गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 28 April 2020


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👉 आज का सद्चिंतन 28 April 2020

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👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २२

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

अपने अच्छे गुणों को प्रकट होने देने में आपका भी लाभ है और दूसरों' का भी। हानि किसी की कुछ नहीं। यदि आपके योग्यताओं का पता दूसरों को चलता है तो उनके सामने एक आदर्श उपस्थित होता है, एक की नकल करने की प्रथा समाज में खूब प्रचलित है, संभव है उन गुणों और योग्यता,ओं का अप्रत्यक्ष प्रभाव किन्हीं पर पडे और वे उसकी नकल करने के प्रयास में अपना लाभ करें। सद्गुणी व्यक्ति के लिए स्वभावत: श्रद्धा, प्रेम और आदर की भावना उठती हैं, जिनके मन में यह उठती है उसे शीतल करती हैं, बल देती हैं, पुष्ट बनाती हैं। दुनियाँ में भलाई अधिक है या बुराई ? इसका निर्णय करने में अक्सर लोग आसपास के व्यक्तियों देखकर ही कुछ निष्कर्ष निकालते हैं। आपके संबंध में यदि अच्छे विचार फैले हैं तो सोचने वाले को अच्छाई का पक्ष भी मजबूत मालूम देता है और  वह संसार के संबंध में अच्छे विचार बनाता है एवं खुद भी भलाई पर विश्वास करके भली दुनियों के साथ त्याग और सेवा सत्कर्म करने को तत्पर होता है।

इसके विपरीत यदि उसके सामने लोगों के दुष्ट आचरणों का ही सा जमाव हो तो स्वभावत: वह झुँझला उठेगा, दुनियाँ को स्वार्थी,निकम्मी, धूर्त मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार करने की सोचेगा, जबकि चारों ओर बुरे ही बुरे आचरण वाले लोग दीख रहे हैं तो संभव है कि सत्कर्म वाला निराश हो जाए, चिढकर बदला लेने, जैसे के साथ तैसा व्यवहार करने को उतारू होकर बुरे काम करने लगे। यदि आपके दुर्गुण ही उसके सामने पहुँचते हैं तो स्वभावत: घृणा, क्रोध, द्वेष, भय के भाव उसके मन मे उठेंगे और वे जहाँ से उत्पन्न हुए हैं उस स्थान को भी उसी प्रकार जलावेंगे जैसे अग्नि की चिनगारी जहाँ रखी है पहले उसी स्थान को जलाना शुरू करती है।
 
यदि आप दुर्गुणी प्रसिद्ध हैं तो किसी न किसी कमजोर स्वभाव के आदमी पर अप्रत्यक्ष रूप से उसका असर पड़ेगा और संभव है कि नकल करने की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर वह उन दुर्गुणों' को अपनाने लगे। यह तो बिलकुल साधारण बात है कि मित्र लोग उन दुर्गुणों को तरह देकर आपसे स्नेह संबंध कायम रखेंगे, बुराई को तरह देने की आदत धीरे- धीरे संस्कार का रूप धारण करेगी और फिर उस बुराई या उससे मिलती-जुलती अन्य बुराई को बिना घृणा या क्रोध किए सहन करने की आदत मजबूत हो जाएगी। पाप को तरह देना, अर्द्ध, रूप से उसमें सम्मिलित होना ही है।

ध्यानपूर्वक विचार करके देखिए यदि आप अपने को दुर्गुणी प्रकाशित करते हैं, लोगों में अपनी अयोग्यताएँ फैलाते हैं तो इसका अर्थ यह है कि उनके साथ अपकार करते हैं। दोष जान लेने से किसी का कोई फायदा नहीं वरन हानि बहुत। यह समझना भ्रम है कि दोष प्रकट हो जाने से लोग सावधान रहेंगे '। सच बात यह है कि बुद्धिमान आदमी दुर्गुणी और किसी से धोखा नहीं खाएगा। मुर्ख को ईश्वर से भी धोखा होने का डर है। कई मूर्ख महात्मा गाँधी सरीखे प्रात: स्मरणीय महात्मा को गालियाँ देते हुए कहते हैं कि उनके कारण हमारी अमुक हानि हुई। ईश्वर पर अनुचित भरोसा करने वाले भी हानि उठाते हैं। निश्चय ही अपने को, अयोग्य या बुरे रूप में प्रकट होने देना, सचमुच बुरा होने की अपेक्षा भी बहुत बुरा है। इसमें अपनी हानि से भी अधिक दूसरों की हानि है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३४

👉 भक्तिगाथा (भाग १२४)

भक्त को लोकहानि की कैसी चिन्ता

इसे सुनकर देवर्षि ने वीणा की मधुर झंकृति के साथ उच्चारित किया-
‘लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्’॥ ६१॥

लोकहानि की चिन्ता (भक्त) को नहीं करनी चाहिए क्योंकि वह (भक्त) अपने आपको और लौकिक-वैदिक (सब प्रकार के) कर्मों को भगवान को अर्पण कर चुका है।
सूत्र के उच्चारण के साथ देवर्षि नारद के मन में ब्राह्मणकुमार श्रुतसेन की स्मृति और भी सघन हो गयी। उनके मन मानस में चलती इस विचार श्रृंखला को ऋषि पुलह भली-भांति समझ पा रहे थे। तभी तो उन्होंने फिर से देवर्षि नारद को याद कराया- ‘‘किसकी स्मृतियाँ आपकी भावनाओं को भिगो रही हैं।’’ पुलह के इस कथन पर देवर्षि ने अश्रु पोंछते हुए कहा- ‘‘सचमुच ही ऋषिश्रेष्ठ। मुझे प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की स्मृतियों ने घेरा हुआ है। अभी मैंने अपने इस सूत्र में जिस सत्य की चर्चा की, वह उसका मूर्त रूप था।’’ वहाँ उपस्थित जन इस सत्य से सुपरिचित थे कि भक्त, भक्ति व भगवान की स्मृति देवर्षि को विभोर करती है। साथ ही असत्य तो कभी देवर्षि का स्पर्श ही नहीं करता।

सभी के मन में प्रह्लाद के प्रिय सखा श्रुतसेन की भक्तिकथा जानने की जिज्ञासा तीव्र हो उठी। देवर्षि ने भी बिना कोई देर लगाए कहना शुरू किया- ‘‘श्रुतसेन की भक्ति अतुलनीय थी। उसके लिए उसके आराध्य ही जीवन थे। प्रह्लाद के साथ ही श्रुतसेन को भी सम्राट हिरण्यकश्यप एवं भार्गव शुक्राचार्य का कोपभाजन बनना पड़ा। उसे गहरी शारीरिक एवं अनेक मानसिक यातनाएँ दी गयीं। उसके परिवार को भी अकारण पीड़ित होना पड़ा। एक तरफ शुक्राचार्य के प्रचण्ड तांत्रिक प्रहार उस पर होते तो दूसरी ओर सम्राट के सैनिक उसे व उसके परिवार को पीड़ित करते। एक बार प्रह्लाद ने उससे पूछा भी- हे मित्र! तुम्हे भय तो नहीं लगता तो उत्तर में वह हँस पड़ा और बोला- मैंने इतना जान लिया है कि नारायण की इच्छा के बिना इस सृष्टि में कभी कुछ भी घटित नहीं होता।

भक्त का जीवन तो भगवान के लिए सदा विशेष होता है। उसके जीवन में कोई भी घटनाक्रम घटित हो, किसी के भी द्वारा घटित हो, पर यथार्थ में सब कुछ भगवान के अनुसार ही घटित होता है। अन्य सब तो बस केवल कठपुतलियाँ हैं जो भगवान के मंगलमय विधान को रचित करने व घटित होने में सहयोग देते हैं। कहीं कोई दोषी होता ही नहीं। भगवान जिसे अपने प्रिय भक्त के लिए उचित एवं आवश्यक समझते हैं, उसे ही किसी न किसी माध्यम से अपने भक्त तक पहुँचा देते हैं। इसलिए मैं तो सदा-सर्वदा भगवत्कृपा की ही अनुभूति करता हूँ। श्रुतसेन की बात सुनकर प्रह्लाद को बड़ा सन्तोष हुआ। इसी के साथ श्रुतसेन के कष्ट तीव्र होते गए। रिश्ते-नाते छूटे-टूटे, लोकापवाद की बाढ़ सी आ गयी। सम्पदा जाती गयी, विपदा आती गयी पर श्रुतसेन सर्वथा निश्चिन्त था। कुछ दिनों तक उसे कारागार में रखने के बाद उसे गहन डरावने वन में छोड़ दिया। लेकिन इतने पर भी न तो उसकी प्रसन्नता कम हुई और न ही उसका ईश्वरविश्वास घटा।’’

श्रुतसेन की कथा सुनाते-सुनाते ऋषिवर थोड़ा ठहरे और फिर आगे बोले- ‘‘इन विपदाओं में भी वह भगवान नारायण के प्रति कृतज्ञ भाव से प्रार्थना करता- हे भगवान! मैं अति सौभाग्यशाली हूँ, जो मुझे आपने विपदाओं का वरदान देने के लिए चुना है। हे प्रभु! मेरा तो सभी कुछ आपका है, फिर इसका आप मेरे साथ चाहे जो और जैसे करें। श्रुतसेन के जीवन की विपत्तियों के साथ श्रुतसेन का चित्त, चिन्तन एवं चेतना नारायण में निमग्न होती गयी। इस अवस्था में भला नारायण उनसे कैसे दूर रह पाते सो वे भी अपने प्रिय भक्त श्रुतसेन के चित्त व चेतना में विहार करने लगे। सर्वसमर्पण का यही सुफल होना था। जो लोक और वेद को अपने प्रभु के लिए छोड़ देता है, प्रभु सदा के लिए उसके अपने हो जाते हैं। श्रुतसेन के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व में भक्ति का यही सत्य मुखर हुआ।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २४४

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...