मंगलवार, 25 अप्रैल 2017

👉 बहादुर हो तो सच्चाई की राह पर बढ़ो

🔴 सन् १९२२ में अमावस्या की एक काली रात और वामक नदी का किनारा। गुजरात के प्रष्ठि समाजसेवी रविशंकर महाराज नदी के किनारे पगडंडी पर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। तभी उनके कधे पर पीछे से हाथ रखते हुए किसी ने कहा- महाराज! आप आगे कहाँ जा रहे है ? चलिए वाप॑स लौट चलिए।

🔵 महाराज ने स्वर पहचान लिया, "पूछा कौन है? पुंजा"
हाँ महाराज आगे मत जाइए। आगे खतरा है।''
"कैसा खतरा है ?"
"आगे रास्ते में बहारबटिया छिपे है।"
"कौन ?---  नाम दरिया है।"

🔴 हाँ वही है। मेरी राय है कि आप आगे न जाएँ। व्यर्थ में ही इज्जत देने से क्या लाभ होगा ?

🔵 महाराज हँसे। उन्होंने कहा- "भाई मेरी इज्जत इतनी छोटी नहीं है जो थोडी-सी बात में समाप्त हो जाए। मैं उन्हीं की तलाश में इधर आया था। चलो अब तुम्ही मुझे वहीं तक पहुंचा दो, क्योंकि तुम्हारा सारा रास्ता देखा है और वह ठिकाने भी तुम्हे मालूम है जहाँ यह लोग छिपे रहते है।

🔴 नहीं-नहीं महाराज मेरी हिम्मत वहाँ जाने की नहीं है। अगर उन्होंने कोई हमला किया तो मैं आपको बचा भी न पाऊँगा और मेरे प्राण बेकार में चले जायेंगे।'

🔵 इतना कह पुंजा ठिठक गया। "अच्छा तो तुम रुको। मैं आगे जाता हूँ।" इतना कहकर महाराज आगे बढ़ गए।

🔴 वह चलते-चलते एक खेत की मेड पर खडे हो गए। इतने में ही उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति साफा बाँधे बंदूक लिए उनकी ओर बढ़ता चला आ रहा है। जब दोनों के बीच की दूरी कम रह गई तो उसने सामने बंदूक तान दी।

🔵 महाराज खिलखिला कर हँस पडे। उन्हें वारदोली सत्याग्रह का स्मरण हो आया और उनका साहस दुगुना हो गया। वे बोले क्यो ? क्या आज अकेले ही हो ? तुम्हारे अन्य साथी कहाँ हैं ?

🔴 अब महाराज और बंदूकधारी दोनों ही पास की झोंपडी के निकट आ गए जहाँ अन्य डाकू छिपे थे। एक ने गरजकर कहा खबरदार! जो एक कदम भी आगे बढाया, और महाराज लापरवाही से उसी ओर बढ़ने लगे जिस ओर यह ललकार आई थी। सामने एक घुडसवार डकैत ने आकर पूछा- तुम कौन हो ?

🔵 मैं गाँधी की टोली का बहारबटिया हूँ। आओ हम लोग बैठकर बातचीत करें। मैं तुम सबको बुलाने ही तो आया हूँ।' इतना कहकर महाराज ने घोडे की लगाम पकडने के लिए हाथ बढा़ दिया।

🔴 सब लोग उसी झोंपडी के पास ही बैठ गये। महाराज ने समझाना शुरू किया 'भाइयो! यदि तुमको जौहर ही दिखाना है तो उन अंग्रेजों को क्यों नही दिखाते, जिन्होंने सारा देश ही तबाह कर दिया है। इन गरीबों को लूटकर मर्दानगी दिखाना तो लज्जा की बात है। अब गाँधी जी के नेतृत्व में शीघ्र ही आंदोलन शुरू होगा, यदि तुम में सचमुच पौरुष है, तो गोली खाने चलो। गाँधी जी ने तुम सबको आमंत्रित किया है। यह कहते-कहते महाराज के नेत्र सजल हो गये। गला रुँध-सा गया। डाकू इस अंतरग स्नेह से आविर्भूत हो उठे।

🔵 अपने हथियार डालते हुए उनके सरदार ने कहा-आप निश्चित होकर जाइए। आज हम आपके गॉव में डाका डालने को थे, पर अब नही डालेंगे। साथ में एक आदमी भेज देता हूँ।

🔴 महाराज ने कहा आप मेरी चिंता न करिए, मै अकेला ही आया था और अकेला ही चला जाऊँगा। साथ देना है तो उस काम में साथ दो जिसे गाँधी जी ने, भगवान् ने हम सबको सौंपा है।

🔵 डाकूओं में से कई ने कुकृत्य छोड़ दिये और कईयों ने सत्याग्रह आंदोलन में भारी सहयोग किया।

🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 143, 144

👉 सजल संवेदना से हुई निहाल

🔵 मेरी शादी १९८८ में हुई थी। मेरे अभिभावकों ने मेरे पति की पढ़ाई देखकर मेरी शादी तय कर दी थी। मेरे पति एग्रीकल्चर से एम० एससी० कर रहे थे। पिताजी ने सोचा कि लड़का अच्छी पढ़ाई कर रहा है, सर्विस कहीं न कहीं लग ही जाएगी। मेरे मायके में बिजनेस का काम होता था। शादी के बाद धीरे- धीरे परेशानी बढ़ती ही चली गई। मेरे पति इलाहाबाद में कम्पटीशन की तैयारी कर रहे थे। काफी मेहनत कर रहे थे। दिन रात तैयारी में लगे रहने के बावजूद कोई सफलता नहीं मिली। इससे मन बहुत दुखी रहने लगा। इधर दो बार मैं गर्भवती हुई, किन्तु दोनों बार बच्चे खराब हो गए। मैं इन सब बातों से बहुत टूट चुकी थी। मैं दिन रात रोया करती थी।

🔴 इन्हीं दिनों मैं अपने मायके गई हुई थी। मेरा वहाँ भी वही हाल था। मुझे दिन रात चिन्तित देखकर मेरे पिताजी बहुत परेशान रहते थे। शारदीय नवरात्रि नजदीक आ गई थी। तुलसीपुर के विधायक श्री कमलेश सिंह जी सपरिवार शान्तिकुञ्ज जाने के लिए तैयार थे। मेरे चाचा (गुलजारी लाल जी) चाची तथा उनकी लड़की भी साथ जा रहे थे। मेरे पिताजी से चाचाजी ने कहा कि एक सीट खाली है। अगर कोई चलना चाहे तो शान्तिकुञ्ज जा सकता है। चाचाजी की बातों को सुनकर मेरे पिताजी ने कहा कि किसी को क्यों, नीरू को ले जाओ। वह दामाद के सर्विस न मिलने और बच्चे की घटना से दिन- रात रोती रहती है। शायद वहाँ जाने से उसका भाग्य सँवर जाए। इस पर चाचाजी ने कहा कि क्या बात करते हो! सीट न भी खाली होती तो भी हम उसको ले जाते। आप उसको भेज दीजिए। माँ के आशीर्वाद से सब ठीक हो जाएगा। पिताजी ने मुझको यह बात बताई तो मेरे मन में आशा का संचार हुआ। मुझे विश्वास हो गया कि अब मेरे कष्ट ज्यादा दिन नहीं रहेंगे। मैं नवरात्रि में शान्तिकुञ्ज पहुँची। मैंने वहाँ नौ दिन के अनुष्ठान का संकल्प लिया। मेरा अनुष्ठान निर्विघ्न सम्पन्न हुआ।

🔵 इसके पश्चात् मेरे चाचाजी मुझे लेकर माताजी के दर्शन हेतु पहुँचे। उन्हें देखकर माताजी बोलीं- कहो बेटा कैसे हो? तो चाचाजी ने कहा- माताजी मैं क्या बताऊँ, अगर बच्चे दुखी हैं तो बाप कैसे सुखी रह सकता है। यह मेरे बड़े भइया की लड़की है, लेकिन उसे अपनी बेटी जैसा ही मानता हूँ। इसकी शादी के तीन साल हो गए। भाई साहब ने पढ़ाई देखकर बेटी की शादी कर दी थी। लेकिन दामाद को नौकरी आज तक नहीं मिली है। और इसके दो बच्चे भी खराब हो गए हैं। जिसके कारण यह बहुत परेशान रहती है। दामाद के लिए दुकान खुलवा दूँ। क्या यह ठीक रहेगा?

🔴 चाचाजी की बातें सुनकर मेरा सर सहलाते हुए माताजी कुछ क्षण शान्त हो गईं। उसके पश्चात् बोलीं- गुलजारी परेशान मत होओ, दामाद की बड़ी अच्छी सरकारी नौकरी लगेगी। और इसके दो तीन बच्चे भी होंगे। माताजी के मुख से उनकी वाणी सुनकर मेरी आँखों से आँसू आ गए। मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि माँ का आशीर्वाद अवश्य फलीभूत होगा।

🔵 कुछ दिन बाद मेरे पति की कृषि विभाग में नौकरी लगी। उसके पश्चात् उत्तरप्रदेश लोक सेवा आयोग से नायाब तहसीलदार के पद पर चयन हुआ। माँ के आशीर्वाद से मेरे तीन बच्चे भी हुए जो पूर्ण स्वस्थ हैं। इस घटना के बाद से मेरे ससुराल के लोगों को भी गुरुदेव- माताजी के प्रति अनन्य श्रद्धा हो गई। आज हम सभी लोग गुरुकार्य में संलग्न हैं। गुरुदेव- माताजी के आशीर्वाद से मुझे सब कुछ मिला है, जिसकी मुझे आवश्यकता थी। हम उनकी कृपा से अभिभूत हैं।              
  
🌹 श्रीमती नीरू बलरामपुर (उत्तरप्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Samsarn/won/sajal

👉 जीवन की मूल प्रेरणा है परमार्थ

🔵 संसार को आलोकित करने के लिए सूर्यदेव निरन्तर तपा करते हैं। अपने अविराम तप की च्वाला में हर-हमेशा जलते रहकर ही वे धरती के दोनों गोलार्द्धों में प्राण और ऊर्जा का संचार करते हैं। मेघों का अभाव कहीं जीवन ही न सुखा डाले, इसके लिए सागर सतत बड़वानल में जला करते हैं। अपने इस अनवरत अन्तर्दाह को सहकर वे उस सरंजाम को जुटाने में संलग्न रहते हैं, जो तपते-झुलसते जीवन को वर्षा की शीतल फुहार से शान्ति दे सके। सितारे हर रोज चमकते हैं, ताकि मनुष्य अपनी अहंता में ही न पड़ा रहकर विराट् ब्रह्म की प्रेरणाओं से पूरित बना रहे। अपनी हर श्वास के साथ संसार भर का जहर पीने और बदले में अमृत उँड़ेलने का पुण्य-पुरुषार्थ वृक्षों ने कभी बन्द नहीं किया। कर्म का परोपकार में अर्पण, सृष्टि की मूल प्रेरणा है। जिस दिन यह प्रक्रिया बन्द हो जाय, उस दिन विनाश ही विनाश, शून्य ही शून्य, अन्धकार ही अन्धकार के अलावा और कुछ भी नहीं रह जाएगा।

🔴 परोपकार की इस पुण्य-प्रक्रिया को जारी रखने के लिए ही नदियाँ राह में पड़ने वाले पत्थरों की ठोकरें सहकर भी सबको जलदान करती रहती हैं। पवन जमाने भर की दुर्गन्ध का बोझ सहकर भी नित्य चलता है और प्राण-दीपों को प्रज्वलित रखने का कर्त्तव्य पालन करता रहता है। फूल हँसते और मुसकराकर कहते हैं, काँटों की चुभन की परवाह न करके संसार में सुगन्ध भरने और सौन्दर्य बढ़ाते रहने में ही जीवन की शोभा है। कोयल कूकती है तो उसके पीछे जो आभा प्रतिध्वनित होती है, उसमें कोलाहलपूर्ण संसार में माधुर्य बनाए रखने का शान्त सरगम गूँजता प्रतीत होता है। अपने नन्हें से बच्चे की चोंच में दाना डालकर चिड़िया अपने वंश का पोषण ही नहीं करती, अपितु असमर्थ और अनाश्रितों को आश्रय देने की परम्परा पर भी प्रकाश डालती है।
  
🔵 जीवन की मूल प्रेरणा है, परमार्थ और लोक-कल्याण के लिए भावभरा आत्मार्पण। ठीक-ठीक आत्मार्पण किए बिना परमार्थ साधना पूरी नहीं होती। आत्माहुति जितनी सम्पूर्ण होगी, परमार्थ की च्वाला उतनी ऊँची उठेगी। दीप जितना अधिक अपने को जलाता है, ज्योति उतनी ही अधिक प्रखर होती है। जड़ें अपने को जितनी अधिक गहराई में दबाए रखती हैं, वृक्ष उतने ही अधिक मजबूत होते और ऊँचे उठते हैं। जीवन को आधार और ऊर्जा प्रदान करने वाला प्रत्येक घटक इसी पुण्य-परम्परा में संलग्न है। सृष्टि में सन्तुलन बनाए रखने के लिए इसके निर्जीव कण तक पुण्य-प्रक्रिया को जारी रखने में जुटे हैं। ऐसे में स्वयं को जीवित ही नहीं समझदार भी समझने वाला मनुष्य अपने समाज की उपेक्षा कर दे, परमार्थ से मुँह मोड़ ले, उसकी श्रीवृद्धि और सौन्दर्य निखारने का प्रयत्न न करे इससे बढ़कर लज्जा और आपत्ति की बात उसके लिए और क्या हो सकती है?

🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 40

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