सोमवार, 10 जनवरी 2022

👉 अपनी पड़ताल स्वयं करे

"दूसरों की आलोचना करने वालों को इस घटना को भी स्मरण रखना चाहिए।"

एक व्यक्ति के बारे में मशहूर हो गया कि उसका चेहरा बहुत मनहूस है। लोगों ने उसके मनहूस होने की शिकायत राजा से की। राजा ने लोगों की इस धारणा पर विश्वास नहीं किया, लेकिन इस बात की जाँच खुद करने का फैसला किया। राजा ने उस व्यक्ति को बुला कर अपने महल में रखा और एक सुबह स्वयं उसका मुख देखने पहुँचा। संयोग से व्यस्तता के कारण उस दिन राजा भोजन नहीं कर सका। वह इस नतीजे पर पहुंचा कि उस व्यक्ति का चेहरा सचमुच मनहूस है। उसने जल्लाद को बुलाकर उस व्यक्ति को मृत्युदंड देने का हुक्म सुना दिया।

जब मंत्री ने राजा का यह हुक्म सुना तो उसने पूछा,"महाराज! इस निर्दोष को क्यों मृत्युदंड दे रहे हैं? राजा ने कहा,"हे मंत्री! यह व्यक्ति वास्तव में मनहूस है। आज सर्वप्रथम मैंने इसका मुख देखा तो मुझे दिन भर भोजन भी नसीब नहीं हुआ। इस पर मंत्री ने कहा,"महाराज क्षमा करें, प्रातः इस व्यक्ति ने भी सर्वप्रथम आपका मुख देखा। आपको तो भोजन नहीं मिला, लेकिन आपके मुखदर्शन से तो इसे मृत्युदंड मिल रहा है।

अब आप स्वयं निर्णय करें कि कौन अधिक मनहूस है। "राजा भौंचक्का रह गया। उसने इस दृष्टि से तो सोचा ही नहीं था। राजा को किंकर्तव्यविमूढ़ देख कर मंत्री ने कहा, "राजन्! किसी भी व्यक्ति का चेहरा मनहूस नहीं होता। वह तो भगवान की देन है। मनहूसियत हमारे देखने या सोचने के ढंग में होती है।

आप कृपा कर इस व्यक्ति को मुक्त कर दें। राजा ने उसे मुक्त कर दिया। उसे सही सलाह मिली।


👉 कटु और मधु अनुभूतियाँ

माता मधुर मिष्ठान्न भी खिलाती है और आवश्यकता पड़ने पर कड़ुई दवा भी खिलाती है। दुलार से गोदी में भी उठाये फिरती है और जब आवश्यकता समझती है डॉक्टर के पास सुई लगाने या आपरेशन कराने के लिए भी ले जाती है। माता की प्रत्येक क्रिया बालक के कल्याण के लिये ही होती है, परमात्मा की ममता जीवन के प्रति माता से भी अधिक है। प्रतिकूलताएं प्रस्तुत करने में उसकी उपेक्षा या निष्ठुरता नहीं, हितकामना ही छिपी रहती है।

अपनी कठिनाइयों को हल करने मात्र के लिए, अपनी सुविधाएँ बढ़ाने की लालसा मात्र से जो प्रार्थना पूजा करते हैं वे उपासना के तत्वज्ञान से अभी बहुत पीछे हैं। उन्हें उन बालकों में गिना जाना चाहिये जो प्रसाद के लालच से मन्दिर में जाया करते हैं। ऐसे बच्चे वह आनन्द कहाँ पाते हैं जो भक्तिरस में निमग्न एक भावनाशील आस्तिक को प्रभु के सम्मुख अपना हृदय खोलने और मस्तक झुकाने में आता है। प्रभु के चरणों पर अपनी अन्तरात्मा की अर्पण करने वाले भावविभोर भक्त और प्रसाद को मिठाई लेने के उद्देश्य में खड़े हुए भिखमंगे में जो अन्तर होता है वही सच्चे और झूठे उपासकों में होता है। एक का उद्देश्य परमार्थ है दूसरे का स्वार्थ। स्वार्थी को कहीं भी सम्मान नहीं मिलता। परमात्मा की दृष्टि में भी ऐसे लोगों का क्या कुछ मूल्य होगा?

👉 भक्तिगाथा (भाग १०१)

कर्मों का त्याग ही है सच्ची भक्ति

ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के भावों से भीगे हुए शब्द सभी की भावनाओं को भिगोते चले गए। हिमालय का आर्द्र वातावरण और भी आर्द्र हो उठा। हालांकि यह आर्द्रता जलीय नहीं रसमयता की थी। भक्तिरस की फुहारों ने इसे रससिक्त किया था, आर्द्र बनाया था। सुनने वाले भावविभोर विश्वामित्र को देखकर चकित थे, आश्चर्यजड़ित थे। उन्होंने अब तक कर्मकठोर विश्वामित्र को देखा था। उन्होंने कभी भी न थकने वाले, कभी भी किसी से हार न मानने वाले, विलक्षण साहसी, सतत संघर्षरत योद्धा ऋषि विश्वामित्र को देखा था, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में दुर्धर्ष एवं प्रचण्ड चुनौतियों को सामना किया था और उन पर विजय पायी थी। सम्पूर्ण ऋषिमण्डल एवं देवमण्डल ने महाचुनौतियों के शिखरों पर उनके साहसिक तप की प्रज्ज्वलित पताकाएँ फहराती हुई देखी थीं। बड़ी से बड़ी चुनौतियाँ भी उनके पदाघात से चकनाचूर होती रही थीं। विरोधियों के प्रबलतम पराक्रम उनके सम्मुख आते ही स्वयं पराजित हो जाते थे।

ऐसे महाबज्र विश्वामित्र के अन्तस भावों की रसधार को देखकर सबके सब चकित भाव से उन्हें देखते रहे। उन सबमें सुगना भील के बारे में और भी अधिक जानने की लालसा बढ़ गयी। ऐसा क्या था सुगना में, जिसने कुलिश कठोर, महर्षि विश्वामित्र की तेजस्विता, प्रखरता को रसमय बना दिया। सब के मन के इन मानसिक स्पन्दनों को शब्द दिए ऋषि क्रतु ने। उन्होंने कहा- ‘‘हे  परमतेजस्वी महर्षि! हम सभी को सुगना भील की भक्तिकथा का श्रवण कराएँ।’’ ऋषि क्रतु के इस कथन ने कथा की बिखरी कड़ियाँ जोड़ दीं। तप तेजस के सघन स्वरूप ऋषि विश्वामित्र को सुगना का स्मरण हो आया। वह कृष्णवर्ण भील, सुडौल-सुगठित कद-काठी का स्वामी था, जिसकी काली किन्तु चमकदार स्वच्छ आँखों में सदा भक्ति छलकती रहती थी।

उसे याद करते हुए विश्वामित्र कहने लगे- ‘‘उस दिन मैं ऋषि रुद्रांश के साथ उसकी झोपड़ी में गया। सघन अरण्य में वृक्षों के झुरमुट की ओट में बनी वह फूस की झोपड़ी भक्ति के दिव्य प्रकाश से पूर्ण थी। झोपड़ी के अन्दर व बाहर थोड़ी दूर तक की भूमि गाय के गोबर से लिपी हुई थी। बाहर सुगन्धित पुष्प वाले पौधे लगे हुए थे। अन्दर पूजा की चौकी थी, जिस पर भगवान् नारायण का चित्र रखा था। यह चित्र सम्भवतः उसी ने अपने हाथों से बनाया था। चित्र के पास कुछ पुष्प बिखरे थे। उससे थोड़ी दूर हटकर पुआल का एक बिछौना था। सामान के नाम पर वहाँ प्रायः कुछ भी नहीं था। बस थोड़ी सी पत्तियाँ, कुछ फल, कुछ काष्ठ सामग्री- यही सब कुछ था। यह सब देखकर ऋषि रुद्रांश ने मुझसे कहा- महर्षि! यह झोपड़ी किसी सिद्धस्थल से भी बढ़कर है। इस पर मैंने अनुभव किया कि ऋषि रुद्रांश सम्पूर्ण सत्य कह रहे हैं।

मैंने कुछ क्षणों के बाद सुगना से पूछा- वत्स! तुम्हारी दिनचर्या क्या है? तुम काम क्या करते हो? उत्तर में उसने कहा- भगवन्! भगवान नारायण का स्मरण! उन्हीं में समर्पण, यही मेरी दिवसचर्या है, यही मेरी रात्रिचर्या है। रही काम की बात तो नर में नारायण का रूप देखकर उनकी सेवा का यत्न करता हूँ। पर सच तो यह है महर्षि! न तो मुझे कर्मफल की आकांक्षा है और न ही कर्मों में अभिरुचि। बस मैं अपने नारायण का यंत्र हूँ। मुझे ऐसा अनुभव होता है कि मैं कुछ नहीं करता, मेरे माध्यम से जो कुछ भी होता है, वह सब कुछ मेरे आराध्य भगवान नारायण ही करते हैं।’’ महर्षि विश्वामित्र की ये बातें सुनकर देवर्षि नारद उत्साहित हो गए और कहने लगे यही तो है भक्त की भक्ति का सही परिचय। यही मेरा अगला सूत्र भी है, जो मैं आप सबके सामने कह रहा हूँ-

‘यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति, ततो निर्द्वन्द्वो भवति’॥ ४८॥
जो कर्मफल का त्याग करता है, कर्मों का भी त्याग करता है और तब सब कुछ त्याग कर जो निर्द्वन्द्व हो जाता है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १९१

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