मंगलवार, 4 जनवरी 2022

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

यही रहस्य है। योग प्रवर्तक पंतजलि कहते हैं, " जब मनुष्य समस्त अलौकेक दैवी शक्तियों के लोभ का त्याग करता है, तभी उसे धर्म मेघ नामक समाधि प्राप्त होती है। वह परमात्मा का दर्शन करता है, वह परमात्मा बन जाता है और दूसरों को तदरूप बनने में सहायता करता है। मुझे इसीका प्रचार करना है। जगत् में अनेक मतवादों का प्रचार हो चुका है। लाखों पुस्तकें हैं, परन्तु हाय! कोई भी किंचित् अंश में प्रत्य्क्ष आचरण नहीं करता।

एक महान रहस्य का मैंने पता लगा लिया है -- वह यह कि केवल धर्म की बातें करने वालों से मुझे कुछ भय नहीं है। और जो सत्यद्र्ष्ट महात्मा हैं, वे कभी किसी से बैर नहीं करते। वाचालों को वाचाल होने दो! वे इससे अधिक और कुछ नहीं जानते! उन्हे नाम,  यश, धन, स्त्री से सन्तोष प्राप्त करने दो। और हम धर्मोपलब्धि, ब्रह्मलाभ एवं ब्रह्म होने के लिए ही दृढव्रत होंगे। हम आमरण एवं जन्म-जन्मान्त में सत्य का ही अनुसरण करेंगें। दूसरों के कहने पर हम तनिक भी ध्यान न दें और यदि आजन्म यत्न के बाद एक, देवल एक ही आत्मा संसार के बन्धनों को तोडकर मुक्त हो सके तो हमने अपना काम कर लिया।

जो सबका दास होता है, वही उन्का सच्चा स्वामी होता है। जिसके प्रेम में ऊँच - नीच का विचार होता है, वह कभी नेता नहीं बन सकता। जिसके प्रेम का कोई अन्त नहीं है, जो ऊँच - नीच सोचने के लिए कभी नहीं रुकता, उसके चरणों में सारा संसार लोट जाता है।

वत्स, धीरज रखो, काम तुम्हारी आशा से बहुत ज्यादा बढ जाएगा। हर एक काम में सफलता प्राप्त करने से पहले सैंकडो कठिनाइयों का सामना करना पडता है। जो उद्यम करते रहेंगे, वे आज या कल सफलता को देखेंगे। परिश्रम करना है वत्स, कठिन परिश्रम्! काम कांचन के इस चक्कर में अपने आप को स्थिर रखना, और अपने आदर्शों पर जमे रहना, जब तक कि आत्मज्ञान और पूर्ण त्याग के साँचे में शिष्य न ढल जाय निश्चय ही कठिन काम है। जो प्रतिक्षा करता है, उसे सब चीज़े मिलती हैं। अनन्त काल तक तुम भाग्यवान बने रहो।

👉 भक्तिगाथा (भाग ९९)

नारायण नाम का चमत्कार

अब बारी इस सूत्र की व्याख्या की थी। इसके लिए सबकी नजरें प्रायः एक साथ ऋषि पुलह की ओर घूमीं क्योंकि अभी तक अजामिल की कथा आगे सुनने का उत्साह बना हुआ था। ऋषि पुलह भी इस सच से परिचित थे। उन्होंने कहा कुछ भी नहीं, बस कुछ समय तक मौन रहे, तब आगे बोले- ‘‘ब्राह्मणपुत्र अजामिल महामाया के दुस्तर भंवर में फँस चुका था। उसके चारों ओर घना अंधेरा था और सब तरफ इस अंधियारे के साथी उसे घेरे हुए थे। प्रकाश की एक भी किरण इस घने अंधेरे को भेद सके, ऐसा भी सम्भव न था। मैं स्वयं भी उस युवक के लिए चिन्तित था, पर स्थिति ऐसी न थी कि उसके लिए कुछ भी किया जा सके। बस यदा-कदा उसके बारे में सोच लेता था, और सर्वसमर्थ प्रभु से प्रार्थना करता था। हाँ! मेरे मन में बेचैनी और विवशता अवश्य थी।

तभी अचानक एक दिन खबर आयी कि चन्द्रलेखा ने एक सुपुत्र को जन्म दिया है। अन्य कोई तो उसके पुत्रजन्म के अवसर पर जाने को तैयार न था। हारकर उसने नामकरण के अवसर पर मुझे बुलावा भेजा। उसकी वेश्या पत्नी मेरे इस तरह बुलावे पर चिन्तित थी। उसकी चिन्ता का कारण यह था कि कहीं मैं उसके प्रेमी व पति अजामिल को वैराग्य का पाठ न पढ़ा दूँ परन्तु मेरा ऐसा कोई विचार न था। मैं तो अजामिल के परम कल्याण के लिए चिन्तित था। इसी चिन्ता को लिए मैं उसके द्वार पहुँचा। द्वार पर चन्द्रलेखा और अजामिल ने मेरा भरपूर स्वागत किया। हालांकि इस स्वागत में कहीं न कहीं संकोच छुपा था और इस संकोच में दोनों के अपने-अपने कारण थे। अजामिल के संकोच का कारण चन्द्रलेखा के प्रति उसका प्रेम और साधना से पतन था जबकि चन्द्रलेखा के संकोच का कारण उसके मन का पापभाव था जो लगातार दीर्घकाल से संचित हो रहा था।

परन्तु मैं उन दोनों के इस संकोच को दरकिनार कर उनसे बड़ी आत्मीयता से मिला। मेरी आत्मीयता देख वे दोनो रो पड़े। देर तक यूं ही उनका यह रोना चलता रहा। फिर अजामिल कहने लगा- भगवन्! क्या अब भी मेरे उद्धार की कोई राह शेष है परन्तु मैं अब अपनी पत्नी व पुत्र को नहीं छोड़ सकता। उसके इस कथन पर मैंने कहा- पुत्र! तुम्हें किसी को भी छोड़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि भगवान के तो सभी अपने हैं। क्या मैं भी? चन्द्रलेखा के स्वर में किञ्चित उत्साह अधिक था। उसके इस तरह पूछने पर मैंने कहा- हाँ पुत्री! तुम भी। प्रभु के तो सभी अपने हैं। वे कभी किसी को नहीं भुलाते, हाँ हम ही किसी न किसी रूप में उनसे मुख मोड़ लेते हैं। मेरी इस बात ने उन दोनों को बड़ी आश्वस्ति दी। अब वे मुझे पूरे मन से सुनने के लिए तैयार थे।

उन्होंने कहा- हम दोनों को क्या करना होगा भगवन्! मैंने कहा कुछ विशेष नहीं। अभी तो हम लोग पुत्र का नामकरण कर लेते हैं। इतना कहते ही चन्द्रलेखा की दासी, पुत्र को ले आयी। बड़ा ही प्यारा शिशु था, बहुत ही लुभावना रूप था उसका। उसे गोद में लेते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे कि स्वयं नारायणभक्त प्रह्लाद मेरी गोद में आ गए हों। यह स्मरण करते ही, बरबस मेरे मुख से नारायण निकल पड़ा। वे दोनों पति-पत्नी भी अनायास ही नारायण! नारायण!! बोल उठे। इस उच्चारण के बाद अजामिल ने कहा- भगवन्! क्या इसका नाम हम लोग नारायण रखें? अवश्य पुत्र! अब से नारायण ही इसका नाम होगा।

परन्तु आप ने मेरे उद्धार का कोई उपाय नहीं बताया? तुम्हारे पुत्र का यह नाम ही तुम्हारा उद्धार करेगा। इसके अतिरिक्त यदि कुछ और करना चाहते हो तो बस एकादशी का व्रत करो। एकादशी का व्रत सभी पापों का हरण व शमन करता है। एक बात और पुत्र, जब तुम अपने बेटे को नारायण नाम से पुकारना, तब यह भी स्मरण रखना कि यही नाम परमकरूणामय परमेश्वर का है। इतना कहकर मैं चुप हो गया। चन्द्रलेखा मेरे इस तरह से चुप होने पर बोली- हम दोनों को क्या बस इतना ही करना है?  मैंने कहा- हाँ पुत्री! करना तो बस इतना ही है, परन्तु बड़ी निष्ठापूर्वक और सच्चे व निष्कपट भाव से करना है।

अवश्य! उन दोनों ने लगभग एक साथ ही कहा। उन दोनों ने केवल इतना कहा ही नहीं, बल्कि इसे सच कर दिखाया। अब वे जब भी नारायण नाम लेते, बरबस उन्हें परमेश्वर याद आ जाते। उनके मन के भाव विगलित होकर बरबस प्रभु के लिए उमड़ पड़ते। नारायण का भावपूर्ण स्मरण करते हुए उनका सब कुसंग छूट गया। मन की कालिमा हटने-घटने और मिटने लगी। अब तो वह यदा-कदा मेरे यहाँ भी आ जाते। एकादशी के व्रत-विधान और उपवास, इसने तो जैसे स्वर्ण को सुगन्धित कर दिया। अब उनकी कुसंगों के प्रति आसक्ति टूट गयी। उनका चित्त ममतारहित-आसक्तिरहित हो गया। एकादशी का दिवस और रात्रि तो उनके लिए साधना की अहोरात्रि हो गयी। धीरे-धीरे उनके द्वेष-दुर्भाव, टूटने-छूटने लगे। उनके अन्तहृदय में प्रसन्नता अविचल व स्थिर हो गयी। एक दिन वे चकित होकर मेरे पास आए और बोले- भगवन्! आपके सत्संग ने हमें चमत्कारित रूप से बदल दिया। उनके इस तरह कहने पर मैंने कहा- पुत्र! यह तो नारायण नाम का चमत्कार है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १८४

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