🔴 शिष्य संजीवनी की यह सूत्र- माला एक लम्बे समय से शिष्यों को शिष्यत्व की साधना का मर्म समझाती आयी है। उन्हें अपने सद्गुरु की कृपा का अधिकारी बनाती आयी है। अब इस सूत्र- माला का आखिरी छोर आ पहुँचा है। माला के सुमेरू तक हम आ पहुँचे हैं। केवल अन्तिम सूत्र कहा जाना है। यह अन्तिम सूत्र पहले गये सभी सूत्रों का सार है, उनकी चरम परिणति है। इस सूत्र में शिष्यत्व की साधना का चरम है। इसमें साधना के परम शिखर का दर्शन है। इसे समझ पाना केवल उन्हीं के बूते की बात है। जो इस साधना में रमे हैं, जिन्होंने पिछले दिनों शिष्यों संजीवनी को बूंद- बूंद पिया है, इस औषधि पान के अनुभव को पल- पल जिया है। इस सूत्र को समझने के लिए वे ही सुपात्र हैं, जिन्होंने अपने शिष्यत्व को सिद्ध करने के लिए अपने सब कुछ को दांव पर लगा रखा है।
🔵 इस अन्तिम सूत्र में पथ की नहीं मन्दिर की झलक है। पथ तो समाप्त हुआ, अब मंगलमय प्रभु के महाअस्तित्त्व में समा जाना है। बूंद- समुद्र में समाने जा रही है। सभी द्वन्द्वों को यहाँ विसॢजत होकर द्वन्द्वातीत होना है। शिष्यत्व के इस परम सुफल को जिन्होंने चखा है, जो इस स्वाद में डूबे हैं, ऐसे महासाधकों का कहना है- ‘जो दिव्यता के द्वार तक पहुँच चुका है, उसके लिए कोई भी नियम नहीं बनाया जा सकता। और न कोई पथ प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है। फिर भी शिष्यों को संकेत देने के लिए कुछ संकेत दिए गए हैं, कुछ शब्द उचारे गए हैं- ‘जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। केवल नाद रहित वाणी ही सुनो। जो बाह्य और अन्तर दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, केवल उसी का दर्शन करो। तुम्हें शान्ति प्राप्त हो।
🔴 शिष्यत्व की साधना का यह अन्तिम छोर अतिदिव्य है। यहाँ किसी भी तरह के सांसारिक ज्ञान, भाव या बोध की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ शुद्ध अध्यात्म है। यहां केवल शुद्धतम चेतना का परम विस्तार है। यहाँ अस्तित्त्व के केन्द्र में प्रवेश है। यहाँ न तो विधि है, न निषेध। कोई नियम- विधान यहाँ नहीं है। हो भी कैसे सकते हैं, कोई नियम यहाँ पर? नियम तो वहाँ लागू किए जाते हैं, जहाँ द्वैत और द्वन्द्व होते हैं। और द्वैत और द्वन्द्व का स्थान परिधि है, केन्द्र नहीं। उपनिषद् में यही अवस्था नेति- नेति कही गयी है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhav
🔵 इस अन्तिम सूत्र में पथ की नहीं मन्दिर की झलक है। पथ तो समाप्त हुआ, अब मंगलमय प्रभु के महाअस्तित्त्व में समा जाना है। बूंद- समुद्र में समाने जा रही है। सभी द्वन्द्वों को यहाँ विसॢजत होकर द्वन्द्वातीत होना है। शिष्यत्व के इस परम सुफल को जिन्होंने चखा है, जो इस स्वाद में डूबे हैं, ऐसे महासाधकों का कहना है- ‘जो दिव्यता के द्वार तक पहुँच चुका है, उसके लिए कोई भी नियम नहीं बनाया जा सकता। और न कोई पथ प्रदर्शक ही उसके लिए हो सकता है। फिर भी शिष्यों को संकेत देने के लिए कुछ संकेत दिए गए हैं, कुछ शब्द उचारे गए हैं- ‘जो मूर्त नहीं है और अमूर्त भी नहीं है, उसका अवलम्बन लो। केवल नाद रहित वाणी ही सुनो। जो बाह्य और अन्तर दोनों चक्षुओं से अदृश्य है, केवल उसी का दर्शन करो। तुम्हें शान्ति प्राप्त हो।
🔴 शिष्यत्व की साधना का यह अन्तिम छोर अतिदिव्य है। यहाँ किसी भी तरह के सांसारिक ज्ञान, भाव या बोध की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। यहाँ शुद्ध अध्यात्म है। यहां केवल शुद्धतम चेतना का परम विस्तार है। यहाँ अस्तित्त्व के केन्द्र में प्रवेश है। यहाँ न तो विधि है, न निषेध। कोई नियम- विधान यहाँ नहीं है। हो भी कैसे सकते हैं, कोई नियम यहाँ पर? नियम तो वहाँ लागू किए जाते हैं, जहाँ द्वैत और द्वन्द्व होते हैं। और द्वैत और द्वन्द्व का स्थान परिधि है, केन्द्र नहीं। उपनिषद् में यही अवस्था नेति- नेति कही गयी है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 डॉ. प्रणव पण्डया
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