बुधवार, 9 जनवरी 2019

👉 हमारी फितरत

एक घर में गृह प्रवेश की पूजा हो रही थी। पंडित जी पूजा करा रहे थे। पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।” लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। गृह मालिक को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।

हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए। मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई। सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।

हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे  अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें। एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया। एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।

अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था। काफी देर तक इंतज़ार करना पडा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।

👉 ये कहानी तो यहीं रुक जाती है। परन्तु.......

उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी। ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं।

ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा।

संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो l

👉 आज का सद्चिंतन 9 Jan 2019


👉 प्रेरणादायक प्रसंग 9 Jan 2019


👉 आज का दिन, सर्वश्रेष्ठ शुभ मुहूर्त (अन्तिम भाग)

आशावादी हर कठिनाई में से उपयोगी अवसर ढूँढ़ निकालता है जबकि निराशावादी हर उपस्थिति अवसर में कोई न कोई कठिनाई देखता है और उसे करने से जी चुराने का कोई बहाना खोजता है। हर दिन, हर सप्ताह, हर मास, हर वर्ष हमारे लिए उज्ज्वल भविष्य के उपहार लिए हुए आता है, हम हैं जो न तो उसे पहचानते हैं और न उसका स्वागत करते हैं फलतः वह वापस चला जाता है और फिर कभी वापस लौटकर नहीं आता।

शेक्सपियर कहते हैं- ‘समय को मैंने बर्बाद किया और वही बर्बादी मेरी परेशानी और बर्बादी का कारण बनी हुई है।’ फ्रेकलिन कहते थे “एक ‘आज’ दो ‘कल’ के बराबर है। इसलिए कल की प्रतीक्षा में न बैठो, जो करना है उसके लिए आज ही कमर कसनी और तैयारी करनी चाहिए। जिसने समय का मूल्य नहीं समझा समझना चाहिए कि वह छोटे काम करने और छोटे स्तर का बने रहने के लिए ही पैदा हुआ है।”

भूतकाल की चर्चा न करें। जो गया वह लौटने वाला नहीं। सोचा इतना ही जाना चाहिए कि जो शेष है वह कम महत्वपूर्ण नहीं। यदि भूत की शिकायत करने की अपेक्षा भविष्य की योजना बनाने में विचारों को केन्द्रित किया जाय और परिवर्तन का क्रम आज के दिन से ही आरम्भ किया जाय तो समझना चाहिए कि महत्वपूर्ण समझदारी का आरम्भ हुआ। ऐसी समझदारी जिसे कुछ समय कार्यान्वित कर लेने पर भी एक समूची जिन्दगी का लाभ मिल सकता है।

.....क्रमशः जारी
✍🏻पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1983 पृष्ठ 2

👉 Though Inconvenient, ‘Change’ is Inevitable

The juncture of the end of night and the beginning of day is called dawn. This period is filled with unique opportunities for self-growth for the early-risers; but for those who are still half – asleep, it appears as an unwelcome guest and as a burden loaded with new responsibilities. Howsoever unpleasant, they have to rise up and attend to their daily chores. Night does not return and the day does not stop. There is no other alternative than to adjust with the change. The cosmos is in perpetual movement. All our resistance is of no avail to hold back the incessant process of change.

The foetus manages happily in the dark cell of mother’s womb, but when it is fully developed, nature pushes it out of its cozy chamber, separates it from the mother’s umbilical cord and forces it to come out in free atmosphere. In the process of progress, this change is essential and unavoidable. The time of birth is painful and inconvenient to everyone. Mother, nurse, members of the family and friends – all have to abandon their normal routine and get ready to help in whatever way they can in the process of birth. Ultimately the result of this exercise is pleasant to all.

During the present momentous transition period of change of an era, the process of elimination of the Evil and establishment of the Good in human hearts is bound to appear painful for the rigidly orthodox. Other sections of the society may also feel it inconvenient to adopt new ways of life befitting a new era. But there is no other alternative than to adopt the discipline of ushering in of the new enlightened world order that has been ordained by Nature. Once we accept this Truth and are not resistant to change, we will find that change is seed of spiritual growth for all humanity. We will discover that the very change we were fleeing from had held the good we had prayed for.

👉 आत्मचिंतन के क्षण 9 Jan 2019

◾  विपत्ति मनुष्य को शिक्षा देने आती है। इससे हृदय में जो पीड़ा, आकुलता और छटपटाहट होती है उससे चाहें तो अपना सद्ज्ञान जाग्रत् कर सकते हैं। भगवान् को प्राप्त करने के लिए जिस साहस और सहनशीलता की आवश्यकता होती है, दुःख उसकी कसौटी मात्र है। विपत्तियों की तुला पर जो अपनी सहनशक्तियों को तोलते रहते हैं, वही अंत में विजयी होते हैं, उन्हीं को इस संसार में कोई सफलता प्राप्त होती है।

◾  अपने सुख-दुःख, उन्नति-अवनति, कल्याण-अकल्याण, स्वर्ग और नरक का कारण मनुष्य स्वयं है। फिर दुःख या आपत्ति के समय भाग्य के नाम पर संतोष कर लेना और भावी सुधार के प्रति अकर्मण्य बन जाना ठीक नहीं है। ऐसी स्थिति आने पर तो हमें यह अनुभव करना चाहिए कि हमसे जरूर कोई भूल हुई है और उस पर पश्चाताप करना चाहिए।

◾  महानता मनुष्य के अंदर छिपी हुई है और व्यक्त  होने का रास्ता ढूँढ़ती है, पर सांसारिक कामनाओं में ग्रस्त मनुष्य उस आत्म प्रेरणा को भुला देना चाहता है, ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्मा चुपचाप शरीर के भीतर सुप्त पड़ी रहती है और मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रह जाता है।

◾  मनुष्य सुखों की, पुण्य फल की इच्छा तो करता है, किन्तु पुण्य अर्जित नहीं करता है। पाप के दुष्परिणामों से डरता है, किन्तु यत्नपूर्वक करता दुष्कर्म ही है-ऐसी स्थिति रहते हुए भला किसी को सुख मिल सकता है? आम का फल आम होता है, बबूल नहीं। इसलिए सुख वही प्राप्त कर सकते हैं, जिनकी प्रवृत्तियाँ भी सन्मार्गगामी होती हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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