सोमवार, 27 मार्च 2017
👉 यह विनम्रता
🔵 बात उन दिनों की है जब महामना मदनमोहन मालवीय जी जीवित थे। विश्वविद्यालय के कुछ छात्र एक दिन नौका बिहार कर रहे थे, उनकी कुछ असावधानी के कारण नाव को काफी क्षति पहुँच गई अब वह इस स्थिति में न रह गई, जो उससे काम लिया जा सके।
🔴 बेचारा मल्लाह उसी के सहारे जीविकोपार्जन करता। चार बच्चे, पत्नी और स्वयं इस प्रकार कुल छह आदमियों का पेट पालन कर रहा था। छात्रो की इस उच्छृंखलता पर मल्लाह को बहुत गुस्सा आया। आना भी स्वाभाविक ही था। अब वह किसके सहारे बच्चों का पालन -पोषण करता।
🔵 अपने आवेश को वह रोक न सका। तरह-तरह की भली-बुरी गालियाँ बकता हुआ मालवीय जी के यहाँ चल दिया।
🔴 संयोगवश उस दिन मालवीय जी अपने निवास स्थान पर ही थे। कोई आवश्यक मीटिंग चल रही थी। विश्वविद्यालय के सभी वरिष्ठ अधिकारी और काशी नगरी के प्राय सभी गणमान्य व्यक्ति वहाँ उपस्थित थे।
🔵 मल्लाह गालियाँ बडबडाता हुआ वहाँ भी पहुँच गया जहाँ बैठक चल रही थी। रास्ते के कई लोग जो उसकी गालियाँ सुन रहे थे उसे वहां जाने से रोकना चाहा; परंतु असफल रहे। वह न केवल छात्रों को ही गालियाँ देता वरन् मालवीय जी को भी भलाचुरा कह रहा था। उसका इस तरह का बडबडाना सुनकर सब लोगों का ध्यान उधर आकर्षित हो गया। मीटिंग में चलती हुई बातों का क्रम भंग हो गया। उसका चेहरा यह स्पष्ट बतला रहा था कि किसी कारणवश बेतरह क्रुद्ध और दुखित है। मालवीय जी ने भी उसे ध्यानपूर्वक देखा और उसके आंतरिक कष्ट को समझा।
🔴 अपने स्थान से वे सरल स्वभाव से उठे और जाकर विनम्रता से बोले- ''भाई! लगता है जाने-अनजाने में हमसे कोई गलती हो गई है। कृपया अपनी तकलीफ बतलावें। जब तक अपने कष्ट की बतलावेंगे नहीं, हम उसे कैसे समझ सकेगे '
🔵 मल्लाह को यह आशा न थी कि उसकी व्यथा इतनी सहानुभूति पूर्वक सुनने को कोई तैयार होगा। उसका क्रोध शांत हो गया तथा अपने ही अभद्र व्यवहार पर मन ही मन पश्चात्ताप करने लगा और लज्जित भी होने लगा। उसने सारी घटना बताई और अपनी आशिष्टता के लिये क्षमा माँगने लगा।
🔴 मालवीय जी ने कहा- 'कोई बात नही लडकों से जो आपकी क्षति हुई है उसे पूरा कराया जायेगा पर इतना आपको भी भविष्य के लिए ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी भी प्रिय-अप्रिय धटना पर इतना जल्दी इतनी अधिक मात्रा में क्रुद्ध नही हो जाना चाहिए। पहली गलती तो विद्यार्थियों ने की और दूसरी आप कर रहे हैं। गलती का प्रतिकार गलती से नहीं किया जाता, आप संतोषपूर्वक अपने घर जायें। आपकी नाव की मरम्मत हो जायेगी। मल्लाह अपने घर चला गया। उपस्थित सभी लोग मालतीय जी की शिष्टता, विनम्रता और सहनशीलता को देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्होंने लोगों से कहा- ''भाई! नासमझ लोगों से निपट लेने का इससे सुंदर तरीका और कोई नहीं। यदि हम भी वैसी ही गलती करें और मामूली-सी बात पर उलझ जाएँ तो फिर हममें और उनमें अंतर ही क्या रह जायेगा ? सभी लोगों ने बात की वास्तविकता को हृदय से स्वीकार किया और इस घटना से बहुत बड़ी शिक्षा ग्रहण की।
🔵 बाद में मालवीय जी के आदेशानुसार उन लडकों के दड स्वंरूप उस नाव की पुन: मरम्मत करवा दी।
👉 हमारी चेतावनी को अनदेखा नहीं करे
🔶 अगले दिन बहुत ही उलट-पुलट से भरे हैं। उनमें ऐसी घटनायें घटेंगी ऐसे परिवर्तन होंगे जो हमें विचित्र भयावह एवं कष्टकर भले ही लगें पर नये संसार की अभिनव रचना के लिए आवश्यक हैं। हमें इस भविष्यता का स्वागत करने के लिए-उसके अनुरूप ढलने के लिए-तैयार होना चाहिये। यह तैयारी जितनी अधिक रहे उतना ही भावी कठिन समय अपने लिये सरल सिद्ध होगा।
🔷 भावी नर संहार में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अधिक पिसना पड़ेगा। क्योंकि महाकाल का कुठाराघात सीधा उन्हीं पर होना है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायश्च दुष्कृताम्” की प्रतिज्ञानुसार भगवान को युग-परिवर्तन के अवसर पर दुष्कृतों का ही संहार करना पड़ता है। हमें दुष्ट दुष्कृतियों की मरणासन्न कौरवी सेना में नहीं, धर्म-राज की धर्म संस्थापना सेना में सम्मिलित रहना चाहिये। अपनी स्वार्थपरता, तृष्णा और वासना को तीव्र गति से घटाना चाहिए और उस रीति-नीति को अपनाना चाहिये जो विवेकशील परमार्थी एवं उदारचेता सज्जनों को अपनानी चाहिये।
🔶 संकीर्णताओं और रूढ़ियों की अन्य कोठरी से हमें बाहर निकलना चाहिए। अगले दिनों विश्व-संस्कृति, विश्व-धर्म, विश्व-भाषा, विश्व-राष्ट्र का जो भावी मानव समाज बनेगा उसमें अपनी-अपनी महिमा गाने वालों और अपनी ढपली अपना राग गाने वालों के लिये कोई स्थान न रहेगा। पृथकतावादी सभी दीवारें टूट जायेंगी और समस्त मानव समाज को न्याय एवं समता के आधार पर एक परिवार का सदस्य बन कर रहना होगा। जाति लिंग या सम्पन्नता के आधार पर किसी को वर्चस्व नहीं मिलेगा। इस समता के अनुरूप हमें अभी से ढलना आरम्भ कर देना चाहिये।
🔷 धन-संचय और अभिवर्धन की मूर्खता हमें छोड़ देना ही उचित है, बेटे पोतों के लिए लम्बे चौड़े उत्तराधिकार छोड़ने की उपहासास्पद प्रवृत्ति को तिलाँजलि देनी चाहिये क्योंकि अगले दिनों धन का स्वामित्व व्यक्ति के हाथ से निकल कर समाज, सरकार के हाथ चला जायगा। केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार एवं सद्गुणों की सम्पत्ति ही उत्तराधिकार में दे सकने योग्य रह जायगी। इसलिए जिनके पास आर्थिक सुविधायें हैं वे उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में समय रहते खर्च करदें ताकि उन्हें यश एवं आत्म-संतोष का लाभ मिल सके। अन्यथा वह संकीर्णता मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी डकैती की तरह उनके लिये बहुत ही कष्ट-कारक सिद्ध होगी।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -मार्च 1967 पृष्ठ 34
🔷 भावी नर संहार में आसुरी प्रवृत्ति के लोगों को अधिक पिसना पड़ेगा। क्योंकि महाकाल का कुठाराघात सीधा उन्हीं पर होना है। “परित्राणाय साधूनाँ विनाशायश्च दुष्कृताम्” की प्रतिज्ञानुसार भगवान को युग-परिवर्तन के अवसर पर दुष्कृतों का ही संहार करना पड़ता है। हमें दुष्ट दुष्कृतियों की मरणासन्न कौरवी सेना में नहीं, धर्म-राज की धर्म संस्थापना सेना में सम्मिलित रहना चाहिये। अपनी स्वार्थपरता, तृष्णा और वासना को तीव्र गति से घटाना चाहिए और उस रीति-नीति को अपनाना चाहिये जो विवेकशील परमार्थी एवं उदारचेता सज्जनों को अपनानी चाहिये।
🔶 संकीर्णताओं और रूढ़ियों की अन्य कोठरी से हमें बाहर निकलना चाहिए। अगले दिनों विश्व-संस्कृति, विश्व-धर्म, विश्व-भाषा, विश्व-राष्ट्र का जो भावी मानव समाज बनेगा उसमें अपनी-अपनी महिमा गाने वालों और अपनी ढपली अपना राग गाने वालों के लिये कोई स्थान न रहेगा। पृथकतावादी सभी दीवारें टूट जायेंगी और समस्त मानव समाज को न्याय एवं समता के आधार पर एक परिवार का सदस्य बन कर रहना होगा। जाति लिंग या सम्पन्नता के आधार पर किसी को वर्चस्व नहीं मिलेगा। इस समता के अनुरूप हमें अभी से ढलना आरम्भ कर देना चाहिये।
🔷 धन-संचय और अभिवर्धन की मूर्खता हमें छोड़ देना ही उचित है, बेटे पोतों के लिए लम्बे चौड़े उत्तराधिकार छोड़ने की उपहासास्पद प्रवृत्ति को तिलाँजलि देनी चाहिये क्योंकि अगले दिनों धन का स्वामित्व व्यक्ति के हाथ से निकल कर समाज, सरकार के हाथ चला जायगा। केवल शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कार एवं सद्गुणों की सम्पत्ति ही उत्तराधिकार में दे सकने योग्य रह जायगी। इसलिए जिनके पास आर्थिक सुविधायें हैं वे उन्हें लोकोपयोगी कार्यों में समय रहते खर्च करदें ताकि उन्हें यश एवं आत्म-संतोष का लाभ मिल सके। अन्यथा वह संकीर्णता मधुमक्खी के छत्ते पर पड़ी डकैती की तरह उनके लिये बहुत ही कष्ट-कारक सिद्ध होगी।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति -मार्च 1967 पृष्ठ 34
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 48)
🌹 सद्विचारों का निर्माण सत् अध्ययन—सत्संग से
🔴 असद्विचारों के जाल में फंस जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। अज्ञान, अबोध अथवा असावधानी से ऐसा हो सकता है। यदि यह पता चले कि हम किसी प्रकार असद्विचारों के पाश में फंस गए हैं तो इसमें चिन्तित अथवा घबराने की कोई बात नहीं है। यह बात सही है कि असद्विचारों में फंस जाना बड़ी घातक घटना है। किन्तु ऐसी बात नहीं कि इसका कोई उपचार अथवा उपाय न हो सके। संसार में ऐसा कोई भी भवरोग नहीं है, जिसका निदान अथवा उपाय न हो। असद्विचार से मुक्त होने के भी अनेक उपाय हैं। पहला उपाय तो यही है कि उन कारणों का तुरन्त निवारण कर देना चाहिए जो कि असद्विचारों में फंसाते रहे हैं। यही कारण हैं—कुसंग, अनुचित साहित्य का अध्ययन, अवांछनीय वातावरण।
🔵 खराब मित्रों और संगी-साथियों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य के विचार दूषित हो जाते हैं। अस्तु ऐसे अवांछनीय संग का तुरन्त त्याग कर देना चाहिए। इस त्याग में संपर्कजन्य संस्कार अथवा मोह का भाव आड़े आ सकता है। कुसंग त्याग में दुःख अथवा कठिनाई अनुभव हो सकती है। लेकिन नहीं, आत्म-कल्याण की रक्षा के लिए उस भ्रामक कष्ट को सहना ही होगा और मोह का वह अशिव बन्धन तोड़कर फेंक देना होगा। कुसंग त्याग के इस कर्तव्य में किन्हीं साधु पुरुषों के कुसंग की सहायता ली जा सकती है। बुरे और अविचारी मित्रों के स्थान पर अच्छे, भले और सदाचारी मित्र, सखा और सहचर खोजे और अपने साथ लिए जा सकते हैं अन्यथा अपनी आत्मा सबसे सच्ची और अच्छी मित्र है। एक मात्र उसी से सम्पर्क में चले जाना चाहिए।
🔴 असद्विचारों के जन्म और विस्तार का एक बड़ा कारण असद्साहित्य का पठन पाठन भी है। जासूसी, अपराध और अश्लील श्रृंगार से भरे सस्ते साहित्य को पढ़ने से भी विचार दूषित हो जाते हैं। गन्दी पुस्तकें पढ़ने से जो छाया मस्तिष्क पर पड़ती हैं, वह ऐसी रेखायें बना देती हैं जिनके द्वारा असद्विचारों का आवागमन होने लगता है। विचार विचारों को भी उत्तेजित करते हैं। एक विचार अपने समान ही दूसरे विचारों को उत्तेजित करता और बढ़ाता है। इसलिए गन्दा साहित्य पढ़ने वाले लोगों का अश्लील चिन्तन करने का व्यसन हो जाता है।
🔵 बहुत से ऐसे विचार जो मनुष्य के जाने हुए नहीं होते यदि उनका परिचय न कराया जाय तो न तो उनकी याद आए और न उनके समान दूसरे विचारों का ही जन्म हो। गन्दे साहित्य में दूसरों द्वारा लिखे अवांछनीय विचारों से अनायास ही परिचित हो जाता है और मस्तिष्क में गन्दे विचारों की वृद्धि हो जाती है। अस्तु गन्दे विचारों से बचने के लिए अश्लील और असद्साहित्य का पठन-पाठन वर्जित रखना चाहिए।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 26)
🌹 प्रखर प्रतिभा का उद्गम-स्रोत
🔵 अध्यात्म जादूगरी नहीं है और न कहीं आसमान से बरसने वाले वरदान-अनुदान देवी-देवताओं का भी यह धंधा नहीं है कि चापलूसी करने वालों को निहाल करते रहें और जो इनके लिये ध्यान न दे सकें, उन्हें उपेक्षित रखें या आक्रोश का भाजन बनायें। वस्तुत: देवत्व आत्म-जागरण की एक स्थिति विशेष है, जिसमें अपने ही प्रसुप्त वर्चस्व को प्रयत्नपूर्वक काम में लाया जाता है और सत्प्रयासों का अधिकाधिक लाभ उठाया जाता है।
🔴 कहते हैं कि भगवान् शेष शैय्या पर सोते रहते हैं। कुसंस्कारी लोगों का भगवान् उन बचकानों की बेहूदी धमा-चौकड़ी से तंग आकर आँखें मूँदकर इसी प्रकार जान बचाता है, पर जो मनस्वी उसकी सहायता से कठिनाइयों में त्राण पाना चाहते हैं, उनके लिये द्रौपदी या गज की तरह उसकी कष्टनिवारण शक्ति भी दौड़ी आती है। जिन्हें वर्चस्व प्राप्त करना होता है, उन्हें सुदामा, नरसी, विभीषण व सुग्रीव की तरह वैभव भी प्रचुर परिमाण में हस्तगत होता है।
🔵 इच्छाशक्ति संसार की सबसे बड़ी सामर्थ्य है। साहस भरे संकल्प बल से बढ़कर इस संसार में और कोई नहीं। इसी को अर्जित करते जाना जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, क्योंकि स्वर्ग-मुक्ति जैसे आध्यात्मिक और ऋद्धि-सिद्धि जैसे भौतिक लाभ इसी आधार पर उपलब्ध किये जाते रहते हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 गुरु गायत्री दोऊ खड़े प्रारब्ध करै पार
🔴 यह उस समय की घटना है, जब मैं लखीमपुर में रहता था। मेरा पुश्तैनी मकान पलिया कला, लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश) में है। क्षत्रिय परिवार में जन्म लेने के कारण मेरा खान- पान सब उसी हिसाब से था। सन् १९७५ में मैंने जगद्गुरु शंकराचार्य स्वरूपानन्द जी महाराज से शिव मंत्र की दीक्षा ले ली थी। वे उस समय बहुत प्रसिद्ध थे। श्री राम जन्म भूमि का शिलान्यास उन्होंने ही किया था। मैं दीक्षा लेकर नियमित शिव मंत्र का जाप किया करता था। लेकिन मुझे अपने में कोई परिवर्तन महसूस नहीं हुआ था।
🔴 मेरे जीवन का स्वर्णिम समय तब आया जब लखनऊ अश्वमेध यज्ञ होने वाला था। रजवन्दन का कार्यक्रम चल रहा था। गाँव में प्रचार- प्रसार हो रहा था। मेरे परिचित एक डाक्टर साहब थे, उन्हीं के द्वारा मुझे इस कार्यक्रम की जानकारी मिली। मैंने पुनः गायत्री मंत्र से दीक्षा ली और घर में देव स्थापना भी कराई। इस प्रकार नियमित गायत्री मंत्र का जप करने लगा। धीरे- धीरे खुद- ब मेरा खान- पान सात्विक हो गया। अब मैंने धर्म के असली स्वरूप को देखा, धीरे- धीरे साधना की ओर रुचि बढ़ी। मगर पिछले दुष्कृत्यों का फल भोगना शेष था, जो शारीरिक रोग के रूप में प्रकट हुआ। मेरे पेट में पथरी जमा हो गयी थी, जिसका ऑपरेशन आवश्यक था। लखनऊ के डॉ० सन्दीप अग्रवाल से चेकअप कराने गया था। घर में किसी को नहीं बताया था, मगर डाक्टर की सलाह पर मैंने उसी समय ऑपरेशन कराना तय कर लिया और अगले दिन २ दिसम्बर १९९२ को वहाँ एडमिट हो गया।
🔵 ऑपरेशन तय हो जाने के बाद से मैं निरंतर पूज्य गुरुदेव का ध्यान करते हुए मानसिक गायत्री जप करता रहा। ऑपरेशन के पहले रोगी को बेहोश किया जाता है। मुझे भी बेहोशी की सूई दी गई, पर मैं बेहोश नहीं हुआ। चुपचाप आँखें बंद कर पड़ा रहा और सब कुछ सुनकर अनुभव करता रहा।
🔴 ऑपरेशन की प्रक्रिया शुरू हुई पर आश्चर्य की बात है कि मुझे दर्द का अहसास बिल्कुल नहीं हो रहा था। डॉ० सन्दीप नर्स से कुछ बातें करने लगे। उनके हाथ ऑपरेशन की प्रक्रिया में संलग्र थे। ध्यान बँट जाने से अचानक हाथ गलत दिशा में चल गया। जिसके कारण मेरी आर्टरी (खून की नस) बीच में कट गई। वे बोल उठे- अरे! बहुत गलत हो गया, आर्टरी कट गई। नस कटने से खून का फव्वारा डॉ० संदीप के मुँह पर पड़ने लगा। उन्होंने जल्दी में कहा- ग्लुकोज की पूरी बोतल खोल दो। सभी अपनी- अपनी तरह से उपाय करने लगे। इतने में डॉ० संदीप बोले- ‘‘डॉ० राना हैड गॉन’’।
🔵 इसके बाद मैंने अपने आपको बिल्कुल दूसरी ही दुनिया में पाया। न अस्पताल, न चिकित्सक, न मुझे ऑपरेशन की कोई सुध। हरिद्वार के प्रसिद्ध चंडी मंदिर के नजदीक गंगा नदी में, एक छोटे से शिवालय के पास अथाह जल राशि का स्रोत फूट रहा था। चक्र सा भँवर बना हुआ था। उस भँवर से एक प्रकाशपुँज निकलकर आसमान में दृष्टि सीमा से परे तक गया हुआ था। मैं उस प्रकाश के रास्ते आकाश की ओर चला जा रहा था। उस समय मुझे चिन्ता, शोक, दुःख कुछ भी अनुभव नहीं हो रहा था। मैं बहुत प्रसन्नचित्त था। इसी बीच अचानक मैंने देखा कि उसी रोशनी के रास्ते ऊपर से परम पूज्य गुरुदेव आ रहे हैं। वे पीले खद्दर का कुर्ता एव सफेद रंग की धोती पहने हुए हैं। उस प्रकाश मार्ग के बीच मुझे देख गुरु देव आश्चर्य से बोले ‘‘अरे! डॉ० राना, तुम यहाँ कैसे? जाओ, अभी तुम्हें बहुत काम करने हैं। उनके इतना कहते ही मैं पुनः लखनऊ के उस ऑपरेशन रूम में पहुँच गया।
🔴 शरीर में ऑपरेशन वाले स्थान पर बिजली के झटके सा अनुभव हुआ और पूरी तरह चेतना लौट आयी। पुनः ऑपरेशन रूम की सारी हलचलें स्पष्ट रूप से अनुभव होने लगीं। वहाँ असिस्टेंट और नर्स से डॉ० संदीप की बातचीत से ही पता चला कि मैं अचेत हो गया था। शायद उन्हें मेरे जीवित होने में भी संदेह था; और अभी- अभी वे आश्वस्त हुए कि मैं जीवित हूँ। ऑपरेशन की प्रक्रिया फिर से शुरू हुई। अन्त में जब टाँका लगाकर पट्टी बाँधी गई तब तक मैं गायत्री मंत्र का मानसिक जप करता रहा।
🔵 ऑपरेशन के तीसरे दिन टाँका कटा। उस दिन बाबरी मस्जिद प्रकरण के कारण सभी जगह कर्फ्यू लगा हुआ था। मैं अपनी गाड़ी खुद चलाकर मन में गायत्री मंत्र जपता हुआ सकुशल अपने घर बलरामपुर पहुँच गया था।
🔴 अपनी पिछली करनी का फल तो असमय मौत ही थी, पर गुरुदेव ने कृपा कर हमें अपनाया और वह मार्ग दिखाया जिससे इस जीवन का सदुपयोग जान सकूँ। उनकी इस अहैतुकी कृपा से मैं आजीवन कृतार्थ हूँ।
🌹 डॉ० कृष्ण कुमार राना पहलवारा (उत्तरप्रदेश)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
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