बुधवार, 11 नवंबर 2020

👉 लोग निंदा करें तो करने दो।

सब लोगों को अपनी तरफ से छुट्टी दे दो, वे चाहे निंदा करें, चाहे प्रसंशा करें, जिसमे वे राजी हों करें।

आप सबको छुट्टी दे दो तो आपको छुट्टी (मुक्ति) मिल जाएगी! प्रशंसा में तो मनुष्य फँस सकता है पर निंदा में पाप नष्ट होते हैं। कोई झूंठी निंदा करे तो चुप रहो सफाई मत दो। कोई पूछे तो सत्य बात कह दे। बिना पूछे लोगों में कहने की जरुरत नहीं। बिना पूछे सफाई देना (सत्य की सफाई देना) सत्य का अनादर है भरत जी कहते हैं –

जानहुँ रामु कुटिल करी मोही।
लोग कहउ गुरु साहिब द्रोही।।
सीता राम चरण रति मोरें। 
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें।

दूसरा आदमी हमें खराब समझे तो इसका कोई मूल्य नहीं है। भगवान दूसरे की गवाही नहीं लेते। दूसरा आदमी अच्छा कहे तो आप अच्छे हो जाओगे, ऐसा कभी नहीं होगा। अगर आप बुरे हो तो बुरे ही रहोगे। अगर आप अच्छे हो तो अच्छे ही रहोगे, भले ही पूरी दुनियां बुरी कहे। लोग निंदा करे तो मन में आनंद आना चाहिए। एक संत ने कहा है –

मेरी निंदा से यदि किसी को संतोष होता है, तो बिना प्रयत्न के ही मेरी उन पर कृपा हो गयी। क्योंकि कल्याण चाहने वाले पुरुष तो दूसरों के संतोष के लिए अपने कष्टपूर्वक कमाए हुए धन का भी परित्याग कर देते हैं। (मुझे तो कुछ करना ही नहीं पड़ा)

हम पाप नहीं करते, किसी को दुःख नहीं देते, फिर भी हमारी निंदा होती है तो उसमें दुःख नहीं होना चाहिए, प्रत्युत प्रसन्नता होने चाहिए। भगवान की तरफ से जो होता है, सब मंगलमय ही होता है। इसलिए मन के विरुद्ध बात हो जाए तो उसमें आनंद मनाना चाहिए।

स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६५)

यदि जान सकें जप की कला

अन्तर्यात्रा विज्ञान साधकों के लिए पुकार है। पुकार के ये स्वर बड़े आश्चर्यों से भरे हैं। इन्हें सब नहीं सुन सकते। इन्हें सुन पाने के लिए साधक का अन्तःकरण चाहिए। जिनमें साधक की अन्तर्चेतना, साधक की अन्तर्भावना है- वही इन्हें सुन पाएँगे। उन्हीं को अपने अस्तित्व के मर्म में महर्षि पतंजलि एवं ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव की छुअन महसूस होगी। वही अपने आपको इन महायोगियों की वरद छाया में अनुभव कर पाएँगे। उन्हीं को इन महान् विभूतियों का नेह-निमंत्रण सुनायी देगा। योग न तो लौकिक ज्ञान है और न ही कोई सामान्य सांसारिक विद्या है। यह महान् आध्यात्मिक ज्ञान है और अतिविशिष्ट परा विद्या है। वाणी से इसका उच्चारण भले ही किया जा सकता हो, पर इसके अर्थ बौद्धिक चेतना में नहीं खुलते। इसके रहस्यार्थों का प्रस्फुटन, तो गहन भाव चेतना में होता है।

अन्तर्यात्रा के पथ पर उन्हीं को प्रवेश मिलता है, जो साधक होने की परीक्षा पास करते हैं। अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। हालाँकि इस सम्बन्ध में महर्षि पतंजलि परम उदार हैं। उन्होंने अन्तर्यात्रा के पथ के पथिकों के लिए अनेकों वैज्ञानिक अनुसन्धान किए हैं। अनगिनत तकनीकें खोजी हैं। इन तकनीकों में से किसी एक का इस्तेमाल करके कोई भी व्यक्ति इस पात्रता की परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकता है। इन्हीं तकनीकों में से एक है- ॐकार का जप। ॐकार में अनगिनत गुह्य निधियाँ, गुह्य शक्तियाँ समायी हैं। यदि इसका विधिपूर्वक जप हो, तो योग की सभी बाधाओं का बड़ी आसानी से निराकरण किया जा सकता है। प्रभु की महिमा, गरिमा सभी कुछ बीज रूप में इसमें निहित है। यह बीज विकसित कैसे हो, प्रस्फुटित किस भाँति हो? इसका विधान महर्षि अपने अगले सूत्र में बताते हैं-

तज्जपस्तदर्थभावनम्॥ १/२८॥
शब्दार्थ- तज्जपः= उस (ॐकार का) जप (और), तदर्थभावनम्= उसके अर्थ स्वरूप परमेश्वर की भावना के साथ करना चाहिए।
अर्थात् ॐकार का जप इसके अर्थ का चिन्तन करते हुए परमेश्वर के प्रति प्रगाढ़ भावना के साथ करना चाहिए।
    
महर्षि ने इस सूत्र में जप की विधि, जप के विज्ञान का खुलासा किया है। मंत्र को दोहराने भर का नाम जप नहीं है। केवल दोहराते रहना एक अचेतन क्रिया भर है। यह साधक को चैतन्यता देने की बजाय सम्मोहन जैसी दशा में ले जाती है। जो केवल मंत्र को दुहराते रहते हैं, उन्हें परिणाम में सम्मोहन, निद्रा मिलती है। हाँ यह सच है कि इससे थकान मिटती है। जगने पर थोड़ी स्फूर्ति भी लगती है। किन्तु यह जप का सार्थक परिणाम नहीं है। इसका सार्थक परिणाम तो जागरण है। चेतना की परम जागृति है।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १११
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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