🔷 पूर्णमासी का चन्द्रमा जब पूरे आकाश पर छा जाता है, तब लोग उसे देखकर आदिशा के महान् तप को स्मरण करते और कहते -
🔶 "आज आदिशा के समकक्ष सारी पृथ्वी पर वैसे ही कोई दूसरा तपस्वी नहीं है, जैसे पूर्ण चन्द्र के सम्मुख कोई दूसरा चन्द्रमा नहीं! "
🔷 आदिशा का मनोनिग्रह इतना कठोर था कि राज-नर्तकियाँ वस्त्र-विहीन होकर उनके समक्ष पहुँचती हैं, तो भी उन्हें दो वर्षीय बालिका की तरह देखते! राजभवन से पहुँचते सुगन्धित षटरस व्यंजनों और अलोने-सत्तुओं में उन्हें कोई भेद न लगता था! ऐसा इन्द्रिय नियन्त्रण शायद ही कोई और तपस्वी कर पाया हो!
🔶 इतने पर भी आदिशा का चित्त शान्त न था! वर्षों तप करते हो गये थे, पर उन्हें भगवान पशुपत के दर्शन नहीं हो पाये थे! उनके पूजा-उपवास, यम-नियम, प्राणायाम-प्रत्याहार में कभी कोई त्रुटि नहीं आई थी! वर्षों बीत गये, क्रम कहीं भी टूटा नहीं था! उन्होंने तप में पूर्ण निष्ठा दर्शायी थी, तो भी वे आराध्य के दर्शनों से अब तक वंचित थे! वे स्वयं भी उसका कारण समझ नहीं पा रहे थे !
🔷 नर्मदा तट पर बने आदिशा के आश्रम मैं आज का दिन बड़े मंगल और आनन्द का है! प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भगवान पशुपतनाथ की झाँकी सजाई गई है, उनका कीर्तन हो रहा है! दर्शनार्थी दूर-दूर से आ रहे हैं! संध्याकालीन आरती में भाग लेने के लिये दूर-दूर से लोग दौड़े चले आ रहे हैं! भीड़ बढ़ती ही चली जा रही है!
🔶 राजमहल की परिचारिका सुनयना आज सम्पूर्ण दिन व्यग्र रही! प्रातःकाल भगवान की आरती देखने की इच्छा उमड़ी थी, जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, आकांक्षा उतनी ही तीव्र होती गई पर राजमहल के कार्यों से निवृत्ति कहाँ? आज अन्तःपुर भी तो उत्सव में सम्मिलित होने वाला था, सुनयना को तब फिर अवकाश कहाँ से मिलता?
🔷 सांयकाल उसे अवकाश मिला! दिन भर की भूखी-प्यासी सुनयना ने अपने कुटीर की ओर न जाकर सीधे नर्मदा-तट की ओर प्रस्थान किया! मार्ग में कौन मिला, क्या मिला उसे कुछ भी सुधि न थी, उसके अन्तर्मन में तो प्रभु की आरती थी और उसी के ध्यान में वह क्षिप्र गति से आगे बढ़ती चली जा रही थी!
🔶 आँगन पर मरकत-स्तम्भ के सहारे स्वयं सन्त आदिशा खड़े हुये थे, शेष जन-समुदाय उनके दोनों बाजुओं की ओर खड़ा था! सुनयना वहाँ पहुँच तो गई, पर सघन जन-समुदाय को चीरकर भीतर पहुँचना उसके लिये कठिन था! वह उसी मरकत-स्तम्भ पर चढ़ गई! खड़े होने के स्थान का अभाव दीखा, सो एक पाँव स्तम्भ पर दूसरा आदिशा के कन्धों पर टिकाकर, वह भगवान की आरती देखने लगी !
🔶 आरती समाप्त हुई तब लोगों का ध्यान उधर गया! सन्त आदिशा के कन्धों पर क्षुद्र सुनयना की लात - बड़ी अशोभनीय बात थी! लोगों ने डाँटा - " मूर्ख, तुझे दिखाई नहीं दिया, महात्मा के कन्धों पर पैर रख दिये! " इससे पूर्व सुनयना कुछ कहे और क्षमा माँगे, महात्मा आदिशा ने कहा - " उसे बुरा मत कहो! सुनयना मेरी गुरु हुई! आज तक मैं भले-बुरे, ऊँच-नीच के भेद-भाव में पड़ा रहा, इसलिये तप का अभीष्ट लाभ न मिल पाया! आज पता चला की साधक की उत्कृष्ट अभिलाषा ही दर्शन का आधार है! जब तक दर्शनों की इतनी तीव्र प्यास न हो, ध्येय का मिलना कैसे सम्भव हो सकता है? "
🔷 उस दिन आदिशा की रही-सही, सांसारिक दृष्टि का अन्त हुआ और उन्हें दिव्य प्रकाश के दर्शन हुये!!
🔶 "आज आदिशा के समकक्ष सारी पृथ्वी पर वैसे ही कोई दूसरा तपस्वी नहीं है, जैसे पूर्ण चन्द्र के सम्मुख कोई दूसरा चन्द्रमा नहीं! "
🔷 आदिशा का मनोनिग्रह इतना कठोर था कि राज-नर्तकियाँ वस्त्र-विहीन होकर उनके समक्ष पहुँचती हैं, तो भी उन्हें दो वर्षीय बालिका की तरह देखते! राजभवन से पहुँचते सुगन्धित षटरस व्यंजनों और अलोने-सत्तुओं में उन्हें कोई भेद न लगता था! ऐसा इन्द्रिय नियन्त्रण शायद ही कोई और तपस्वी कर पाया हो!
🔶 इतने पर भी आदिशा का चित्त शान्त न था! वर्षों तप करते हो गये थे, पर उन्हें भगवान पशुपत के दर्शन नहीं हो पाये थे! उनके पूजा-उपवास, यम-नियम, प्राणायाम-प्रत्याहार में कभी कोई त्रुटि नहीं आई थी! वर्षों बीत गये, क्रम कहीं भी टूटा नहीं था! उन्होंने तप में पूर्ण निष्ठा दर्शायी थी, तो भी वे आराध्य के दर्शनों से अब तक वंचित थे! वे स्वयं भी उसका कारण समझ नहीं पा रहे थे !
🔷 नर्मदा तट पर बने आदिशा के आश्रम मैं आज का दिन बड़े मंगल और आनन्द का है! प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भगवान पशुपतनाथ की झाँकी सजाई गई है, उनका कीर्तन हो रहा है! दर्शनार्थी दूर-दूर से आ रहे हैं! संध्याकालीन आरती में भाग लेने के लिये दूर-दूर से लोग दौड़े चले आ रहे हैं! भीड़ बढ़ती ही चली जा रही है!
🔶 राजमहल की परिचारिका सुनयना आज सम्पूर्ण दिन व्यग्र रही! प्रातःकाल भगवान की आरती देखने की इच्छा उमड़ी थी, जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, आकांक्षा उतनी ही तीव्र होती गई पर राजमहल के कार्यों से निवृत्ति कहाँ? आज अन्तःपुर भी तो उत्सव में सम्मिलित होने वाला था, सुनयना को तब फिर अवकाश कहाँ से मिलता?
🔷 सांयकाल उसे अवकाश मिला! दिन भर की भूखी-प्यासी सुनयना ने अपने कुटीर की ओर न जाकर सीधे नर्मदा-तट की ओर प्रस्थान किया! मार्ग में कौन मिला, क्या मिला उसे कुछ भी सुधि न थी, उसके अन्तर्मन में तो प्रभु की आरती थी और उसी के ध्यान में वह क्षिप्र गति से आगे बढ़ती चली जा रही थी!
🔶 आँगन पर मरकत-स्तम्भ के सहारे स्वयं सन्त आदिशा खड़े हुये थे, शेष जन-समुदाय उनके दोनों बाजुओं की ओर खड़ा था! सुनयना वहाँ पहुँच तो गई, पर सघन जन-समुदाय को चीरकर भीतर पहुँचना उसके लिये कठिन था! वह उसी मरकत-स्तम्भ पर चढ़ गई! खड़े होने के स्थान का अभाव दीखा, सो एक पाँव स्तम्भ पर दूसरा आदिशा के कन्धों पर टिकाकर, वह भगवान की आरती देखने लगी !
🔶 आरती समाप्त हुई तब लोगों का ध्यान उधर गया! सन्त आदिशा के कन्धों पर क्षुद्र सुनयना की लात - बड़ी अशोभनीय बात थी! लोगों ने डाँटा - " मूर्ख, तुझे दिखाई नहीं दिया, महात्मा के कन्धों पर पैर रख दिये! " इससे पूर्व सुनयना कुछ कहे और क्षमा माँगे, महात्मा आदिशा ने कहा - " उसे बुरा मत कहो! सुनयना मेरी गुरु हुई! आज तक मैं भले-बुरे, ऊँच-नीच के भेद-भाव में पड़ा रहा, इसलिये तप का अभीष्ट लाभ न मिल पाया! आज पता चला की साधक की उत्कृष्ट अभिलाषा ही दर्शन का आधार है! जब तक दर्शनों की इतनी तीव्र प्यास न हो, ध्येय का मिलना कैसे सम्भव हो सकता है? "
🔷 उस दिन आदिशा की रही-सही, सांसारिक दृष्टि का अन्त हुआ और उन्हें दिव्य प्रकाश के दर्शन हुये!!
📖 अखण्ड ज्योति- अप्रैल 1970 पृष्ठ 2