सोमवार, 9 जनवरी 2023

👉 आपका मूल्य क्या है?

एक प्रसिद्ध चित्रकार के जीवन की एक घटना हैं। उसके पास एक धनी कलाप्रेमी चित्र खरीदने आया। उसने एक चित्र को देखकर उसका दाम पूछा। चित्रकार ने उसकी कीमत 50 गिन्नी बताई। कला प्रेमी ने छोटे से चित्र की अधिक कीमत पर आश्चर्य जताया। इस पर कलाकार ने कहा- पूरे तीन साल निरंतर परिश्रम करने के बाद मैं इस योग्य बना हूं कि ऐसे चित्र को चार दिनों में बना सकता हूँ। इसके पीछे मेरा वर्षों का अनुभव, साधना और योग्यता छिपी हुई है। कला प्रेमी उत्तर से संतुष्ट हुआ और उसने चित्र खरीद लिया। यदि चित्रकार अपनी कला का मूल्य कम लगाता तो निश्चय ही उसे कम मूल्य मिलता, पर उसके आत्म विश्वास और कला साधना की जीत हुई।
  
चित्रकार ने अपने को जितना मूल्यवान समझा, संसार ने उतना ही महत्व स्वीकार किया। हमें उतना ही सम्मान, यश, प्रतिष्ठा प्राप्त होती है, जितना हम स्वयं अपने व्यक्तित्व का लगाते हैं। शांत चित्त से कभी-कभी अपने चरित्र की अच्छाइयों, श्रेष्ठताओं और उत्तम गुणों पर विचार करें। आप जितनी देर तक अपनी अच्छाइयों पर मन एकाग्र करेंगे, उतना वे आपके चरित्र में विकसित होंगी। बुराइयों को त्यागने का अमोघ उपाय यह है कि हम एकान्त में अपने चरित्र, स्वभाव और श्रेष्ठ गुणों का चिन्तन करें और इससे दिव्यताओं की अभिवृद्धि करते रहें। मनुष्य के मन में ऐसी अद्ïभूत गुप्त चमत्कारी शक्तियां दबी पड़ी रहती हैं कि वह जिन गुणों का चिन्तन करता है, गुप्त रूप से वे दिव्य गुण उसके चरित्र में बढ़ते-पनपते रहते हैं। आत्म निरीक्षण के माध्यम से आप अपने दैवीय विशिष्ट गुण को बखूबी मालूम कर सकते हैं अथवा किसी योग्य चिकित्सक की सहायता ले सकते हैं। अब्राहम लिंकन की उन्नति का गुर यही था। उसने निरंतर ध्यान और मनोवैज्ञानिक अध्ययन द्वारा अपने छिपे हुए गुणों को खोज निकाला। वह उसी दिशा में निरंतर उन्नति करता गया। एक चिरप्रचलित उक्ति है- ‘मनुष्य अपने मन में स्वयं को जैसा मान बैठा है, वस्तुत: वह वैसा ही है।’

प्राय: हम देखते हैं कि अनेक अभिभावक दूसरों के बच्चों की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं और अपने बच्चे की बुराई। वे बच्चों को  डांटते-फटकारते हैं। नतीजतन उनके बच्चे बड़े होकर घर से भाग जाते हैं या घर पर नहीं टिकते। अभिभावक अपने बच्चों का कम मूल्य लगाते हैं, फलस्वरूप समाज भी उन्हें घटिया दर्जे का ही मानता है। आप कभी-कभी अपने गुणों, अपनी विलक्षण प्रतिभा, अपनी विशेष ईश्वरीय देन के बारे में खूब सोचिए। त्रुटियों की उपेक्षा कर श्रेष्ठताओं की सूची बनाइए। उन्हीं पर विचार और क्रियाएं एकाग्र कीजिए। यह अपनी श्रेष्ठताएं विकसित करने का मनोवैज्ञानिक मार्ग है। प्रिय पाठक, आपको अपनी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, आध्यात्मिक और अनेक शक्तियों का ज्ञान नहीं है। आप नेत्रों पर पट्टी बांधे अन्धा-धुन्ध आगे मार्ग टटोल रहे हैं। यदि आप अपनी गुप्त शक्तियों के सहारे आगे बढऩे लगें, मन को सृजनात्मक रूप में शिक्षित कर लें तो जीवन फूलों की सेज प्रतीत होगा और अनेक कार्य आप पूर्ण करने लगेंगे।

आप ताकत की दवाइयां खाते हैं। पौष्टिक अन्न लेते हैं। डंड, मुद्ïगर और तरह-तरह की कसरतें करते हैं। पर सच तो यह है कि शक्ति कहीं बाहर से नहीं आती, वह स्वयं हमारे अन्दर ही मौजूद है। जो हमारे मन की अवस्था के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है। डेढ़ पसली के महात्मा गांधी के शरीर में एक दृढ़ निश्चयी मन की ही ताकत थी। उस मन की शक्ति से ही उन्होंने विदेशी राष्ट्र की जड़ें खोखली कर दी थीं। आप में भी असीम शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। उनकी खोज की जाय, तो निश्चय ही आप संसार को चमत्कृत कर सकते हैं। अब आज से आप नए सिरे से अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन कीजिए।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 अध्यात्म और ईश्वर का मर्म

आध्यात्मिकता का अर्थ है उस चेतना पर विश्वास करना, जो प्राणधारियों को एक दूसरे के साथ जोड़ती है, सुख-संवर्धन और दु:ख-निवारण की स्वाभाविक आकांक्षा को अपने शरीर या परिवार तक सीमित न रख कर अधिकाधिक व्यापक बनाती है। अध्यात्म का सीधा अर्थ आत्मीयता के विस्तार के रूप में किया जा सकता है। ‘प्रेम ही परमेश्वर है’ का सिद्धान्त यहाँ अक्षरश: लागू होता है। अन्तरात्मा की सघन पिपासा, प्रेम का अमृत पान करने की होती है। इसी लोभ में उसे निरन्तर भटकना पड़ता है। छल का व्यापार प्रेम, विश्वास के सहारे ही चलता है। वासना के आकर्षण में प्रेम की संभावना ही उन्माद पैदा करती है। यह तो कृत्रिम और छद्मप्रेम की बात हुई, उसकी यथार्थता इतनी मार्मिक होती है कि प्रेम देने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं।
  
दार्शनिक विवेचना में इस भक्तिमार्गी आस्तिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। वेदान्त ने आत्मा के परिष्कृत स्तर को ही परमात्मा माना है और उत्कृष्टता से भरापूरा अन्त:करण ही ब्रह्मलोक है। अपनी महानता पर विश्वास और तदनुरूप श्रेष्ठï आचरण का अवलम्बन, यही है सच्ची आस्तिकता। इसी के परिपोषण में साधना और उपासना का विशालकाय ढाँचा खड़ा किया जाता है।
  
अनेकता में समाविष्ट एकता की झाँकी कर सकना ही ईश्वर दर्शन है। सृष्टि का प्रत्येेक सजीव और निर्जीव घटक एक-दूसरे से प्रभावित ही नहीं होता, वरन् परस्पर पूरक और अभिन्न भी है। एक की संवेदना दूसरे को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती, इसलिए अमुक व्यक्तित्वों की सुख-सुविधा को ध्यान में न रखते हुए समस्त विश्व का हित साधन करने की दृष्टि रखकर ही जीवन की कोई  रीति-नीति निर्धारित की जाय, यह दृष्टि तत्त्व दर्शन का प्रत्यक्ष प्रतिफल  है। जब यह स्वत: सिद्ध सत्य चेतना के गहन मर्मस्थल तक प्रवेश कर जाए और निरन्तर इसी स्तर की अनुभूति होने लगे तो समझना चाहिए कि अध्यात्म और जीवन का समन्वय हो चला।
  
पूजा की इतिश्री अमुक कर्मकाण्डों की पूर्ति के साथ ही हो जाती है; किन्तु आध्यात्मिकता व्यक्ति के अन्तरङ्गï और बहिरङ्ग जीवन में व्यावहारिक हेर-फेर करने के लिए विवश करती है। आत्मसुधार, आत्म निर्माण के क्रम में अन्तरङ्ग की आस्थाओं, मान्यताओं, आकांक्षाओं और अभिरुचियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन  होता है। आत्मसंयम, इंद्रिय निग्रह, मर्यादा-पालन, सादगी, सज्जनता, नम्रता, चरित्र गठन, कर्त्तव्य-पालन, धैर्य, साहस, संतुलन जैसी अनेक सत्प्रवृत्तियाँ अन्तरङ्ग आध्यात्मिकता के वृक्ष पर फल-फूलों की तरह अनायास ही लदने लगती हैं। ऐसे व्यक्ति को महामानव स्तर के उत्कृष्ट व्यक्तित्व से सुसम्पन्न देखा जा सकता है।
  
बहिरङ्ग जीवन में आध्यात्मिकता की प्रतिक्रिया श्रमशीलता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सद्ïव्यवहार, ईमानदारी, शालीनता, न्यायनिष्ठा, जनसेवा, उदारता जैसे आचरणों में प्रकट होती है। ऐसे लोगों को समाजनिष्ठï, कत्र्तव्यनिष्ठ एवं धर्मनिष्ठ कहा जा सकता है। मर्यादाओं का उल्लंघन वे करते नहीं, साथ ही अनीति को सहन भी नहीं करते। अवांछनीयता के विरुद्ध उनका संघर्ष अनवरत रूप से चलता रहता है। न वे किसी से अनावश्यक मोह बढ़ाते  हैं और न किसी को स्नेह-सद्भाव से वंचित करते हैं।
  
आध्यात्मिकता को प्राचीन भाषा में ब्रह्मïविद्या कहते हैं। यह उत्कृ ष्टï चिन्तन और आदर्श कर्तव्य की एक परिष्कृत जीवन पद्धति है, जिसे अपनाने पर भीतर सन्तोष और बाहर सम्मान की वे उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, जिन पर कुबेेर और इन्द्र जितने वैभव को निछावर किया जा सके। व्यक्तित्व की पूर्णता और प्रखरता का सारा आधार आध्यात्मिकता पर  ही अवलम्बित माना जा सकता है।

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👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...