शुक्रवार, 4 अगस्त 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 4 Aug 2023

हमारी चिट्ठी, वाणी, प्रेरणा, भावना और आकाँक्षा का मूर्त रूप अखण्ड ज्योति ही है। इसे भावना और ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए और इन पन्नों के साथ लिपटी हुई प्रेरणाओं को मनन  और चिन्तन पूर्वक हृदयंगम करना चाहिए। हमारी आत्मा से अपनी आत्मा को जोड़ने और भावना के साथ भावना का स्पर्श करने का यही तरीका है।

अखण्ड ज्योति का प्रत्येक सदस्य अब एक धार्मिक पत्रिका का पाठक मात्र न रहेगा, वरन् वह एक लोकशिक्षक के रूप में अपना उत्तरदायित्व अनुभव करें। युग निर्माण के लिए आवश्यक प्रकाश अखण्ड ज्योति प्रस्तुत करेगी, वह एक बिजलीघर के रूप में रहेगी और हममें से प्रत्येक एक बल्ब के रूप में प्रकाशित होकर अपने क्षेत्र में प्रकाश फैलाएँ। अज्ञान ही मानव जाति का सबसे बड़ा शत्रु है, इसी अंधकार में नाना प्रकार के पाप पनपते हैं।

स्वच्छ मन का आंदोलन व्यक्ति की आंतरिक दुर्बलता के विरुद्ध एक महान् अभियान है। कुविचारों की हानियाँ, स्वार्थपरता के दुष्परिणाम अभी लोगों की आँखों में नहीं है। आज हर आदमी यही सोचता है कि अनैतिक रहने में ही उसका भौतिक लाभ है। इसलिए वह बाहर से नैतिकता का समर्थन करते हुए भी भीतर ही भीतर अनैतिक रहता है। हमें मानसिक स्वच्छता का वह पहलू जनता के सामने प्रस्तुत करना होगा, जिसके अनुसार यह भली प्रकार समझा जा सके कि अनैतिकता व्यक्तिगत स्वार्थपरता की दृष्टि से भी घातक है, इसमें हानि ही हानि है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अहंकार अपने ही विनाश का एक कारण (भाग २)

रावण की विद्वता संसार प्रसिद्ध है। उसके बल की कोई सीमा नहीं थी। ऐसा नहीं सोचा जा सकता कि उसमें इतनी भी बुद्धि नहीं थी कि वह अपना हित अहित न समझ पाता। वह एक महान बुद्धिमान तथा विचारक व्यक्ति था। उसने जो कुछ सोचा और किया, वह सब अपने हित के लिए ही किया। किन्तु उसका परिणाम उसके सर्वनाम के रूप में सामने आया। इसका कारण क्या था? इसका एकमात्र कारण उसका अहंकार ही था। अहंकार के दोष ने उसकी बुद्धि उल्टी कर दी। इसी कारण उसे अहित से हित दिखलाई देने लगा। इसी दोष के कारण उसके सोचने समझने की दिशा गलत हो गई थी और वह उसी विपरीत विचार धारा से प्रेरित होकर विनाश की ओर बढ़ता चला गया।

ऐसा कौन सा अकल्याण है, जो अहंकार से उत्पन्न न होता हो। काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का जनक अहंकार ही को तो माना गया है। बात भी गलत नहीं है, अहंकारी को अपने सिवाय और किसी का ध्यान नहीं रहता, उसकी कामनायें अपनी सीमा से परे-परे ही चला करती है। संसार का सारा भोग विलास और धन वैभव वह केवल अपने लिए ही चाहता है। अहंकार की असुर वृत्ति के कारण वह बड़ा विलासी और विषयी बना रहता है। उसकी विषय-वासनाओं की तृष्णा कभी पूरी नहीं होती।

कितना ही क्यों न भोगा जाय, विषयों की तृप्ति नहीं हो सकती। इसी अतृप्ति एवं असंतोष के कारण मनुष्य के स्वभाव में क्रोध का समावेश हो जाता है। वह संसार और समाज को अपने अराँतोपका हेतु समझने लगता है और बुद्धि विषय के कारण उनसे शत्रुता मान बैठता है। वैसा ही व्यवहार करने लगता है। जिसके फलस्वरूप उसकी स्वयं की अशाँति तो स्थायी बन ही जाती है, संसार में भी अशाँति के कारण उत्पन्न करता रहता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति 1969 जून पृष्ठ 58

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...