प्रपंच की माया जादुई है। इसके सम्मोहक-आकर्षण से बिरले बच पाते हैं। ज्यादातर इसमें उलझकर भ्रमित होते हैं। उन्हें पता भी नहीं चल पाता कि वे भ्रम में भटके हुए हैं। जीवन के बहुमूल्य क्षणों को खो रहे हैं, जीवन लक्ष्य से दूर हो रहे हैं। प्रपंच की मायावी मुस्कानों में, इससे उपजे हंसी ठहाकों में जीवन ठगा जाता है। जिन्दगी की उजली सम्भावनाएँ कब पतन के अंधेरों में समा जाती हैं, पता ही नहीं चलता।
इसकी पहचान आसान नहीं है। परचर्चा से इसकी शुरुआत होती है। परनिन्दा का रस इसमें घुलने से इसके नशे का नशीलापन गाढ़ा, मायावी और जादुई बनता है। परचर्चा और परनिन्दा का घुला-मिला रूप ही प्रपंच है। इसकी मायावी चकाचौंध में सबसे पहले जीवन की विवेक दृष्टि खोती है। जीवन लक्ष्य की स्मृति विलीन होती है। फिर अनायास ही द्वेष दुर्मति एवं दुर्बुद्धि पनप जाते हैं। इसके मायावी जादू से मित्र, शत्रु नजर आते हैं और भटकाने वाले प्रपंची जन सगे-सम्बन्धी लगने लगते हैं।
प्रपंच के अंकुर कभी भी, कहीं भी, किसी में भी फूट निकलते हैं। बस इसके विषय बीजों के लिए परचर्चा और परनिन्दा का खाद-पानी चाहिए। इसकी विषवल्लरी के उपजते, पनपते और पल्लवित होते ही व्यक्ति आत्मविमुख व ईश्वर विमुख हो जाता है। अन्तःकरण में इसके जन्मते ही ईश्वर और आत्मा केवल दो शब्द बनकर रह जाते हैं। इनका अर्थ खो जाता है। प्रपंच की इस माया में सामान्य जन ही नहीं, साधक भी उलझकर भ्रमित होते और भटकने लगते हैं।
उनकी साधना बातों और कर्मकाण्ड तक सिमट जाती है। साधना की आकृति फलती-फूलती रहती है, पर उसकी प्रकृति के प्राण प्रंपच चूसता रहता है। इन साधकों की ऐसी स्थिति के बारे में सन्त कवियों ने कहा है- ‘ब्रह्मज्ञान बिनु बात न करहीं। परनिन्दा करि विष रस भरही॥’ ब्रह्मज्ञान के बिना कोई बात नहीं करते, लेकिन अन्तःकरण को परनिन्दा के विष रस से भरते रहते हैं। इनका उद्धार वेदान्त वचनों को पढ़ने, सुनने और प्रवचन करने से नहीं, प्रपंच के मायापाश से छूटने में है। सन्त कवि तुलसी के वचनों में सभी के लिए सीख है- ‘परचर्चा, परनिन्दा तजि, भजुहरि’ अर्थात् परचर्चा और परनिन्दा को छोड़कर हरि को भजो। तभी प्रपंच की जादुई माया से छुटकारा मिलेगा। मोक्ष की तात्त्विक अनुभूति होगी।
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 112
इसकी पहचान आसान नहीं है। परचर्चा से इसकी शुरुआत होती है। परनिन्दा का रस इसमें घुलने से इसके नशे का नशीलापन गाढ़ा, मायावी और जादुई बनता है। परचर्चा और परनिन्दा का घुला-मिला रूप ही प्रपंच है। इसकी मायावी चकाचौंध में सबसे पहले जीवन की विवेक दृष्टि खोती है। जीवन लक्ष्य की स्मृति विलीन होती है। फिर अनायास ही द्वेष दुर्मति एवं दुर्बुद्धि पनप जाते हैं। इसके मायावी जादू से मित्र, शत्रु नजर आते हैं और भटकाने वाले प्रपंची जन सगे-सम्बन्धी लगने लगते हैं।
प्रपंच के अंकुर कभी भी, कहीं भी, किसी में भी फूट निकलते हैं। बस इसके विषय बीजों के लिए परचर्चा और परनिन्दा का खाद-पानी चाहिए। इसकी विषवल्लरी के उपजते, पनपते और पल्लवित होते ही व्यक्ति आत्मविमुख व ईश्वर विमुख हो जाता है। अन्तःकरण में इसके जन्मते ही ईश्वर और आत्मा केवल दो शब्द बनकर रह जाते हैं। इनका अर्थ खो जाता है। प्रपंच की इस माया में सामान्य जन ही नहीं, साधक भी उलझकर भ्रमित होते और भटकने लगते हैं।
उनकी साधना बातों और कर्मकाण्ड तक सिमट जाती है। साधना की आकृति फलती-फूलती रहती है, पर उसकी प्रकृति के प्राण प्रंपच चूसता रहता है। इन साधकों की ऐसी स्थिति के बारे में सन्त कवियों ने कहा है- ‘ब्रह्मज्ञान बिनु बात न करहीं। परनिन्दा करि विष रस भरही॥’ ब्रह्मज्ञान के बिना कोई बात नहीं करते, लेकिन अन्तःकरण को परनिन्दा के विष रस से भरते रहते हैं। इनका उद्धार वेदान्त वचनों को पढ़ने, सुनने और प्रवचन करने से नहीं, प्रपंच के मायापाश से छूटने में है। सन्त कवि तुलसी के वचनों में सभी के लिए सीख है- ‘परचर्चा, परनिन्दा तजि, भजुहरि’ अर्थात् परचर्चा और परनिन्दा को छोड़कर हरि को भजो। तभी प्रपंच की जादुई माया से छुटकारा मिलेगा। मोक्ष की तात्त्विक अनुभूति होगी।
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 112