🔷 ऊपर बता आये हैं कि माँस में कुछ अत्यन्त क्लिष्ट (कांप्लेक्स) प्रोटीन होते हैं, प्रारम्भ में जब कोई नया-नया माँस खाना प्रारम्भ करता है, तब उसके पाचन संस्थान की पूर्व संचित शक्ति काम देती रहती है पर वह शीघ्र ही समाप्त हो जाती है, तब क्लिष्ट प्रोटीन (काम्प्लेक्स प्रोटीन) को सरल प्रोटीन (नार्मल प्रोटीन्स) बनाने के लिये किन्हीं विशेष द्रवों के लेने की आवश्यकता पड़ने लगती है, जो यह कार्य कर सकें। यह द्रव अल्कोहल या शराब होते हैं। शराब क्लिष्ट प्रोटीनों को रासायनिक क्रिया के द्वारा (बाई केमिकल रिएक्शन) प्रोटीन अम्ल रस में बदल देता है, इस प्रकार एक बुराई से दूसरी बुराई, दूसरी से तीसरी बुराई का जन्म होता चला जाता है।
🔶 इंग्लैंड और अमेरिका आदि प्रधान आमिषाहारी देशों में प्रायः 7 वर्ष की आयु से ही बच्चों को इसी कारण शराब देनी प्रारम्भ कर दी जाती है। अन्य माँसाहारी जातियों में भी शराब इसीलिये बहुतायत से पी जाती है। पाश्चात्य देशों में शराब (बीयर) जल की तरह एक आवश्यक पेय हो गया है। आहार की यह दोहरी दूषित प्रक्रिया वहाँ के जीवन को और भी दुःखद बनाती चली जा रही है।
🔷 माँसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शाँति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य माँसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।
🔶 मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख−ग्रस्त, पीड़ा और अशाँति−ग्रस्त कर रहा है, यही लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल−कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियाँ दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर माँसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिये हम सबको तैयार रहना चाहिये। माँस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा संभव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.28
🔶 इंग्लैंड और अमेरिका आदि प्रधान आमिषाहारी देशों में प्रायः 7 वर्ष की आयु से ही बच्चों को इसी कारण शराब देनी प्रारम्भ कर दी जाती है। अन्य माँसाहारी जातियों में भी शराब इसीलिये बहुतायत से पी जाती है। पाश्चात्य देशों में शराब (बीयर) जल की तरह एक आवश्यक पेय हो गया है। आहार की यह दोहरी दूषित प्रक्रिया वहाँ के जीवन को और भी दुःखद बनाती चली जा रही है।
🔷 माँसाहार से स्वास्थ्य की विकृति उतनी कष्टदायक नहीं है, जितना उसके द्वारा भावनाओं का अधःपतन और उसके फलस्वरूप उत्पन्न हुये दुष्परिणाम। मनुष्य परस्पर दया, करुणा और उदारता के सहारे जीवित और व्यवस्थित है। इन्हीं गुणों पर हमारी व्यक्तिगत पारिवारिक, सामाजिक और सम्पूर्ण विश्व की सुख-शाँति एवं सुरक्षा बनी हुई है। भले ही जानवरों पर सही जब मनुष्य माँसाहार के लिये वध और उत्पीड़न की नृशंसता बरतेगा तो उसकी भावनाओं में कठोरता, अनुदारता और नृशंसता के बीज पड़ेंगे और फलेंगे-फूलेंगे ही। कठोरता फिर पशु-पक्षियों तक थोड़े ही सीमित रहेगी, मनुष्य-मनुष्य के बीच भी उसका आदान-प्रदान होगा।
🔶 मानवीय भावना का यह अन्त ही आज पश्चिम को दुःख−ग्रस्त, पीड़ा और अशाँति−ग्रस्त कर रहा है, यही लहर पूर्व में भी दौड़ी चली आ रही है। वहाँ की तरह यहाँ भी हत्या, लूटमार, बेईमानी, छल−कपट, दुराव, दुष्टता, व्यभिचार आदि बढ़ रहे हैं और परिस्थितियाँ दोषी होंगी, यह हमें नहीं मालूम पर माँसाहार का पाप तो स्पष्ट है, जो हमारी कोमल भावनाओं को नष्ट करता और हमारे जीवन को दुःखान्त बनाता चला जा रहा है। समय रहते यदि हम सावधान हो जाते हैं तो धन्यवाद अपने आपको, अन्यथा सर्वनाश की विभीषिका के लिये हम सबको तैयार रहना चाहिये। माँस के लिये जीवात्माओं के वध का अपराध मनुष्य जाति को दण्ड दिये बिना छोड़ दे, ऐसा संभव नहीं, कदापि सम्भव नहीं।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 28
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.28