति उसे जान न सकेगा। वे बड़ी भूल करते हैं। प्रथम तो यह भावना छिप ही नहीं सकती, किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाती है। दूसरे दुराचार और छिपाने की भावना मनोविज्ञान की दृष्टि से अनेक मानसिक रोगों की जननी है। कितने ही लोगों में विक्षिप्त जैसे व्यवहारों का कारण ईर्ष्याजन्य मानसिक ग्रन्थि होती है। ईर्ष्या मन के भीतर ही भीतर अनेक प्रकार के अप्रिय कार्य करती रहती है।

🔴 मनुष्य का जीवन केवल उन्हीं अनुभवों, विचार, मनोभावनाओं संकल्पों का परिणाम नहीं जो स्मृति के पटल पर है। प्रत्युत गुप्त मन में छिपे हुए अनेक संस्कार और अनुभव जो हमें खुले तौर पर स्मरण भी नहीं हैं, वे भी हमारे व्यक्तित्व को बनाते हैं। फ्राँस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वर्गसाँ ने मनुष्य के जीवन विकास का उपर्युक्त सिद्धान्त माना है। ईर्ष्या, क्रोध, काम, भाव, द्वेष, चिंता, भय, दुर्व्यवहार का प्रत्येक अनुभव अपना कुछ संस्कार हमारे अंतर्मन पर अवश्य छोड़ जाता है। ये संस्कार और अनुभव सदैव सक्रिय और पनपने वाले कीटाणु हैं। इन्हीं के ऊपर नवजीवन के निर्माण का कार्य चला करता है।

🔵 ईर्ष्या के विकार अंतर्मन में बैठ जाने पर आसानी से नहीं जाते। उससे स्वार्थ और अहंकार तीव्र होकर सुप्त और जागृत भावनाओं में संघर्ष और द्वन्द्व होने लगता है। निद्रा-नाश, घबराहट, प्रतिशोध लेने की भावना, हानि पहुँचाने के अवसर की प्रतीक्षा देखना, विमनस्कता इत्यादि मानसिक व्यथाएं ईर्ष्यापूर्ण मानसिक स्थिति की द्योतक है। यदि यह विकार बहुत तेज हुआ तो मन पर एक अव्यक्त चिंता हर समय बनी रहती है जल, अन्न, व्यायाम, विश्राम का ध्यान नहीं रहता, शयन समय घात प्रतिघात का संघर्ष और अव्यक्त की उद्भूत वासनाएं आकर विश्राम नहीं लेने देतीं। अतः मनुष्य की पाचनेन्द्रिय बिगड़ जाती है, रुधिर की गति में रुकावट होने लगती है, शारीरिक व्याधियाँ भी फूट पड़ती हैं। सम्पूर्ण शरीर में व्यवधान उपस्थित होने से मस्तिष्क का पोषण उचित रीति से नहीं हो पाता।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 अखण्ड ज्योति- जून 1949 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1949/June/v1.20

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 24 June 2017



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