भक्त को लोकहानि की कैसी चिन्ता
इसे सुनकर देवर्षि ने वीणा की मधुर झंकृति के साथ उच्चारित किया-
‘लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्’॥ ६१॥
लोकहानि की चिन्ता (भक्त) को नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह (भक्त) अपने आपको और लौकिक-वैदिक (सब प्रकार के) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है।
सूत्र के उच्चारण के साथ देवर्षि नारद के मन में ब्राह्मणकुमार श्रुतसेन की स्मृति और भी सघन हो गयी। उनके मन मानस में चलती इस विचार श्रृंखला को ऋषि पुलह भली-भांति समझ पा रहे थे। तभी तो उन्होंने फिर से देवर्षि नारद को याद कराया- ‘‘किसकी स्मृतियाँ आपकी भावनाओं को भिगो रही हैं।’’ पुलह के इस कथन पर देवर्षि ने अश्रु पोंछते हुए कहा- ‘‘सचमुच ही ऋषिश्रेष्ठ। मुझे प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की स्मृतियों ने घेरा हुआ है। अभी मैंने अपने इस सूत्र में जिस सत्य की चर्चा की, वह उसका मूर्त रूप था।’’ वहाँ उपस्थित जन इस सत्य से सुपरिचित थे कि भक्त, भक्ति व भगवान की स्मृति देवर्षि को विभोर करती है। साथ ही असत्य तो कभी देवर्षि का स्पर्श ही नहीं करता।
सभी के मन में प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की भक्तिकथा जानने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। देवर्षि ने भी बिना कोई देर लगाए कहना शुरू किया- ‘‘श्रुतसेन की भक्ति अतुलनीय थी। उसके लिए उसके आराध्य ही जीवन थे। प्रह्लाद के साथ ही श्रुतसेन को भी सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य का कोपभाजन बनना पड़ा। उसे गहरी शारीरिक एवं अनेक मानसिक यातनाएँ दी गयीं। उसके परिवार को भी अकारण पीड़ित होना पड़ा। एक तरफ शुक्राचार्य के प्रचण्ड तांत्रिक प्रहार उस पर होते तो दूसरी ओर सम्राट के सैनिक उसे व उसके परिवार को पीड़ित करते। एक बार प्रह्लाद ने उससे पूछा भी- हे मित्र! तुम्हे भय तो नहीं लगता तो उत्तर में वह हँस पड़ा और बोला- मैंने इतना जान लिया है कि नारायण की इच्छा के बिना इस सृष्टि में कभी कुछ भी घटित नहीं होता।
भक्त का जीवन तो भगवान के लिए सदा विशेष होता है। उसके जीवन में कोई भी घटनाक्रम घटित हो, किसी के भी द्वारा घटित हो, पर यथार्थ में सब कुछ भगवान के अनुसार ही घटित होता है। अन्य सब तो बस केवल कठपुतलियाँ हैं जो भगवान के मंगलमय विधान को रचित करने व घटित होने में सहयोग देते हैं। कहीं कोई दोषी होता ही नहीं। भगवान जिसे अपने प्रिय भक्त के लिए उचित एवं आवश्यक समझते हैं, उसे ही किसी न किसी माध्यम से अपने भक्त तक पहुँचा देते हैं। इसलिए मैं तो सदा-सर्वदा भगवत्कृपा की ही अनुभूति करता हूँ। श्रुतसेन की बात सुनकर प्रह्लाद को बड़ा सन्तोष हुआ। इसी के साथ श्रुतसेन के कष्ट तीव्र होते गए। रिश्ते-नाते छूटे-टूटे, लोकापवाद की बाढ़ सी आ गयी। सम्पदा जाती गयी, विपदा आती गयी पर श्रुतसेन सर्वथा निश्चिन्त था। कुछ दिनों तक उसे कारागार में रखने के बाद उसे गहन डरावने वन में छोड़ दिया। लेकिन इतने पर भी न तो उसकी प्रसन्नता कम हुई और न ही उसका ईश्वरविश्वास घटा।’’
श्रुतसेन की कथा सुनाते-सुनाते ऋषिवर थोड़ा ठहरे और फिर आगे बोले- ‘‘इन विपदाओं में भी वह भगवान नारायण के प्रति कृतज्ञ भाव से प्रार्थना करता- हे भगवान! मैं अति सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे आपने विपदाओं का वरदान देने के लिए चुना है। हे प्रभु! मेरा तो सभी कुछ आपका है, फिर इसका आप मेरे साथ चाहे जो और जैसे करें। श्रुतसेन के जीवन की विपत्तियों के साथ श्रुतसेन का चित्त, चिन्तन एवं चेतना नारायण में निमग्न होती गयी। इस अवस्था में भला नारायण उनसे कैसे दूर रह पाते सो वे भी अपने प्रिय भक्त श्रुतसेन के चित्त व चेतना में विहार करने लगे। सर्वसमर्पण का यही सुफल होना था। जो लोक और वेद को अपने प्रभु के लिए छोड़ देता है, प्रभु सदा के लिए उसके अपने हो जाते हैं। श्रुतसेन के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व में भक्ति का यही सत्य मुखर हुआ।’’
.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४४