गुरुवार, 9 जनवरी 2020

👉 नव निर्माण हेतु विभूतियों का आह्वान (भाग ३)

(३) कला मंच से भाव स्पन्दन-कला मंच में चित्र, मूर्तियाँ, नाटक, अभिनय, संगीत आदि आते हैं। संगीत विद्यालय हर जगह खुलें। ध्वनियाँ सीमित हो, बाजे भी सीमित हो, सरल संगीत के ऐसे पाठ्यक्रम हो, जो वर्षों में नहीं महीनों में सीखे जा सकें। प्रचण्ड प्रेरणा भरे गीतों का प्रचलन इन विद्यालयों द्वारा हो और हर्षोत्सवों पर प्रेरक गायनों की ही प्रधानता रहे। अग्नि गीतों की पुस्तिकाएँ सर्वत्र उपलब्ध रहें। संगीत सम्मेलन, संगीत गोष्ठियाँ, कीर्तन, प्रवचन, सहगान, क्रिया गान, नाटक, लोकनृत्य जैसे अगणित मंच मण्डप सर्वत्र बनें और वे लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें।

चित्र प्रकाशन अपने आप में एक बड़ा काम है। कैलेण्डर तथा दूसरे चित्र आजकल खूब छपते, बिकते है उनमें प्रेरक प्रसंगों को जोड़ा जा सके तो उससे जन-मानस को मोड़ने में भारी सहायता मिल सकती है। इसमें चित्रकारों से अधिक सहयोग चित्र प्रकाशकों का चाहिए। आदर्शवादी चित्र प्रकाशन की योजना हो, तो चित्रकार उस तरह की तस्वीरें और भी अधिक प्रसन्नतापूर्वक बना देंगे। यह कार्य ऐसे है जिनमें प्रतिभा, पूँजी, सूझबूझ और लगन का थोड़ा भी समन्वय हो जाय तो बिना किसी खतरे का सामना किये सहज ही आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

यंत्रीकरण के साथ कला का समन्वय होने से ग्रामोफोन रिकार्ड, टेप रिकार्डर तथा फिल्म सिनेमा के नये प्रभावशाली माध्यम सामने आये हैं। उनका सदुपयोग होना चाहिए। चित्र प्रदर्शनियों के उपयुक्त बड़े साइज के चित्र छपने चाहिए। रिकार्ड बनाने का कार्य योजनाबद्ध रूप से आगे बढ़ना चाहिए। यों शुरुआत दस रिकार्डों से की गई थी। पर अभी उसे सभी भाषाओं के लिए, सभी प्रयोजनों के लिए उपयुक्त बनाने में बड़ी शक्ति तथा पूँजी लगानी पड़ेगी। इसी प्रकार फिल्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। आँकड़े यह बताते हैं कि समाचार पत्र और रेडियो मिलकर जितने लोगों को सन्देश सुनाते है, उससे कहीं अधिक सन्देश अकेला सिनेमा पहुँचाता है। समाचार पत्रों के पाठकों और रेडियो सुनने वालों की मिली संख्या से भी सिनेमा देखने वालों की संख्या अधिक है। यदि यह उद्योग विवेकवान और दूरदर्शी हाथों में हो और वे उसका उपयोग जन-मानस को परिष्कृत करने तथा नवयुग के अनुरूप वातावरण बनाने में कर गुजरें तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकता है। जिनके हाथ में इन दिनों यह उद्योग है, उनका दृष्टिकोण बदला जाय तथा नये लोग नई पूँजी और नई लगन के साथ इस क्षेत्र में उतरें, तो इतना अधिक कार्य हो सकता है जिसकी कल्पना भी इस समय कठिन है।

.....क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 आध्यात्मिक दृष्टि

देह पर जो रुक जाय वह दृष्टि आध्यात्मिक नहीं हो सकती। दृष्टि में आध्यात्मिकता हो तो समझ में आता है कि शरीर कितना पारदर्शी है। सचमुच शरीर कितना ही ठोस क्यों न नजर आए पर आध्यात्मिक आँखों से वह कभी नहीं छिपता जो कि देह के पीछे है, प्राण और चेतना का आधार है।
  
हाँ आँखें ही न हों तो और बात है। आँखें न होने पर और चीजों की क्या कहें, सूरज तक नहीं दिखाई देता। सब खेल आँखों का है। विचार और तर्क से भला कोई प्रकाश को जानता है? वास्तविकता आँख की पूर्ति किसी अन्य साधन से नहीं हो सकती। प्रकाश के अनुभव के लिए आँख चाहिए। आत्मिक तत्त्व के अनुभव के लिए भी आँख चाहिए। चाहिए एक अन्तर्दृष्टि, सूक्ष्म दृष्टि, दूर दृष्टि जिसका समावेश आध्यात्मिक दृष्टि में है। यह है तो सब है। अन्यथा न प्रकाश है और न परमात्मा है।
  
बात अनुभव की है, यदि कोई दूसरे की देह के पार की सत्ता को देखना चाहे, उसे सबसे पहले अपनी पार्थिव सत्ता के पार झांकना होता है। जहाँ तक और जितना हम स्वयं की गहराई में झांक पाते हैं, वहीं तक अन्य देह, भी पारदर्शी हो पाती हैं। आध्यात्मिक दृष्टि जितनी परिष्कृत होती है, अनुभव भी उतने ही पारदर्शी हो जाते हैं।
  
जितनी दूर तक हम अपनी जड़ता में चैतन्य का अविष्कार कर पाते हैं, उतनी ही दूर तक हमारे लिए समस्त जड़ जगत् चैतन्य की चेतना से भर जाता है। और तब आता है यह अनुभव कि जो मैं हूँ उसी का विस्तार यह जगत् है। जिस दिन हम सम्पूर्ण समग्रता में अपने चैतन्य को जान लेते हैं, उसी दिन यह जगत् ब्रह्ममय हो जाता है।    इस क्षुद्र में कौन विराट् विद्यमान है? कौन है वह चैतन्य, जिसकी चेतना देह और जीवन का आधार है? इन प्रश्नों के हल आध्यात्मिक दृष्टि के बिना नहीं मिलते। जिस दृष्टि से ‘पर’ देखा जाता है, वही दृष्टि स्वयं को भी देखने में समर्थ है। बस केवल दृष्टि में आध्यात्मिकता का समोवश होना चाहिए। ऐसा होते ही घटित होती है- एक क्रान्ति। फिर जैसे कोई अवरुद्ध झरना फूट पड़े, ऐसे ही आध्यात्मिक अमृत की चैतन्य धारा जीवन से समस्त जड़ता के अंधेरे को बहा ले जाती है।

✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १५६

👉 FALLACIES ABOUT SCRIPTURAL RESTRICTIONS (Part 2)

Q.2. What is the truth in the belief that God Brahma, and rishis Vashistha and Vishwamitra had laid a curse (shaap) that success will elude the practitioner unless he/ she recites certain verses (shlokas)?

Ans. That this is baseless, is established by the following references from the scriptures:-   

a) Gayatri is well known as the inherent creative power of God. She is also at places referred metaphysically as spouse of God Brahma. Scriptures say that with the help of Gayatri, He (Brahma) created the universe and expounded the doctrines of Vedas (the four faces of Brahma symbolize the four streams of Vedic revelation).
b) Vashistha inflicted a crushing defeat on Vishwamitra with the help of Nandini- the symbolical cow which fulfils all wishes and is regarded as the counterpart of Kamdhenu of heaven (Swarg).   

c) To Vishwamitra goes the credit of untravelling the mystery of Gayatri. Not only he practised Gayatri for a very long period with strictest of self-discipline, and acquired immense occult powers therefrom, but also developed the expertise and methodology for invocation of divine powers through practice of Gayatri Sadhana.
  
From the aforesaid, it is evident that the great spiritual personalities of yore had used the power of Gayatri to fulfil their objectives. There is, therefore, no logic in assuming that they had cursed it and deprived other human beings of its fruits.
                  
It appears that the feudal lords of the medieval ages, propounded their independent cults and to establish their own doctrines found it necessary to discredit the traditional practice of Gayatri. The concocted story of ‘curse on Gayatri’  was the easiest and simplest way of striking at the roots of faith and confidence of the masses. This could have been one  reason behind this baseless assumption. Otherwise, who in this universe has the capability to put a curse on divine manifestations like the sun, clouds, air, lightening, the earth etc. Gayatri is, in essence, the primordial energy of the Almighty. Hence, all are free to utilize it without any restrictions or apprehensions whatsoever. At the most, the concept of the so-called “curse” may be symbolically indicative of the need for a Guru of the status of Vashistha and Vishwamitra, in absence of whom success eludes the worshipper.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 46

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