प्रतिकूलता से जूझे बिना जीवन के शस्त्र पर धार नहीं धरी जा सकती, चमक और पैनापन लाने के लिए उसे पत्थर पर घिसा ही जाता है। मनुष्य समर्थ, सबल और प्रखर बना रहे इसके लिए संघर्षरत रखने की सारी व्यवस्था प्रकृति ने कर रखी है। इसी व्यवस्था क्रम में एक भयंकर लगने वाली रोग कीटाणु संरचना भी है जो जीवन को मृत्यु में बदलने के लिए निरन्तर चुनौती देती रहती है।
मरण से भयभीत होकर आतुर लोग ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं क्षणों जितना अधिक आनन्द उठा लिया जाय उतना ही उत्तम है। वे इन्द्रिय लिप्सा एवं मनोविनोद के लिए अधिकाधिक साधन जुटाते हैं और उसके लिए जो भी उचित-अनुचित करना पड़े उसे करने में नहीं चूकते। यह उपभोग की आतुरता कई बार तो इतनी बढ़ी-चढ़ी ओर इतनी अदूरदर्शी होती है कि उपभोग का आरम्भ होते-होते विपत्ति का वज्र सिर पर टूट पड़ता है। अपराधियों और कुकर्मियों की दुर्गति होती आये दिन देखी जाती है।
जब तक जीना तब तक मौज से जीना-ऋण करके मद्य पीने वाली नास्तिकतावादी नीति मरण की भयंकरता के अनुरूप जीवन को भी भयानक बना लेने की मूर्खता करना है। असीम उपभोग चाहा गया और अप्रत्याशित संकट उभरा यह कहाँ की समझदारी हुई। उच्छृंखल भोगलिप्सा मन में उठने से लेकर तृप्ति का अवसर आने तक हर घड़ी आशंका, व्यग्रता, जुगुप्सा, चिन्ता की इतनी भयानकता अपने साथ जुड़ी रखती है कि उपभोग की तृप्ति बहुत भारी पड़ती है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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