🔴 सन् १९२२ में अमावस्या की एक काली रात और वामक नदी का किनारा। गुजरात के प्रष्ठि समाजसेवी रविशंकर महाराज नदी के किनारे पगडंडी पर आगे बढ़ते चले जा रहे थे। तभी उनके कधे पर पीछे से हाथ रखते हुए किसी ने कहा- महाराज! आप आगे कहाँ जा रहे है ? चलिए वाप॑स लौट चलिए।
🔵 महाराज ने स्वर पहचान लिया, "पूछा कौन है? पुंजा"
हाँ महाराज आगे मत जाइए। आगे खतरा है।''
"कैसा खतरा है ?"
"आगे रास्ते में बहारबटिया छिपे है।"
"कौन ?--- नाम दरिया है।"
🔴 हाँ वही है। मेरी राय है कि आप आगे न जाएँ। व्यर्थ में ही इज्जत देने से क्या लाभ होगा ?
🔵 महाराज हँसे। उन्होंने कहा- "भाई मेरी इज्जत इतनी छोटी नहीं है जो थोडी-सी बात में समाप्त हो जाए। मैं उन्हीं की तलाश में इधर आया था। चलो अब तुम्ही मुझे वहीं तक पहुंचा दो, क्योंकि तुम्हारा सारा रास्ता देखा है और वह ठिकाने भी तुम्हे मालूम है जहाँ यह लोग छिपे रहते है।
🔴 नहीं-नहीं महाराज मेरी हिम्मत वहाँ जाने की नहीं है। अगर उन्होंने कोई हमला किया तो मैं आपको बचा भी न पाऊँगा और मेरे प्राण बेकार में चले जायेंगे।'
🔵 इतना कह पुंजा ठिठक गया। "अच्छा तो तुम रुको। मैं आगे जाता हूँ।" इतना कहकर महाराज आगे बढ़ गए।
🔴 वह चलते-चलते एक खेत की मेड पर खडे हो गए। इतने में ही उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति साफा बाँधे बंदूक लिए उनकी ओर बढ़ता चला आ रहा है। जब दोनों के बीच की दूरी कम रह गई तो उसने सामने बंदूक तान दी।
🔵 महाराज खिलखिला कर हँस पडे। उन्हें वारदोली सत्याग्रह का स्मरण हो आया और उनका साहस दुगुना हो गया। वे बोले क्यो ? क्या आज अकेले ही हो ? तुम्हारे अन्य साथी कहाँ हैं ?
🔴 अब महाराज और बंदूकधारी दोनों ही पास की झोंपडी के निकट आ गए जहाँ अन्य डाकू छिपे थे। एक ने गरजकर कहा खबरदार! जो एक कदम भी आगे बढाया, और महाराज लापरवाही से उसी ओर बढ़ने लगे जिस ओर यह ललकार आई थी। सामने एक घुडसवार डकैत ने आकर पूछा- तुम कौन हो ?
🔵 मैं गाँधी की टोली का बहारबटिया हूँ। आओ हम लोग बैठकर बातचीत करें। मैं तुम सबको बुलाने ही तो आया हूँ।' इतना कहकर महाराज ने घोडे की लगाम पकडने के लिए हाथ बढा़ दिया।
🔴 सब लोग उसी झोंपडी के पास ही बैठ गये। महाराज ने समझाना शुरू किया 'भाइयो! यदि तुमको जौहर ही दिखाना है तो उन अंग्रेजों को क्यों नही दिखाते, जिन्होंने सारा देश ही तबाह कर दिया है। इन गरीबों को लूटकर मर्दानगी दिखाना तो लज्जा की बात है। अब गाँधी जी के नेतृत्व में शीघ्र ही आंदोलन शुरू होगा, यदि तुम में सचमुच पौरुष है, तो गोली खाने चलो। गाँधी जी ने तुम सबको आमंत्रित किया है। यह कहते-कहते महाराज के नेत्र सजल हो गये। गला रुँध-सा गया। डाकू इस अंतरग स्नेह से आविर्भूत हो उठे।
🔵 अपने हथियार डालते हुए उनके सरदार ने कहा-आप निश्चित होकर जाइए। आज हम आपके गॉव में डाका डालने को थे, पर अब नही डालेंगे। साथ में एक आदमी भेज देता हूँ।
🔴 महाराज ने कहा आप मेरी चिंता न करिए, मै अकेला ही आया था और अकेला ही चला जाऊँगा। साथ देना है तो उस काम में साथ दो जिसे गाँधी जी ने, भगवान् ने हम सबको सौंपा है।
🔵 डाकूओं में से कई ने कुकृत्य छोड़ दिये और कईयों ने सत्याग्रह आंदोलन में भारी सहयोग किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 143, 144
🔵 महाराज ने स्वर पहचान लिया, "पूछा कौन है? पुंजा"
हाँ महाराज आगे मत जाइए। आगे खतरा है।''
"कैसा खतरा है ?"
"आगे रास्ते में बहारबटिया छिपे है।"
"कौन ?--- नाम दरिया है।"
🔴 हाँ वही है। मेरी राय है कि आप आगे न जाएँ। व्यर्थ में ही इज्जत देने से क्या लाभ होगा ?
🔵 महाराज हँसे। उन्होंने कहा- "भाई मेरी इज्जत इतनी छोटी नहीं है जो थोडी-सी बात में समाप्त हो जाए। मैं उन्हीं की तलाश में इधर आया था। चलो अब तुम्ही मुझे वहीं तक पहुंचा दो, क्योंकि तुम्हारा सारा रास्ता देखा है और वह ठिकाने भी तुम्हे मालूम है जहाँ यह लोग छिपे रहते है।
🔴 नहीं-नहीं महाराज मेरी हिम्मत वहाँ जाने की नहीं है। अगर उन्होंने कोई हमला किया तो मैं आपको बचा भी न पाऊँगा और मेरे प्राण बेकार में चले जायेंगे।'
🔵 इतना कह पुंजा ठिठक गया। "अच्छा तो तुम रुको। मैं आगे जाता हूँ।" इतना कहकर महाराज आगे बढ़ गए।
🔴 वह चलते-चलते एक खेत की मेड पर खडे हो गए। इतने में ही उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति साफा बाँधे बंदूक लिए उनकी ओर बढ़ता चला आ रहा है। जब दोनों के बीच की दूरी कम रह गई तो उसने सामने बंदूक तान दी।
🔵 महाराज खिलखिला कर हँस पडे। उन्हें वारदोली सत्याग्रह का स्मरण हो आया और उनका साहस दुगुना हो गया। वे बोले क्यो ? क्या आज अकेले ही हो ? तुम्हारे अन्य साथी कहाँ हैं ?
🔴 अब महाराज और बंदूकधारी दोनों ही पास की झोंपडी के निकट आ गए जहाँ अन्य डाकू छिपे थे। एक ने गरजकर कहा खबरदार! जो एक कदम भी आगे बढाया, और महाराज लापरवाही से उसी ओर बढ़ने लगे जिस ओर यह ललकार आई थी। सामने एक घुडसवार डकैत ने आकर पूछा- तुम कौन हो ?
🔵 मैं गाँधी की टोली का बहारबटिया हूँ। आओ हम लोग बैठकर बातचीत करें। मैं तुम सबको बुलाने ही तो आया हूँ।' इतना कहकर महाराज ने घोडे की लगाम पकडने के लिए हाथ बढा़ दिया।
🔴 सब लोग उसी झोंपडी के पास ही बैठ गये। महाराज ने समझाना शुरू किया 'भाइयो! यदि तुमको जौहर ही दिखाना है तो उन अंग्रेजों को क्यों नही दिखाते, जिन्होंने सारा देश ही तबाह कर दिया है। इन गरीबों को लूटकर मर्दानगी दिखाना तो लज्जा की बात है। अब गाँधी जी के नेतृत्व में शीघ्र ही आंदोलन शुरू होगा, यदि तुम में सचमुच पौरुष है, तो गोली खाने चलो। गाँधी जी ने तुम सबको आमंत्रित किया है। यह कहते-कहते महाराज के नेत्र सजल हो गये। गला रुँध-सा गया। डाकू इस अंतरग स्नेह से आविर्भूत हो उठे।
🔵 अपने हथियार डालते हुए उनके सरदार ने कहा-आप निश्चित होकर जाइए। आज हम आपके गॉव में डाका डालने को थे, पर अब नही डालेंगे। साथ में एक आदमी भेज देता हूँ।
🔴 महाराज ने कहा आप मेरी चिंता न करिए, मै अकेला ही आया था और अकेला ही चला जाऊँगा। साथ देना है तो उस काम में साथ दो जिसे गाँधी जी ने, भगवान् ने हम सबको सौंपा है।
🔵 डाकूओं में से कई ने कुकृत्य छोड़ दिये और कईयों ने सत्याग्रह आंदोलन में भारी सहयोग किया।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 143, 144