🔵 मैं उन्हीं के बीच जाकर बैठ गया। लगा जैसे मैं भी एक फूल हूँ। यदि ये पौधे मुझे भी अपना साथी बना लें, तो मुझे भी अपने खोए बचपन को पाने का सुअवसर मिल जाए। भावना आगे बढ़ी। जब अंतराल हुलसता है, तो कुतर्की विचार भी ठंढे पड़ जाते हैं। भावों में प्रबल रचनाशक्ति है, वे अपनी दुनिया आप बना लेते हैं-काल्पनिक नहीं, पूरी तरह से शक्तिशाली और सजीव। देवों की रचना भावनाओं के बल पर ही हुई है। अपनी श्रद्धा को पिरोकर ही उन्हें महान बनाया गया है। अपने भाव फूल बनने को मचले, तो वैसा ही बनने में देर न थी। लगा कि इन पंक्ति बनाकर बैठे हुए पुष्प बालकों ने मुझे भी सहचर मानकर अपने में सम्मिलित कर लिया है।
🔴 एक गुलाबी फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ और बातूनी था। अपनी भाषा में उसने कहा-दोस्त! तुम मनुष्यों में बेकार आ जन्मे। उनकी भी कोई जिंदगी है, हर समय चिंता, तनाव, उधेड़बुन, कुढ़न। अबकी बार तुम पौधे बनना और हमारे साथ रहना। देखते नहीं, हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलखिलाते रहते हैं? जिंदगी को हँसी-खेल मानकर जीने में कितनी शांति है, यह हम लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आंतरिक उल्लास हमारी सुगंध के रूप में चारों ओर फैल रहा है। हम सबको प्यार करते हैं, सभी को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनंद से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनंदित कर देते हैं। यही तो जीवन जीने की कला है। इनसान बेकार में अपनी बुद्धिमानी पर घमंड करता एवं चिंता, तनाव, घुटन ही तो पाता है।
🔵 मेरा मस्तक उस खिलखिलाते हुए फूल के प्रति श्रद्धा से नत हो गया। मैं कहने लगा-पुष्प-मित्र तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी जीवन कैसे जीना चाहिए-तुम यह जानते हो। एक हम हैं-जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते रहते हैं। सखा, तुम सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो।
🔴 हँसोड़ गुलाबी फूल वाला पौधा खिलखिलाकर हँस पड़ा। सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी उथली जानकारी के अहंकार के मद में ऐंठे-ऐंठे फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए, तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सही अर्थों में विद्या स्वयं ही हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने लगेगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77
🔴 एक गुलाबी फूल वाला पौधा बड़ा हँसोड़ और बातूनी था। अपनी भाषा में उसने कहा-दोस्त! तुम मनुष्यों में बेकार आ जन्मे। उनकी भी कोई जिंदगी है, हर समय चिंता, तनाव, उधेड़बुन, कुढ़न। अबकी बार तुम पौधे बनना और हमारे साथ रहना। देखते नहीं, हम सब कितने प्रसन्न हैं, कितने खिलखिलाते रहते हैं? जिंदगी को हँसी-खेल मानकर जीने में कितनी शांति है, यह हम लोग जानते हैं। देखते नहीं हमारे भीतर का आंतरिक उल्लास हमारी सुगंध के रूप में चारों ओर फैल रहा है। हम सबको प्यार करते हैं, सभी को प्रसन्नता प्रदान करते हैं। आनंद से जीते हैं और जो पास आता है, उसी को आनंदित कर देते हैं। यही तो जीवन जीने की कला है। इनसान बेकार में अपनी बुद्धिमानी पर घमंड करता एवं चिंता, तनाव, घुटन ही तो पाता है।
🔵 मेरा मस्तक उस खिलखिलाते हुए फूल के प्रति श्रद्धा से नत हो गया। मैं कहने लगा-पुष्प-मित्र तुम धन्य हो। स्वल्प साधन होते हुए भी जीवन कैसे जीना चाहिए-तुम यह जानते हो। एक हम हैं-जो उपलब्ध सौभाग्य को कुढ़न में ही व्यतीत करते रहते हैं। सखा, तुम सच्चे उपदेशक हो, वाणी से नहीं जीवन से सिखाते हो।
🔴 हँसोड़ गुलाबी फूल वाला पौधा खिलखिलाकर हँस पड़ा। सीखने की इच्छा रखने वाले के लिए पग-पग पर शिक्षक मौजूद हैं। पर आज सीखना कौन चाहता है? सभी तो अपनी उथली जानकारी के अहंकार के मद में ऐंठे-ऐंठे फिरते हैं। सीखने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया जाए, तो बहती हुई वायु की तरह शिक्षा, सही अर्थों में विद्या स्वयं ही हमारे अंतःकरण में प्रवेश करने लगेगी।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 77