सोमवार, 9 नवंबर 2020

👉 उज्ज्वल भविष्य की आशा

जिनने आशा और उत्साह का स्वभाव बना लिया है वे उज्ज्वल भविष्य के उदीयमान सूर्य पर विश्वास करते हैं। ठीक है, कभी−कभी कोई बदली भी आ जाती है और धूप कुछ देर के लिए रुक भी जाती है पर बादलों के कारण क्या सूर्य सदा के लिए अस्त हो सकता है? असफलताऐं और बाधाऐं आते रहना स्वाभाविक है उनका जीवन में आते रहना वैसा ही है जैसा आकाश में धूप−छाँह की आँख मिचौली होते रहना। कठिनाइयाँ मनुष्य के पुरुषार्थ को जगाने और अधिक सावधानी के साथ आगे बढ़ने की चेतावनी देती जाती है। उनमें डरने की कोई बात नहीं। आज असफलता मिली है, आज प्रतिकूलता उपस्थित है, आज संकट का सामना करना पड़ रहा है तो कल भी वैसी ही स्थिति बनी रहेगी, ऐसा क्यों सोचा जाय? आशावादी व्यक्ति छोटी−मोटी असफलताओं की परवाह नहीं करते। वे रास्ता खोजते हैं और धैर्य, साहस, विवेक एवं पुरुषार्थ को मजबूती के साथ पकड़े रहते हैं क्योंकि आपत्ति के समय में साथ पकड़े रहते है क्योंकि आपत्ति के समय में यही चार सच्चे मित्र बताये गये हैं।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६४)

ॐकार को जाना, तो प्रभु को पहचाना
    
गोस्वामी जी महाराज ने अपनी मंत्रमय कृति रामचरित मानस में इस नाम महिमा की बड़ी विस्तृत विवेचना की है। बालकाण्ड के दोहा क्रमांक १८ से दोहा क्रमांक २७ तक इस प्रकरण को बड़े भक्तिपूर्ण ढंग से उकेरा गया है। २८ चौपाइयों का यह प्रसंग भक्तों के मन को सब भाँति मोहने वाला है। जिन्हें प्रभु के नाम की महिमा के यथार्थ के बारे में तुलसी बाबा की अनुभूति को जानने की जिज्ञासा है, उन्हें बालकाण्ड के नाम महिमा के प्रसंग को अवश्य पढ़ना चाहिए। हम तो यहाँ विस्तारभय के कारण तुलसी बाबा की केवल एक चौपाई को उद्धृत करना चाहेंगे। जिसमें वह कहते हैं-

अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा। 
अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरे मत बढ़ नाम दुहूँ ते। 
किए जेहिं जुग निजबस  बूते॥

अर्थात्- परम ब्रह्म परमेश्वर के दो ही स्वरूप है- निर्गुण और सगुण। प्रभु के ये दोनों ही रूप अकथनीय, अथाह, अनादि एवं अनुपम हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि  मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से ही बड़ा है। क्योंकि इसने अपने बल से दोनों को वश में कर रखा है। अर्थात् नाम साधना से प्रभु के दोनों रूपों का ज्ञान सहज ही हो जाता है।
    
प्रभु के पावन नाम के इस प्रसंग में ब्रह्मर्षि परम पूज्य गुरुदेव के अमृत वचनों का स्मरण हो रहा है। उन्होंने ये बातें अपनी निजी चर्चा में कही थीं। बात योग साधना की चल रही थी। गुरुदेव सदा की भाँति अपने पलंग पर बैठे थे। प्रश्नकर्त्ता उनके चरणों के समीप एक टाट के टुकड़े पर बैठा हुआ थ। उसने जिज्ञासा की कि वह प्रभावकारी योग साधना किस तरह से करे? इस  जिज्ञासा के समाधान में गुरुदेव ने कहा—बेटा! इन दिनों प्राण अन्तगत है। लोगों के दैनिक काम-काज का भी कोई ठीक नहीं है। कठिन, कठिन आसन, प्राणायाम, बन्ध मुद्राओं का अभ्यास करके ईश्वर तत्त्व की अनुभूति करना आज के दौर में सुलभ नहीं है।
    
शरीर चिकित्सा के लिए कुछ समय के लिए आसन-प्राणायाम या बन्ध, मुद्रा का अभ्यास करना अलग बात है और इन क्रियाओं से कुण्डलिनी जागरण, चक्रबेधन, सहस्रार सिद्धि एकदम अलग बात है। गुरुदेव बोले- ऐसा करने के चक्कर में ज्यादातर लोग रोगी हो जाते हैं। वायु कुपित होने के कारण उन्हें अनेकों शारीरिक, मानसिक परेशानियाँ घेर लेती हैं। तब फिर रास्ता क्या है गुरुदेव? पूछने वाले ने निराश स्वर में कहा। क्योंकि उसे गुरुदेव की बातों से लगने लगा था कि योग साधना के लिए वह सत्पात्र नहीं है। उसके लिए यह सब दूर की कौड़ी है। यह ऐसा आकाश कुसुम है, जिसे वह कभी भी नहीं पा सकता।
    
उसकी इस निराशा को तोड़ते हुए गुरुदेव बोले-  एक उपाय है बेटा! गुरुदेव के इन वचनों से प्रश्नकर्त्ता के निराश मन में आशा संजीवनी का संचार हुआ। उसने आतुरता से पूछा कौन सा? वह बोले- भगवान् के नाम का स्मरण। यह ऐसी साधना है, जिसे तुलसी, मीरा, सूर, रहीम, रसखान, कबीर, रैदास आदि अनगिनत भक्तों को योग सिद्धि प्राप्त हुई। नाम साधना के कारण ही उन्हें भगवान् का सहचर्य मिला। भगवान् उनके साथ रहे। सच तो यह है, नाम साधना से बड़ी कोई दूसरी साधना है ही नहीं। पर बहुतेरे लोग इसे आसान समझकर यूँ ही छोड़ देते हैं और उलटी-पलटी साधनाओं के चक्कर में उलझ कर बाद में मदद के लिए करुण पुकार करते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०९
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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