🔵 ऊपरी तौर पर देखें तो ये तर्क ठीक नजर आते हैं। लेकन थोड़ा गहराई में उतरें तो इनमें कोई दम नजर नहीं आती। प्रकृति के आधीन होकर जीना तो पशुओं का काम है। पशु सदा प्रकृति के अनुरूप जीते हैं। यद्यपि ये भी वासनाओं के लिए समर्पित नहीं होते। प्रकृति द्वारा निर्धारित किए गए समय के अनुसार ही ये इस जाल में पड़ते हैं। मनुष्य की स्थिति तो पशुओं से भिन्न है। इन्हें प्राण के साथ मन भी मिला है। और मन का उपयोग एवं अस्तित्त्व इसीलिए है कि यह प्राण को परिष्कृत करे, वासना से उसे मुक्त करे। इस प्रक्रिया के पूरी होने पर प्राण प्रखर व उर्ध्वगामी बनता है। ऐसा होने पर स्नायु संस्थान दृढ़ होता है और धारणा शक्ति का विकास होता है। जो ऐसा करते हैं- उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास होता है। साथ ही उनमें ऐसी योग्यता विकसित होती है कि ये वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद कर सके।
🔴 इन्हीं के लिए कहा गया है कि तुम पूछो पृथ्वी, वायु और जल से। जिनकी भावचेतना इन्द्रिय के इन्द्रजाल से मुक्त नहीं है, वे वातावरण की सूक्ष्मता से संवाद नहीं कर सकते। धरती इन्हें धूल कणों का ढेर मालूम होगी। और हवा के झोंके इन्हें केवल गर्द- गुबार एवं गन्ध उड़ाते नजर आएँगे। जल के बहते स्रोत इन्हें प्यास बुझाने के साधन लगेंगे। लेकिन यदि नजरें बदले तो नजारे बदल सकते हैं। धरती की धूल महत्त्वपूर्ण हो सकती है। महत्त्वपूर्ण न होती तो तीर्थों की रज का इतना महिमागान न होता। धरती के जिस कोने में ऋषियों ने तप किया, महायोगियों ने साधनाएँ की और फिर साधना से पवित्र उनकी देह उसी धूल में विलीन हो गयी। उस धूल के पास बहुत कुछ कहने को है। बस सही ढंग से सुनने वाला होना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया