मंत्र में छिपी है विघ्न विनाशक शक्ति
अन्तर्यात्रा का विज्ञान मंत्र विज्ञान के बारे में एक अनूठा रहस्य उजागर करता है। भौतिक विज्ञानी कहते हैं कि ध्वनि और कुछ नहीं है सिवाय विद्युत् के रूपान्तरण के। अध्यात्म विज्ञान के विशेषज्ञ योगी जन कहते हैं कि विद्युत् और कुछ नहीं है सिवाय ध्वनि के रूपान्तरण के। यानि कि ध्वनि और विद्युत् एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। और इनका पारस्परिक रूपान्तरण सम्भव है। हालाँकि इस सच को अभी विज्ञानवेत्ता ठीक तरह से अनुभव नहीं कर पाए हैं। लेकिन अध्यात्म विज्ञान के विशेषज्ञों ने इस सच को न केवल स्वयं अनुभव किया है, बल्कि ऐसी अद्भुत तकनीकें भी खोजी हैं, जिसके इस्तेमाल से हर कोई यह अद्भुत अनुभूति कर सकता है।
मंत्र विज्ञान का सच यही है। यह ध्वनि के विद्युत् रूपान्तरण की अनोखी विधि है। हमारा शरीर, हमारा जीवन जिस ऊर्जा के सहारे काम करता है, उसके सभी रूप प्रकारान्तर से जैव विद्युत् के ही विविध रूप हैं। इसके सूक्ष्म अन्तर-प्रत्यन्तर मंत्र विद्या के अन्तर-प्रत्यन्तरों के अनुरूप प्रभावित, रूपान्तरित व परिवर्तित किए जा सकते हैं। मंत्र की प्रयोग विधि का विस्तार बहुत व्यापक है। इन पंक्तियों में उतनी व्यापक चर्चा सम्भव नहीं है। समस्या शारीरिक हो या मानसिक या फिर सामाजिक अथवा आर्थिक मंत्र बल से सभी कुछ सहज सम्भव हो पाता है। यहाँ परिदृश्य योग साधना का है। इस सन्दर्भ में महर्षि योग साधकों को आश्वासन भरे स्वर में कहते हैं कि मंत्र जप से सभी विघ्न स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं। ये विघ्न क्या हैं? इसकी चर्चा योगिवर पतंजलि अपने अगले सूत्र में करते हैं-
व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरति भ्रान्तिदर्शनालब्ध
भूमिकत्वानवस्थितत्वानि चित्तविक्षेपास्तेऽन्तरायाः॥ (१/३०)
शब्दार्थ- (१) व्याधि = शरीर अथवा मन में किसी रोग का पनपना व्याधि है। (२) स्त्यान = अकर्मण्यता अर्थात् काम न करने की प्रवृत्ति स्त्यान है। (३) संशय = साधना की प्रक्रिया व परिणाम तथा स्वयं की क्षमता पर सन्देह करना संशय है। (४) प्रमाद= आध्यात्मिक अनुष्ठानों की अवहेलना करना प्रमाद है। (५) आलस्य = तमोगुण की अधिकता से चित्त और शरीर का भारी हो जाना और इसके कारण साधना छोड़ देना आलस्य है। (६) अविरति = विषय-वासना में आसक्ति होना और इस वजह से वैराग्य का अभाव होना अविरति है। (७) भ्रान्तिदर्शन = अध्यात्म साधना को किसी कारण अपने अनुकूल न मानना भ्रान्तिदर्शन है। (८) अलब्धभूमिकत्व = साधना करने पर भी यौगिक उपलब्धियाँ न मिलने से निराश होना अलब्धभूमिकत्व है। (९) अनवस्थितत्व = साधना में किसी उच्चभूमि में चित्त की स्थिति होने पर भी वहाँ न ठहर पाना अनवस्थितत्त्व है। ये नौ (जो कि) चित्तविक्षेपाः = चित्त के विक्षेप हैं; ते = वे ही; अन्तरायाः = अन्तराय (विघ्न) हैं।
अर्थात् रोग, अकर्मण्यता, संदेह, प्रमाद, आलस्य, विषयासक्ति, भ्रान्ति, उपलब्धि न होने से उपजी दुर्बलता और अस्थिरता वे बाधाएँ हैं, जो मन में विक्षेप लाती हैं।
महर्षि अपने पहले के सूत्र में कहते हैं कि ये सभी विक्षेप मंत्र जप से समाप्त हो जाते हैं। इस सच को और अधिक स्पष्टता से समझने के लिए प्रत्येक विक्षेप पर विचार करना जरूरी है।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ ११७
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या