गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

👉 प्राथमिकता मुख्य उत्तरदायित्व को दें!

जंगल में एक गर्भवती हिरनी बच्चे को जन्म देने को थी वो एकांत जगह की तलाश में घूम रही थी कि उसे नदी किनारे ऊँची और घनी घास दिखी। उसे वो उपयुक्त स्थान लगा शिशु को जन्म देने के लिये वहां पहुँचते ही उसे प्रसव पीडा शुरू हो गयी।

उसी समय आसमान में घनघोर बादल वर्षा को आतुर हो उठे और बिजली कडकने लगी।

उसने बायें देखा तो एक शिकारी तीर का निशाना उस की तरफ साध रहा था। घबराकर वह दाहिने मुड़ी तो वहां एक भूखा शेर, झपटने को तैयार बैठा था। सामने सूखी घास आग पकड चुकी थी और पीछे मुड़ी तो नदी में जल बहुत था।

मादा हिरनी क्या करती? वह प्रसव पीडा से व्याकुल थी। अब क्या होगा? क्या हिरनी जीवित बचेगी? क्या वो अपने शावक को जन्म दे पायेगी? क्या शावक जीवित रहेगा?

क्या जंगल की आग सब कुछ जला देगी? क्या मादा हिरनी शिकारी के तीर से बच पायेगी? क्या मादा हिरनी भूखे शेर का भोजन बनेगी?

वो एक तरफ आग से घिरी है और पीछे नदी है। क्या करेगी वो?

हिरनी अपने आप को शून्य में छोड़,अपने प्राथमिक उत्तरदायित्व अपने बच्चे को जन्म देने में लग गयी।  कुदरत का करिश्मा देखिये बिजली चमकी और तीर छोडते हुए , शिकारी की आँखे चौंधिया गयी उसका तीर हिरनी के पास से गुजरते शेर की आँख में जा लगा, शेर दहाडता हुआ इधर उधर भागने लगा और शिकारी शेर को घायल ज़ानकर भाग गया घनघोर बारिश शुरू हो गयी और जंगल की आग बुझ गयी हिरनी ने शावक को जन्म दिया।

हमारे जीवन में भी कभी कभी कुछ क्षण ऐसे आते है, जब हम चारो तरफ से समस्याओं से घिरे होते हैं और कोई निर्णय नहीं ले पाते तब सब कुछ नियति के हाथों सौंपकर अपने  उत्तरदायित्व व प्राथमिकता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। अन्तत: यश- अपयश, हार-जीत, जीवन-मृत्यु का अन्तिम निर्णय ईश्वर करता है। हमें उस पर विश्वास कर उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए।

👉 Gita Sutra No 4 गीता सूत्र नं० 4

👉 गीता के ये नौ सूत्र याद रखें, जीवन में कभी असफलता नहीं मिलेगी

श्लोक-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यश: कर्म सर्व प्रकृतिजैर्गुणै:।।

अर्थ-
कोई भी मनुष्य क्षण भर भी कर्म किए बिना नहीं रह सकता। सभी प्राणी प्रकृति के अधीन हैं और प्रकृति अपने अनुसार हर प्राणी से कर्म करवाती है और उसके परिणाम भी देती है।

 सूत्र–
 बुरे परिणामों के डर से अगर ये सोच लें कि हम कुछ नहीं करेंगे, तो ये हमारी मूर्खता है। खाली बैठे रहना भी एक तरह का कर्म ही है, जिसका परिणाम हमारी आर्थिक हानि, अपयश और समय की हानि के रुप में मिलता है। सारे जीव प्रकृति यानी परमात्मा के अधीन हैं, वो हमसे अपने अनुसार कर्म करवा ही लेगी। और उसका परिणाम भी मिलेगा ही। इसलिए कभी भी कर्म के प्रति उदासीन नहीं होना चाहिए, अपनी क्षमता और विवेक के आधार पर हमें निरंतर कर्म करते रहना चाहिए।

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग १०७)

परम शुद्घ को मिलता है अध्यात्म का प्रसाद
    
चित्त के संस्कार अदृश्य होने पर भी बड़े बलशाली होते हैं। यूँ समझो यदि इन संस्कारों का रूप शुभ नहीं है, यदि ये अशुभ है या अन्य शब्दों में कुसंस्कार है, तो इनकी प्रक्रिया व प्रतिक्रिया जीवन में बड़े दारुण दुष्परिणाम पैदा करती है। इस प्रक्रिया के तहत ये कुसंस्कार अपने पहले चरण में चित्त के गहरे से ऊपर आकर कुप्रवृत्तियों के रूप में समस्त मनोभूमि में छा जाते हैं। यह सब निश्चित समय अथवा जीवन का निश्चित मौसम आने पर ही होता है। मनोभूमि में उदय हुई इन कुप्रवृत्तियों की सघनता अपने अनुरूप कुपरिस्थितियों को रचती है। और तब एक सुनिश्चित घड़ी में होता है—कुप्रवृत्तियों एवं कुपरिस्थितियों का मेल।
    
और तब शुरू होता है—कुकर्मो का सिलसिला, जो एक बाढ़ की तरह पूरी जीवन चेतना को डूबा देता है। इसके बाद जीवन की कुगति का दण्ड विधान क्रियाशील होता है। इस प्रक्रिया की उलट स्थिति सुसंस्कारों की है। जो आन्तरिक रूप से सत्प्रवृत्तियों एवं बाहरी तौर पर सत्परिस्थितियों के रूप में प्रकट होती है। इसके बाद प्रारम्भ होते हैं—सत्कर्म और जीवन चल पड़ता है—सद्गति के राह पर। महर्षि पतंजलि कहते हैं कि आध्यात्मिक जीवन के लिए चित्त के संस्कारों से मुक्त होना ही चाहिए। इस शुद्धिकरण के लिए भी एक प्रक्रिया है और वह प्रक्रिया पवित्र भाव, पवित्र विचार, पवित्र दृश्य अथवा पवित्र व्यक्तित्व के ध्यान की।
    
अच्छा हो कि इसके लिए हम अपने सद्गुरु का चयन करें। गुरुदेव की छवि को अपने हृदय में प्रतिष्ठित कर उन्हें अपनी भावनाओं का, विचारों का अर्घ्य चढ़ाएँ। गुरुचरणों पर अर्पित करने के लिए आन्तरिक रूप से भाव-विचार एवं बाहरी तौर पर सभी कर्म- यही गुरुअर्चना एवं ध्यान निष्ठा का सर्वोत्तम रूप है। जब हमारे विचार का प्रत्येक स्पन्दन, भाव की प्रत्येक लहर गुरुदेव को अर्पित होगी, तो चित्त की वृत्तियाँ न केवल क्षीण होगी; बल्कि वे रूपान्तरित भी होंगी और शनैः शनैः चित्त निरुद्ध अवस्था की ओर आगे बढ़ता है। इस निरुद्ध अवस्था की अग्रगमन के क्रम में चित्त को निर्विचार अवस्था प्राप्त होती है, जबकि चित्त में किसी भी तरह की कोई लहर नहीं उठती। ऐसे में होती है, तो केवल शून्यता एवं स्वच्छता।
    
विचारों के सभी स्पन्दनों से रहित यह अवस्था परम निर्मल आध्यात्मिक ज्ञान को देने वाली है। इस अवस्था को पाने के लिए क्या साधना हो? इस सवाल के उत्तर में एक बड़ी मार्मिक अनुभूति हो रही है। आज से सोलह-सत्तरह साल पहले जबकि गुरुदेव अपनी स्थूल देह में थे। उनके तप एवं ज्ञान की आभा उनकी वाणी एवं कार्यों से विकरित होती रहती थी। उनसे मिलने, उनके पास रहने वाले शिष्यों-स्वजनों में बड़ा ही मधुर एवं प्रगाढ़ आकर्षण था उनके प्रति। उन्हें लेकर जब तब चित्त चिन्ताकुल भी होता था। गुरुदेव के स्थूल रूप में न रहने पर क्या होगा, कैसे होगा?
    
शिष्य के मन में उफनते ये प्रश्न उन अन्तर्यामी सद्गुरु से छुपे न रहे। एक दिवस मध्याह्न में उन्होंने शिष्य की इस चिन्ता को भाँप लिया और लगभग हँसते हुए बोले- पहली बात तो यह जान ले बेटा! कि मैं देह नहीं हूँ। यह सच है कि देह अभी है, अभी नहीं रहेगी। अभी तू देह की उपस्थिति के साथ जीता है, फिर तुम्हें देह की अनुपस्थिति के साथ जीना पड़ेगा। उक्त शिष्य ने बड़े सहमते मन से कहा- हे गुरुदेव आपकी यह उपस्थिति ही तो मेरे ध्यान का विषय है। गुरुदेव बोले, हाँ सो तो ठीक है। अभी मेरी उपस्थिति तुम्हारे ध्यान का विषय है। बाद में जब न रहूँ, तो मेरी अनुपस्थिति को अपने ध्यान का विषय बनाना। गुरुदेव का यह कथन सुनने वाले शिष्य की चेतना में व्याप गया। गुरुदेव का भाव नहीं, विचार नहीं, छवि नहीं, वरन् उनकी अनुपस्थित ही ध्यान का विषय। शिष्य के चिन्तन की इस कड़ियों को जोड़ते हुए वे कह रहे थे- मेरी अनुपस्थिति का ध्यान तुम्हें अध्यात्म का प्रसाद देगा। और सचमुच ही- अनुपस्थिति के इस ध्यान से निर्विकार की स्वाभाविक दशा मिलती है और तब अध्यात्म प्रसाद में कोई सन्देह नहीं रहता है। यह प्रसाद साधक में निर्मल बुद्धि का अवदान भरता है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १८२
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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