गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

👉 ‘उपासना’ की सफलता ‘साधना’ पर निर्भर है। (अन्तिम भाग)

🔷 उपासना कारतूस है और जीवन साधना बन्दूक। अच्छी बन्दूक होने पर ही कारतूस का चमत्कार देखा जा सकता है। बन्दूक रहित अकेला कारतूस तो थोड़ी आवाज करके फट ही सकता है उससे सिंह व्याघ्र का शिकार नहीं किया जा सकता। अनैतिक गतिविधियाँ और अवाँछनीय विचारणायें यदि भरी रहें तो कोई साधक आत्मिक प्रगति का वास्तविक और चिरस्थायी लाभ न ले सकेगा। किसी प्रकार कुछ मिल भी जाय तो उससे जादूगरी जैसा चमत्कार दिखा कर थोड़े दिन यश लिप्सा पूरी की जा सकती है। वास्तविक लाभ न अपना हो सकता है और न दूसरों का।

🔶 अस्तु आत्मबल से संबंधित सिद्धियाँ और आत्म-कल्याण के साथ जुड़ी हुई विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए जो वस्तुतः निष्ठावान हों उन्हें अपने गुण-कर्म स्वभाव पर गहरी दृष्टि डालनी चाहिए और जहाँ कहीं छिद्र हों उन्हें बन्द करना चाहिए। फूटे हुए बर्तन में जल भरा नहीं रह सकता- छेद वाली नाव तैर नहीं सकती, दुर्बुद्धि और दुश्चरित्र व्यक्ति इन छिद्रों में अपना सारा उपासनात्मक उपार्जन गँवा बैठता है और उसे छूँछ बनकर खाली हाथ रहना पड़ता है।

🔷 हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत वाली साधना इस दृष्टि से अति उपयोगी सिद्ध होती है। प्रातःकाल उठते ही यह अनुभव करना कि अब से लेकर सोते समय तक के लिए ही आज का नया जन्म मिला है। इसके एक-एक क्षण का सदुपयोग करना है। इस आधार पर दिन भर की पूरी दिनचर्या निर्धारित कर ली जाय। समय जैसी बहुमूल्य सम्पदा का एक कण भी बर्बाद होने की उसमें गुंजाइश न रहे। एक भी अनाचार बन पड़ने की ढील न रखी जाय। निकृष्ट स्तर पर सोचने और हेय कर्म करने पर पूरा प्रतिबन्ध लगाया जाय। इस प्रकार नित्य कर्म से लेकर आजीविका उपार्जन तक संभाषण से लेकर कर्तृत्व तक जीवन के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का समावेश किया जाय।

🔶 रात को सोते समय लेखा-जोखा लिया जाय कि आज उत्कृष्टता और निकृष्टता में से किस का उपार्जन ज्यादा हुआ। पाप अधिक बना या पुण्य। भूलें प्रबल रहीं या सतर्कता जीती। इस प्रकार आत्म निरीक्षण करने के उपरान्त दूसरे दिन और भी अधिक सतर्क रहने- और भी उत्तम दिनचर्या बनाने की तैयारी करते हुए निद्रा माता को मृत्यु समझ कर उसकी गोद में शान्ति-पूर्वक जाना चाहिए। यह क्रम निरन्तर जारी रखा जाय तो जीवन में क्रमशः अधिकाधिक पवित्रता का समावेश होता चला जाता है और तदनुरूप आत्मिक प्रगति तीव्र होती चली जाती है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मई 1972 पृष्ठ 10

👉 चश्मा

🔷 जल्दी -जल्दी घर के सारे काम निपटा, बेटे को स्कूल छोड़ते हुए ऑफिस जाने का सोच, घर से निकल ही रही थी कि... फिर पिताजी की आवाज़ आ गई, "बहू, ज़रा मेरा चश्मा तो साफ़ कर दो।" और बहू झल्लाती हुई....सॉल्वेंट ला, चश्मा साफ करने लगी। इसी चक्कर में आज फिर ऑफिस देर से पहुंची।

🔶 पति की सलाह पर अब वो सुबह उठते ही पिताजी का चश्मा साफ़ करके रख देती, लेकिन फिर भी घर से निकलते समय पिताजी का बहू को बुलाना बन्द नही हुआ।

🔷 समय से खींचातानी के चलते अब बहू ने पिताजी की पुकार को अनसुना करना शुरू कर दिया।

🔶 आज ऑफिस की छुट्टी थी तो बहू  ने सोचा - घर की साफ- सफाई कर लूँ। अचानक, पिताजी की डायरी हाथ लग गई। एक पन्ने पर लिखा था- दिनांक 23/12/17 आज की इस भागदौड़ भरी ज़िंदगी में, घर से निकलते समय, बच्चे अक्सर बड़ों का आशीर्वाद लेना भूल जाते हैं। बस इसीलिए, जब तुम चश्मा साफ कर मुझे देने के लिए झुकती तो मैं मन ही मन, अपना हाथ तुम्हारे सर पर रख देता। वैसे मेरा आशीष सदा तुम्हारे साथ है बेटा...

🔷 आज पिताजी को गुजरे ठीक 2 साल बीत चुके हैं। अब मैं रोज घर से बाहर निकलते समय पिताजी का चश्मा साफ़ कर, उनके टेबल पर रख दिया करती हूँ। उनके अनदेखे हाथ से मिले आशीष की लालसा में.....।

🔶 जीवन में हम रिश्तों का महत्व महसूस नहीं करते हैं, चाहे वो किसी से भी हो, कैसे भी हो.......  और जब तक महसूस करते हैं तब तक वह हमसे बहुत दूर जा चुके होते हैं।

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 16 Feb 2018


👉 आज का सद्चिंतन 16 Feb 2018


👉 जीवन का अर्थ

🔶 जीवन का अर्थ है- सक्रियता, उल्लास, प्रफुल्लता। निराशा का परिणाम होता है- निष्क्रियता, हताशा, भय, उद्विग्रता और अशांति। जीवन है प्रवाह, निराशा है सडऩ। जीवन का पुष्प आशा की उष्ण किरणों के स्पर्श से खिलता है, निराशा का तुषार उसे कुम्हलाने को बाध्य करता है। निराशा एक भ्रांति के अतिरिक्त और कुछ नहीं।
  
🔷 आज तक ऐसा कोई व्यक्ति पैदा नहीं हुआ, जिसके जीवन में विपत्तियाँ और विफलताएँ न आयी हों। संसार चक्र किसी एक व्यक्ति की इच्छा के संकेतों पर गतिशील नहीं है। वह अपनी चाल से चलता है। इसके अलग-अलग धागों के बीच व्यक्तियों का अपना एक निजी संसार होता है। चक्र-गति के साथ आरोह-अवरोह अनिवार्य है, अवश्यंभावी है। उस समय सम्मुख उपस्थित परिस्थितियों का निदान-उपचार भी आवश्यक है, पर उसके कारण कुंठित हो जाना, व्यक्ति के जीवन की एक हास्यास्पद प्रवृत्ति मात्र है। उसका विश्व गति से कोई भी तालमेल नहीं। निराशा व्यक्ति का अपना ही एक मनमाना और आत्मघाती उत्पादन है। ईश्वर की सृष्टि में वह एक विजातीय तत्त्व है। इसलिए निराशा का कोई भी स्वागत करने वाला नहीं।
  
🔶 सामान्य जीवन के उतार-चढ़ावों से ही जो उद्विग्र, अशांत हो जाते हैं, वे जीवन में किसी बड़े काम को करने की कल्पना भी नहीं कर सकते। बड़े काम तो धैर्य, अध्यवसाय तथा कठोर श्रम की अपेक्षा रखते हैं। मानसिक संतुलन वहाँ पहली शर्त है। तरह-तरह की जटिल, पेचीदी परिस्थितियाँ बड़े कामों में पैदा होती रहती हैं। अशांत, व्यग्र मन:स्थिति में डरके बीच कोई रास्ता नहीं ढूँढा जा सकता। असफलता और हताशा ही ऐसे व्यक्तियों की ललाट रेखा है।
  
🔷 संसार बना ही सफलता-असफलता दोनों के ताने बाने से है। सभी व्यक्ति असफलताओं, अवरोधों से हताश होकर, हिम्मत हारकर बैठ जाएँ, तब तो संसार की सारी सक्रियता ही नष्ट हो जाए। पतझड़ के बाद वसंत-रात्रि के बाद दिन-दु:ख के बाद सुख तो सृष्टि चक्र की सुनिश्चित गति व्यवस्था है। इसमें निराश होने जैसी कोई बात है नहीं।
  
🔶 इससे भी उच्च मन:स्थिति उन महापुरुषों की होती है, जो अपने समय की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से जूझने का संकल्प लेकर आजीवन चलते रहते हैं, यह जानते हुए भी कि पीड़ा का विस्तार, अतिव्यापक है और पतन की शक्तियाँ अति प्रबल हैं। अपने प्रयास का प्रत्यक्ष परिणाम संभवत: सामान्य लोगों को नहीं ही दिखे, तो भी वे लक्ष्य पथ पर धीर- गंभीर भाव से बढ़ते ही जाते हैं। वे उत्कृष्टतर मन:स्थिति में जीते हैं।
  
🔷 ऐसे ही व्यक्ति देश, समाज और युग के पतनोन्मुख प्रवाह को विपरीत दिशा में मोड़ देते हैं। अपनी गतिविधियों से आये परिवर्तनों को-नवीन दिशाधारा को वे स्वयं तो स्पष्टï देख पाते हैं, पर सामान्य व्यक्ति अपने परिवेश में कोई अधिक स्थूल परिवर्तन उस समय तक उत्पन्न नहीं देख पाने के कारण उन परिवर्तनों और सफलताओं का आकलन नहीं कर पाते।
  
🔶 विशाल वटवृक्ष के पत्तों में वायु की प्रत्येक पुलक से स्पन्दन होता है, पीपल के पत्ते हवा के हर झोकों से खड़-खड़ कर उठते हैं, पर इससे स्वयं पीपल या बरगद पर रंचमात्र हलचल नहीं होती। जबकि छोटे कमजोर पौधे झंझा के एक ही थपेड़े में लोटपोट हो जाते हैं। अवरोधों की राई को पहाड़ मान बैठने और निराशा के नैश अंधकार में ऊषा की स्वर्णिम आभा का अस्तित्व ही भुला बैठने की गलती तो नहीं ही करनी चाहिए, निराशा एक भ्रांति है, यथार्थ जीवन में उसका कोई स्थान नहीं है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आत्मरक्षा मनोरोगों से भी करनी चाहिए (भाग 2)

🔶 मनोरोगों में एक वर्ग अवसादजन्यों का और दूसरा आवेश स्तर वालों का है। उदासी, निराशा, भय, चिन्ता, आशंका, अविश्वास जैसों की गणना अवसाद वर्ग में आती है। वे मनुष्य को ठंडा कर देते हैं और लो ब्लड प्रेशर की तरह उस स्थिति में नहीं रहने देते कि कुछ करते-धरते बन सके। इन व्याधियों से आक्रान्त व्यक्ति पक्षाघात पीड़ित अपंगों की तरह दीन हीन बने गई गुजरी स्थिति में पड़े रहते हैं। उन पर अभागे होने का लांछन लगता है, जो अनुकूलता रहते हुए भी सही चिन्तन और सही प्रयास बन पड़ने के कारण ज्यों-त्यों करके दिन काटते हैं। इतने पर भी उन्हें उपद्रवियों की तुलना में भारभूत होते हुए भी किसी प्रकार सहन कर लिया जाता है। लो ब्लड प्रेशर का मरीज खुद तो अशक्त वयोवृद्ध की तरह चारपाई पकड़े रहता है, पर दूसरों से अपना भार उठवाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार का त्रास नहीं देते।

🔷 उपद्रवी मनोरोगों में क्रोध, आवेश, सनक, आक्रमण, अपराध जैसे कुकृत्यों की गणना होती है। वस्तुतः यह सभी विकृत अहंकार के बाल-बच्चे हैं। निज की अहमन्यता और दूसरे का असम्मान करने का दुस्साहस ही उस स्तर की विक्षिप्तता को जन्म देते हैं। सामान्य शिष्टाचार और सज्जनोचित सौजन्य की मर्यादा है कि अपनी नम्रता, विनम्रशीलता बनाये रखी जाय और सम्पर्क में आने वालों को सम्मान दिया जाय। जो इतना कर पाते हैं उनकी गणना सभ्य नागरिकों के लिए आवश्यक शिष्टाचार के जानकार में की जाती है, भले मानसों की पंक्ति में बिठाया जाता है।

🔶 किन्तु जो ठीक इसके विपरीत आचरण करते हैं, वे दूसरों का जितना तिरस्कार करते हैं उससे कही अधिक मात्रा में स्तर गिरा लेने के रूप में निज की हानि कर चुके होते हैं। ऐसे ही नागरिक मर्यादाओं से अपरिचित या अनभ्यस्त लोग क्रोधी कहे जाते हैं। वे अपनी ही मान्यता या मर्जी को सब कुछ मानते हैं। दूसरे की सुनते ही नहीं। यह नहीं सोचते कि अपना निर्धारण सही भी है या नहीं। सही हो तो भी यह आवश्यक नहीं कि दूसरे उसे उसी रूप में मानने या कर सकने की स्थिति में भी है या नहीं। जो अपनी ही अपनी चलाते हैं, दूसरों की स्थिति समझने और विचार विनिमय से मतभेद दूर करने की आवश्यकता नहीं समझते, ऐसे ही लोग बात-बात पर आग बबूला होते और क्रोध में लाल-पीले होते देखे गये हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
(गुरुदेव के बिना पानी पिए लिखे हुए फोल्डर-पत्रक से)

👉 How to become a Pursuer (SADHAK)? (Part 2)

🔶 ARJUN DEV neither did anything nor got done anything, he rather built himself. That is why his GURUDEV deemed him to be a fit person. The seven-hermits (SAPTRISHIs) built/improved themselves. They had wealth of austerity and knowledge within themselves. Wherever they lived, whatever thereafter they did was categorized as work of great level. Had their personalities been of low standard, how it could do?
                                   
🔷 A tendency to further improve own personality was always seen in Gandhi JI. This led thousands of people to follow him. BUDDHA continued to improve himself to subsequently inspire thousands of people to follow him. We must generate magnetism within us. Iron ores & particles gather at a place within mines because of presence of certain magnetic field within the Mine appealing other iron particles from all around the magnetic area within mines scattered in a vast area. The mine continues to drag iron particles from all around. We should improve our qualities. We should improve our magnetism. We should improve our personalities for very this is the biggest challenge or assignment for us to complete.
                                           
🔶 We serve the society. Yes! It is good, that too you should do but what I say is that even more important is to improve your being. Metal that is drawn out of mines happens to be ore but when it is cooked on fire to be refined, the same impure metal becomes famous as pure gold, pure silver or pure steel. We must make ourselves like steel, gold etc. we should wash ourselves, clean ourselves and improve ourselves.

🔷 If this much could be done, must be understood has been done what was to be done. It must be understood that answer has been found. Social service too must be done but priority must be accorded to make oneself a tool for that purpose. It is far more important to endeavor to rectify, refine and improve oneself. Do social service also but do not forget that self-improvement is a never-ending process. Friends let me say one more thing before I finish.
                                    
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya

👉 जीवंत विभूतियों से भावभरी अपेक्षाएँ (भाग 4)

(17 अप्रैल 1974 को शान्तिकुञ्ज में दिया गया उद्बोधन)

🔷 समझदारी जहाँ कहीं भी होगी, न जाने क्या-से-क्या करती चली जाएगी? समझदार आदमी आर्थिक क्षेत्र में चला जाएगा, तो वो मोनार्क पैदा हो जाएगा और हेनरी फोर्ड पैदा हो जाएगा। पहले ये छोटे-छोटे आदमी थे। नवसारी गुजरात का एक नन्हा-सा आदमी, जरा-सा आदमी और समझदार आदमी अगर व्यापार क्षेत्र में चला जाएगा, तो उसका नाम जमशेद जी टाटा होता चला जाएगा। राजस्थान का एक अदना-सा आदमी जुगल किशोर बिड़ला होता चला जाएगा। अगर आदमी के अंदर गहरी समझदारी हो तब? तब एक नन्हा-सा आदमी, जरा सा आदमी, दो कौड़ी का आदमी जिधर चलेगा, अपनी समझदारी के साथ, वह गजब ढाता हुआ चला जाएगा।

🔶 मित्रो! गहरी समझदारी की बड़ी कीमत है। गहरी समझदारी वाले सुभाषचंद्र बोस गजब ढाते हुए चले गए। सरदार पटेल एक मामूली से वकील। यों तो दुनिया में एक ही नहीं, बहुत सारे वकील हुए हैं, लेकिन पटेल ने अपनी क्षमता और प्रतिभा यदि वकालत में खरच की होती, तो शायद अपनी समझदार अक्ल की कीमत एक हजार रुपया महीना वसूल कर ली होती और उन रुपयों को वसूल करने के बाद में मालदार हो गए होते और उनका बेटा शायद विलायत में पढ़कर आ जाता और वह भी वकील हो सकता था।

🔷 उनकी हवेली भी हो सकती थी और घर पर मोटरें भी हो सकती थीं, लेकिन वही सरदार पटेल अपनी समझदारी को और अपनी बुद्धिमानी को लेकर खड़े हो गए। कहाँ खड़े हो गए? वकालत करने के लिए। किसकी वकालत करने के लिए? काँग्रेस की वकालत करने के लिए और आजादी की वकालत करने के लिए। जब वे वकालत करने के लिए खड़े हो गए, तो कितनी जबरदस्त बैरिस्टरी की और किस तरीके से वकालत की और किस तरीके से तर्क पेश किए और किस तरीके से उनने फिजाँ पैदा की कि हिंदुस्तान की दिशा ही मोड़ दी और न जाने क्या-से-क्या हो गया?

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य (अमृत वाणी)

👉 गुरुगीता (भाग 42)

👉 गुरुचरणों की रज कराए भवसागर से पार
🔶 गुरुगीता का गायन शिष्यों के अन्तर्मन को गुरुभक्ति से भिगोता है। उनके हृदय में सद्गुरु समर्पण के स्वर फूटते हैं। मन-प्राण में गुरुवर के लिए अपने सर्वस्व को  न्योछावर करने की उमंग जगती है। अन्तर्चेतना में सद्गुरु की चेतना झलकने और छलकने लगती है। जिन्होंने भी गुरुगीता की अनुभूति पायी है- सभी का यही मत है। साधनाएँ अनेक हैं, मत और पथ भी अनगिनत हैं; पर गुरुभक्तों के लिए यही एक मंत्र है—अपने गुरुदेव का नाम। उनका एक ही कर्म है, अपने गुरुवर की सेवा। उनमें सदा एक ही भाव विद्यमान रहता है, गुरुदेव के प्रति समर्पण का भाव। जिन्दगी के सारे रिश्ते-नाते, सभी सम्बन्ध गुरुदेव में ही हैं। उनके सिवा त्रिभुवन में न कोई सत्य है और न कोई तथ्य।
  
🔷 उपर्युक्त मंत्रों में भगवान् भोलेनाथ के इन वचनों को हमने पढ़ा है कि दुःख देने वाले, रोग उत्पन्न करने वाले प्राणायाम का भला क्या प्रयोजन है? अरे! गुरुवर की चेतना के अन्तःकरण में उदय होने मात्र से बलवान वायु तत्क्षण स्वयं प्रशमित हो जाती है। ऐसे गुरुदेव की निरन्तर सेवा करनी चाहिए; क्योंकि इससे सहज ही आत्मलाभ हो जाता है। अपने गुरुदेव के स्वरूप का थोड़ा सा चिन्तन भी शिव-चिन्तन के समान है। उनके नाम का थोड़ा सा कीर्तन भी शिव-कीर्तन के बराबर है। सद्गुरु का स्मरण और उन्हें ही समर्पण-शिष्यों के जीवन का सार है। इस सरल; किन्तु समर्थ साधना से उन्हें सब कुछ अनायास ही मिल जाता है।

🔶 गुरु भक्ति की इस साधना महिमा के अगले क्रम को स्पष्ट करते हुए भगवान् सदाशिव जगन्माता पार्वती से कहते हैं-

यत्पादरेणुकणिका काऽपि संसारवारिधेः। सेतुबंधायते नाथं देशिकं तमुपास्महे॥ ५५॥
यस्मादनुग्रहं लब्ध्वा महदज्ञानमुत्सृजेत्। तस्मै श्रीदेशिकेन्द्राय नमश्चाभीष्टसिद्धये॥ ५६॥

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 गुरुगीता पृष्ठ 69

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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