बुधवार, 4 अगस्त 2021

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ४६)

ईश्वर ज्वाला है और आत्मा चिंगारी

ईश्वर वह चेतना शक्ति है जो ब्रह्माण्डों के भीतर और बाहर जो कुछ है उस सब में संव्याप्त है। उसके अगणित क्रिया-कलापों में एक कार्य इस प्रकृति का संचालन भी है। प्रकृति के अन्तर्गत जड़-पदार्थ और चेतना के कलेवर शरीर इन दोनों को सम्मिलित कर सकते हैं। प्रकृति और पुरुष का युग्म इसी दृष्टि से निरूपित हुआ है। जड़ और चेतन का सम्मिश्रण ही अपना यह विश्व है। इस विश्व की परिधि में ही हमारी इच्छाएं, भाव-सम्वेदनाएं, विचारणाएं एवं गति-विधियां सीमित हैं। मस्तिष्क का निर्माण जिन तत्वों से हुआ है उसके लिए इतना ही सम्भव है कि इस ज्ञात एवं अविज्ञात विश्व-ब्रह्माण्ड की परिधि में ही सोचे, निष्कर्ष निकाले और जो कुछ सम्भव हो वह उसी परिधि में रहकर करे।

विज्ञान अनुसंधान के आधार पर प्रकृति के थोड़े से रहस्यों का उद्घाटन अभी सम्भव हो सकता है। जो जानना शेष है उसकी तुलना में उपलब्ध जानकारियां नगण्य हैं। अणु ऊर्जा अपने समय की बड़ी उपलब्धि मानी जाती है, पर मूर्धन्य विज्ञानवेत्ताओं का कथन है कि सूक्ष्मता की जितनी गहरी परतों में प्रवेश किया जायेगा उतनी ही अधिक प्रखरता का रहस्य विदित होता जायेगा। ढेले की तुलना में अणु शक्ति का चमत्कार अत्यधिक है। ठीक इसी प्रकार समूचे अणु-पिण्ड की तुलना में उसका मध्यवर्ती नाभिक, न्यूक्लियस असंख्य गुनी शक्ति छिपाये बैठा है। अणु को सौर-मण्डल कहा जाय तो उसका मध्यवर्ती नाभिक सूर्य कहा जायेगा। सौर-मण्डल के सभी ग्रह-उपग्रहों को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से सूर्य से ही अनुदान मिलते हैं और उसी आधार पर सौर-मण्डल का वर्तमान ढांचा इस रूप में चल रहा है। यदि सूर्य नष्ट हो जायेगा तो फिर सौर-मण्डल का सीराजा ही बिखर जायेगा। तब यह पता भी न चलेगा कि प्रस्तुत ग्रह-उपग्रह अन्तरिक्ष में न जाने कहां विलीन हो जायेंगे और उनका न जाने क्या अन्त होगा?

अणु का मध्यवर्ती नाभिक कितना शक्तिशाली है और उसकी क्षमता जैसे अणु परिवार का संचालन कर रही है, इस बारीकी पर विचार करने मात्र से विज्ञानी मस्तिष्क चकित रह जाता है। कौन कहे—न्यूक्लियस के भीतर भी और कोई शक्ति परिवार काम कर रहा हो और फिर उसके भीतर भी कोई और जादूगरी बसी हुई हो। प्रतिविश्व—ऐन्टीयुनिवर्स—प्रतिकण एन्टीएटम—की चर्चा इन दिनों जोरों पर है। कहा जाता है कि अपनी दुनिया के ठीक पिछवाड़ —बिलकुल उससे सटी हुई एक और जादुई दुनिया है। उस अविज्ञात की सामर्थ्य इतनी अधिक कूती जाती है जितनी कि शरीर की तुलना में आत्मा की। प्रतिकण और प्रतिविश्व के रहस्यों का पता चल जाय और उस पर किसी प्रकार अधिकार हो जाय तो फिर समझना चाहिए कि अभी प्राणि जगत का अधिपति कहलाने वाला मनुष्य तभी सच्चे अर्थों में सृष्टि का अधिपति कहलाने का दावा कर सकेगा।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ ७३
परम पूज्य गुरुदेव ने यह पुस्तक 1979 में लिखी थी

👉 भक्तिगाथा (भाग ४६)

प्रभु स्मरण, प्रभु समर्पण और प्रभु अर्पण का नाम है भक्ति
    
उनका व्यक्तित्व यूं तो कई विशेषताओं से विभूषित है, फिर भी उनकी एक विशेषता ऐसी है, जिसका सहज परिचय हर किसी को हो जाता है और वह विशेषता यह है कि ऋषि अघोर से सभी किसी न किसी तरह प्रभावित होते हैं, पर वे स्वयं किसी से कभी प्रभावित नहीं होते। ऐसे महनीय जन की उपस्थिति से सभी को तो चकित होना ही था। अद्भुत था उनका रूप और अद्भुत थी उनकी भावमुद्रा। तप्त कंचन की भाँति गौरवर्ण, बढ़े हुए उलझे केश, गहरी भावपूर्ण निर्दोष आँखें, जिन्हें स्फटिक झील कहा जा सकता है। धूलि सनी नग्नदेह, मुख पर सर्वथा उन्मुक्त और अलमस्त भाव। कुछ ऐसा था उनका रूप, जिसे देखकर स्वयं महामाया भी ठगी सी सम्मोहित देखती रह जाय, लेकिन वह स्वयं उसके सभी संस्पर्शों एवं प्रभावों से सर्वथा अछूते रहे।
    
ऐसे परम वीतराग ऋषि अघोर के आगमन पर ऋषियों एवं देवों के समुदाय में उत्सव का सा वातावरण बन गया। उनकी उपस्थिति ने सभी को कृतकार्य किया। पूज्यनीय सप्तर्षियों ने उन्हें आसन आदि देकर सम्मानित करना चाहा, पर उन्होंने हाथ उठाकर उन्हें रोक दिया और चुपचाप देवर्षि के पास जाकर बैठ गए। देवर्षि पर बरबस बरसी इस कृपा को निहार कर सभी चकित और पुलकित हो गए। उनके पास बैठने पर देवर्षि ने निवेदन किया-‘‘भगवन्! हम सभी का सौभाग्य कि आपका आगमन हुआ। भक्ति के तत्त्व को भला आपसे अधिक और कौन जानता है।’’
    
देवर्षि के इस कथन पर ऋषि अघोर हंस पड़े। उनकी इस हंसी में शिशुवत सरलता थी। थोड़ी देर तक हंसते रहने के बाद वह बोले- ‘‘भक्ति के तत्त्व को उच्चारित कर पाना मुश्किल है। जिन्हें परिभाषित किया जाता है अथवा किया गया है-वे सभी तो भक्ति के साधन हैं। जिसने जिस किसी साधक से सिद्धि पायी, उसने वही कहा। इसलिए जो भी कहा गया, वह सभी ठीक है परन्तु वह सब अन्तिम नहीं  है। साधन और भी हो सकते हैं। हर युग अपने अनुरूप भक्ति के साधनों का अनुसंधान कर सकता है। ये साधन समय के अनुसार भी हो सकते हैं और समाज के अनुसार भी। व्यक्तित्व की अपनी मौलिकता एवं विशेषता के अनुसार भी इनका रूप बदल सकता है। परन्तु साधन को सिद्धि समझना ठीक नहीं है।’’
    
ऋषि अघोर की ये बातें सभी को बड़ी सारगर्भित लग रही थीं। जब कि वह स्वयं बिना रुके कहे जा रहे थे कि ‘‘जब कोई साधु, सिद्ध, तपस्वी, ज्ञानी अपनी राह को श्रेष्ठ मान लेता है और दूसरे के मार्ग से उसकी तुलना करने लगता है तो मतवादों एवं विवादों की सृष्टि होती है। और साधनों को लेकर ये मतवाद और विवाद जितने ज्यादा होते हैं- साधना और सिद्धि, दोनों ही उतने दूर होते जाते हैं। क्योंकि साधना तो वही करता है- जिसके पास कर्मनिष्ठा एवं भावनिष्ठा दोनों है। और जो केवल तर्क जाल में उलझा है भला वह कब करेगा साधना, और उसे कब मिलेगी सिद्धि। इसलिए भक्त को तो अपने अस्तित्त्व को- भाव, विचार या फिर कर्म के माध्यम से प्रभु अर्पित करते हुए स्वयं को भगवान में विसर्जित करते जाना चाहिए। प्रभु स्मरण, प्रभु को समर्पण एवं प्रभु को विसर्जन ज्यों-ज्यों पूर्ण होता जाता है, भक्ति का तत्त्व प्रकट होता जाता है और एक अवस्था ऐसी आती है, जबकि भक्त, भगवान एवं भक्ति में से किसी का पृथक अस्तित्त्व ही नहीं रहता।’’
    
ऋषि अघोर के शब्दों का प्रभाव चुम्बकीय था। उनके वचन मलयगिरी से आने वाली बयार की तरह थे जिनके स्पर्श से सभी के अस्तित्त्व में भक्ति की सुगन्धि भरती जा रही थी। ऋषि वशिष्ठ एवं क्रतु को भावसमाधि तक हो आयी। उन्हें तो तब चेत हुआ जब कि अवधूत श्रेष्ठ अघोर कह रहे थे, ‘‘भगवान को पुकारो, उन्हें स्वयं को अर्पित करो। इस अर्पण को कोई भी सीमा अथवा मर्यादा अधूरा न करने पाए। जो ऐसा करता है उसे स्वयं ही तत्त्व का, सत्य का बोध हो जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ ८६

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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