गुरुवार, 15 सितंबर 2022

👉 समर्थ के अवलम्बन से ही आत्मिक प्रगति

भारतीय संस्कृति में अनेकानेक विशषताएँ हैं, किन्तु एक सबसे बड़ी विशेषता है जो हम उसमें पाते हैं वह है-गुरु-शिष्य परम्परा। गुरु माँ की तरह अपनी प्राण-ऊर्जा से शिष्य के अन्तःकरण को ओत-प्रोत कर उसमें नई शक्ति का संचार करता है, उसे नया जीवन देता है। शिष्य का समर्पण और गुरु द्वारा अपना सर्वस्व उसको अर्पण, इसकी मिसाल और कहीं भी देखने को नहीं मिलती। गुरु का सहयोग लिये बिना शिष्य की आत्मिक प्रगति सम्भव नहीं। अज्ञान के अन्धकार में फँसे मानव को बहार निकालने के लिए गुरु अपनी विशिष्ट ज्ञान की शलाका से उसकी आँखों में वो अंजन लगाता है कि उसे जीवन का वास्तविक उद्देश्य और अपनी भावी भूमिका स्पष्ट नजर आने लगती है। जिस किसी के जीवन में गुरु का पदार्पण हुआ है, उसे मानकर चलना चाहिए कि उसके उच्चस्तरीय आत्मोत्थान का पथ प्रशस्त हो गया।

आज के आधुनिक युग में जब आदमी को आदमी पर विश्वास नहीं है तब शिष्य कैसे विश्वास करे-कौन सा गुरु उसके लिए सच्चा है? शास्त्रों का मार्गदर्शन है-धूर्तों-के मायाजाल से बचने के लिए लोभ-लालच में फँसाकर अपना उल्लू साधने वाले तथाकथित बाबाजियों के चंगुल में आने से बचने के लिए शिष्य को अपने अन्दर के नेत्र खुले रखने चाहिए। यह एक समयसाध्य प्रक्रिया है, परन्तु क्रमशः समझ में आने लगता है-कौन सही है? और कौन गलत?

*( अमृतवाणी:- भावी महाभारत पं श्रीराम शर्मा आचार्य Amritvanni:- Bhavi Mahabharat Pt Shriram Sharma Acharya, https://youtu.be/aLv4rXh8cmU )*

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आत्मिक प्रगति के इच्छुक साधक आज के इस मायाजाल से घिरे संसार में निश्छल स्वभाव वाले, संवेदना से अभिपूरित, तार्किक नहीं, बल्कि वास्तविक ज्ञान से भरेपूरे गुरु को पहचानने में देर नहीं करते। गुरु की पहचान के पश्चात् अपनी आत्मसत्ता का परिपूर्ण समर्पण, अहंकार का निगलन और अपनी इच्छाओं का गुरु की इच्छाओं में विलय-बस इतना ही शेष रह जाता है। समर्पण, यदि सर्वोच्च स्तर का हुआ, तो बदलें में उतना ही मिलता हुआ चला जाता है।

बंशी स्वयं को पोला कर लेती है और मुँह से लगने के पश्चात् वही स्वर बजने देती है जो बजाने वाला चाहता है। शिष्य भी यदि स्वयं को खाली कर दे और अपनी इच्छाएँ गुरु को दे दे, तो गुरुदीक्षा सम्पूर्ण हो जाती है। गुरुसत्ता अपनी प्राण ऊर्जा की कलम शिष्य के व्यक्तित्व में आरोपित कर उसे विशिष्टता से सम्पन्न बना देती है। समर्थ गुरु का अवलम्बन एक सौभाग्य है। जिसे यह मिल गया, मानो उसकी मुक्ति का द्वार खुल गया।

✍🏻 डॉ प्रणव पंड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 31

👉 महिमा गुणों की ही है

🔷 असुरों को जिताने का श्रेय उनकी दुष्टता या पाप-वृति को नहीं मिल सकता। उसने तो अन्तत: उन्हें विनाश के गर्त में ही गिराया और निन्दा के न...