गुरुवार, 6 अक्टूबर 2016

👉 समाधि के सोपान Samadhi Ke Sopan (भाग 50)

🔵 शरीर अवस्था से गुरु- देव के उपदेशों तथा सिद्धान्तों की ओर, व्यक्ति से तत्व की ओर, शिष्य को बच्चे के समान प्रशिक्षित करना आवश्यक है। घनिष्ठ संबंधों में, सर्वोपरि घनिष्ठ गुरु शिष्य के संबंध में शरीर और मन का उतना महत्त्व नहीं रह जाता। स्वयं गुरु की आत्मा ही उच्च से उच्चतम अनुभूति के द्वारा शिष्य में प्रविष्ट हो जाती है। गुरु के स्वभाव में शिष्य का व्यक्तित्व अधिकाधिक विलीन होता जाता है और गुरुदेव का व्यक्तित्व अधिकाधिक उस महत्त्व में, जिसका कि गुरुदेव का शरीर भी एक व्यक्त स्वरूप है विलीन होता जाता है और तब उस अत्युदात्त एकत्व की उपलब्धि होती है। 

🔴 गुरु तथा शिष्य के दो व्यक्तित्वों का जल मिलकर असीम -ब्रह्म- समुद्र हो जाता है। उस परम सौंदर्य की उपलब्धि के लिए जहाँ गुरु की आज्ञा होगी क्या तुम वहाँ नहीं जाओगे? उनके लिए यदि उनकी इच्छा हो तो क्या तुम सहस्रों जन्म- मत्यु के चक्र में नहीं पड़ोगे? तुम उनके प्रिय सेवक हो। उनकी इच्छा ही तुम्हारे लिए नियम है। तुम्हारी इच्छा उनकी इच्छा का उपकरण मात्र है। उनका आदेश पालन करना यही धर्म है। जैसा कि शास्त्र कहते हैं, गुरु ही ईश्वर हैं। गुरु ही ब्रह्मा है।.गुरु ही विष्णु हैं। गुरु ही महादेव हैं। वास्तव में वे ही परम ब्रह्म हैं। गुरु से बड़ा और कोई नहीं है।

🌹 क्रमशः जारी
🌹 एफ. जे. अलेक्जेन्डर

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