मंगलवार, 22 मार्च 2022

👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग १५

अपने सदगुणों को प्रकाश में लाइए

सद्गुणों की मनुष्य में कमी नहीं है, जिसे बुरा या दुर्गुणी कहते हैं वह बेशक देव श्रेणी के सुसंस्कृत मनुष्यों से सात्विक गुणों में पीछे है तो भी यथार्थ में ऐसी बात नहीं है, वह बिलकुल बुरा ही हो। निष्पक्ष रीति से यदि उसकी मनःस्थिति का परीक्षण किया जाए तो बुराइयों की ही अधिक मात्रा उसमें न मिलेगी। चौरासी लाख योनियों को पार करता हुआ जो प्राणी मुक्ति के अंतिम प्रवेश द्वार पर आ खड़ा हुआ है वह उतना घृणित नहीं हो सकता जितना कि समझा जाता है। जो विद्यार्थी एम० ए० के प्रथम वर्ष में है, कॉलेज की सर्वोच्च डिग्री प्राप्त करने में जिसे केवल एक ही वर्ष और लगाना शेष रह गया है, क्या आप उसे अशिक्षित, बेपढ़ा -लिखा कहेंगे? आवेश में चाहे जो कह सकते हैं पर शांत अवस्था में यह मानना पडेगा कि इतना अधिक परिश्रम करने के उपरांत इतनी कक्षाओं को उत्तीर्ण करता हुआ जो छात्र एम० ए० के प्रथम वर्ष में है वह पढ़ा है, विद्यावान है।
संभव है आप अपने को, दुर्गुणी अनुभव रहित, अल्पज्ञ, अशक्त या ऐसे ही अन्य दोषों युक्त समझते हैं, दूसरे लोग जब आपका मजाक उडाते हैं मूर्ख बताते हैं विश्वास नहीं करते, नाक- भौं सिकोड़ते है, सहयोग नहीं करते और बार-बार यह कहते हैं कि अभागे हैं, बेवकूफ हैं। नहीं, सदा असफल ही रहेंगे, तो संभव है कि आपका मन बैठ जाता हो और सोचते हों कि इतने लोगों का कहना क्या झूँठ थोडे ही होगा, हो सकता है कि मैं ऐसा ही होऊँ। पिछली अपनी दों-चार असफलताओं की ओर जब ध्यान जाता होगा और उन घटनाओं को लोगों के कथन से जोडकर देखते होंगे तो संभव है मन में यह बात और भी बैठ जाती हों कि हम अशक्त हैं, अल्प बुद्धि हैं, ' सद्गुणों से रहित हैं, हमें इस जीवन में कोई सफलता नहीं मिल सकती।
 
ऐसा भी है कि जब आत्मनिरीक्षण करने बैठते हैं तो विजातीय तत्त्वों पर ही पहले दृष्टि जाती है। किसी प्रीतिभोज में पाँच सौ सभ्य सज्जन उपस्थित हों और उसी में दो उजड्ड शामिल हो जाएँ तो देखने वालों का ध्यान उन उजड्डों की तरफ अधिक आकर्षित होगा। उनकी बेढंगी हरकतें बहुत बुरी लगेंगी, पाँच सौ सभ्य आदमियों की सज्जनता की ओर विशेष ध्यान न जाएगा पर उन दो की करतूतें स्मृति पटल पर गहरी जम जाएँगी। प्रीतिभोज में अनेक सुस्वादिष्ट सामान हों पर हलुआ में मिर्चें गिर पड़ने से उसका स्वाद बिगड़ गया हो तो अनेक सुस्वादिष्ट भोजनों का ध्यान आपको भले ही न रहे पर उस अटपटे हलुए को न भूलेंगे। जब कभी उस प्रीतिभोज का ध्यान आवेगा, उजड्ड आदमियों की हरकतें और मिर्च पड़ा हुआ हलुआ-यह दो बातें जरूर और सबसे पहले याद आवेंगी। शायद आप उन दो ही कारणों से उस भोजन को नापसंद करें। बुराइयों की अपेक्षा अच्छाइयाँ उसमें अधिक थीं, सभ्य आगंतुकों' की और स्वादिष्ट भोंजनों की संख्या अधिक थी तो भी थोडे विजातीय तत्त्वों का मिश्रण आपका ध्यान अधिक खींचने और बुरे निष्कर्ष पर पहुँचाने में समर्थ हो गया।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ २३

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👉 भक्तिगाथा (भाग ११७)

श्रेष्ठ ही नहीं, सुलभ भी है भक्ति

महात्मा सत्यधृति ने भक्त विमलतीर्थ की यह बात सुनाते हुए कहा- ‘‘उन परमभक्त की बात ने उन दिनों मुझमें नया विश्वास जगाया। मुझे उन्हें सुनकर उस समय ऐसा लगा था कि सब प्रकार की आध्यात्मिक अयोग्यताओं के बावजूद मैं भी भगवान की कृपा का अधिकारी बन सकता हूँ अन्यथा मैं तो स्वयं की ही सोच में डूबकर पूर्णतया निराश हो बैठा था। मुझे लगने लगा था कि जैसे मेरे लिए कोई आशा ही नहीं है लेकिन भक्त विमलतीर्थ ने मेरे अस्तित्त्व में अपनी बातों से नयी चेतना का संचार किया।’’

इतना कहते हुए सत्यधृति ने ब्रह्मर्षि वशिष्ठ आदि महर्षियों की ओर देखा और बोले- ‘‘हे ऋषिगण! मेरे पास अपना कहने जैसा तो कुछ नहीं है, लेकिन यदि आप अनुमति दें, तो उन परमभक्त की कही हुई बातें आप लोगों के सामने रखने का प्रयास करूँ?’’ ‘‘अवश्य महात्मन्!  हम सब अवश्य सुनना चाहेंगे।’’ ब्रह्मर्षि वसिष्ठ के इस कथन का सभी ने हृदय से अनुमोदन किया। पिछले दिनों से महात्मा सत्यधृति के मुख से उनकी भक्तिगाथा सुनते हुए सभी को उनसे एक विचित्र सी निजता हो गयी थी। उपस्थित सभी जनों को वे अपने स्वजन लगने लगे थे। भक्त विमलतीर्थ की बातों को सभी और अधिक सुनना चाहते थे।

सबकी इस उत्कण्ठा से महात्मा सत्यधृति को तो जैसे मनमांगी मुराद मिल गयी। उन्होंने बड़े मीठे स्वर में कहना शुरू किया- ‘‘भक्त विमलतीर्थ का कहना था- यदि पुण्य अथवा पाप प्रबल हो तो आध्यात्मिक साधनाएँ सम्भव नहीं बन पड़तीं क्योंकि पुण्य अपने परिणाम में सुख-समृद्धि के साथ इतने दायित्व ला देता है कि इनके चलते साधनाएँ सम्भव नहीं हो पातीं। इसी तरह पाप अपने परिणाम में विपदाओं के इतने झंझावात खड़े कर देता है कि आध्यात्मिक साधना के बारे में सोचना तक सम्भव नहीं हो पाता। इन दोनों ही स्थितियों में सम्भव और सुगम है- भगवान का स्मरण। इस स्मरण से पाप हो अथवा पुण्य, दोनों का कर्मभार हल्का होने लगता है।

भगवान का स्मरण जैसे-जैसे गहरा व प्रगाढ़ होता है, वैसे-वैसे भगवान के प्रति भाव गहरे होते जाते हैं और उनके मिलने की अभिलाषा भी तीव्र होने लगती है। यह तीव्र अभिलाषा जब विरह का रूप धारण करने लगे तो समझो कि अस्तित्त्व व अन्तःकरण में भक्ति का उदय हो गया। विरह की वेदना के साथ स्मरण व समर्पण दोनों ही गहरे हो जाते हैं। इनकी गहराई में जीवात्मा के पाप व पुण्य, दोनों ही गहरे डूब जाते हैं। जीवन समस्त कर्मभार से मुक्त होने लगता है। यह मार्ग सभी के लिए सुलभ है। इस सर्वसुलभ पथ पर कोई भी चल सकता है। जैसे-जैसे भक्त अपने भक्तिपथ पर चलता है, स्वयं भगवान आगे बढ़कर उसके अवरोध हटा देते हैं। फिर न कोई सम्पदा बाधा बनती है और न ही कोई आपदा। बस मन प्रभुनाम के मनन में लीन होता चला जाता है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २३२

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आध्यात्मिक शिक्षण क्या है? भाग 3

मित्रो! आध्यात्मिक व्यक्ति बनने के लिए पूजा की क्रिया करते- करते हम मर जाते हैं। यह आध्यात्मिक शिक्षण है। यह शिक्षण हमको सिखलाता है कि धूपबत्ती जलाने के साथ साथ में हमको यह विचार करना है कि यह हमारे भीतर प्रकाश उत्पन्न करती है। दीपक लेकर हम बैठ जाते हैं। दीपक जलता रहता है। रात में भगवान् को दिखाई न पड़े, बात कुछ समझ में आती है; लेकिन क्या दिन में भी दिखाई नहीं पड़ता? दिन में भगवान् के आगे दीपक जलाने की क्या जरूरत है? इसकी जरूरत नहीं है।

कौन कहता है कि दीपक जलाइए क्यों हमारा पैसा खर्च कराते हैं? क्यों हमारा घी खर्च कराते हैं। इससे हमारा भी कोई फायदा नहीं और आपका भी कोई फायदा नहीं। आपकी शक्ल हमको भी दिखाई पड़ रही है और बिना दीपक के भी हम आपको देख सकते हैं। आपकी आँखें भी बरकरार हैं; फिर क्यों दीपक जलाते हैं और क्यों पैसा खराब करवाते हैं?

मित्रो! सवाल इतना छोटा सा है, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत गूढ़ हैं। इसका सम्बन्ध भावनात्मक स्तर के विकास से है। दीपक प्रकाश का प्रतीक है। हमारे अंदर में प्रकाश और सारे विश्व में प्रकाश का यह प्रतीक है। अज्ञानता के अंधकार ने हमारे जीवन को आच्छादित कर लिया है। उल्लास और आनन्द से भरा हुआ, भगवान् की सम्पदाओं से भरा हुआ जीवन, जिसमें सब तरफ विनोद और हर्ष छाया रहता है; लेकिन हाय रे अज्ञान की कालिमा! तूने हमारे जीवन को कैसा कलुषित बना दिया? कैसा भ्रान्त बना दिया? स्वयं का सब कुछ होते हुए भी कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।

सब कुछ तो हमारे पास है, पर मालूम पड़ता है कि संसार में हम ही सबसे ज्यादा दरिद्र हैं। हमारे पास किसी चीज की कमी है क्या? हमारे मन की एक एक धारा ऐसी निकलती है कि हमको हँसी में बदल देती है; लेकिन हमको हर वक्त रूठे रहने का मौका, नाराज रहने का मौका, शिकायतें करने का मौका, छिद्रान्वेषण करने का मौका, देश घूमने का मौका, विदेश घूमने का मौका ही दिखाई देता है। सारा का सारा जीवन इसी अशांति में निकल गया।

क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: २२

चिंतन और चरित्र का समन्वय  

अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं वरन् हम स्वयं ही हैं। दूसरे व्यक्तियों,, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्तव्य का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं।

प्रभाव उनका नहीं पड़ता जो बकवास तो बहुत करते हैं पर स्वयं उस ढाँचे में ढलते नहीं। जिन्होंने चिंतन और चरित्र का समन्वय अपने जीवन क्रम में किया है, उनकी सेवा साधना सदा फलती- फूलती रहती है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक: २१

लगन और श्रम का महत्व   

लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है कि हमारे काम को देखकर आपको आश्चर्य होगा। इतना साहित्य लिखने से लेकर इतना बड़ा संगठन खड़ा करने तक और इतनी बड़ी क्रान्ति करने से लेकर इतने आश्रम बनाने तक जो काम शुरू किये हैं वे कैसे हो गए? यह लगन और श्रम है।

यदि हमने श्रम से जी चुराया होता तो उसी तरीके से घटिया आदमी होकर के रह जाते जैसे कि अपना पेट पालना ही जिनके लिए मुश्किल हो जाता है। चोरी से ,, ठगी से ,, चालाकी से जहॉं कहीं भी मिलता पेट भरने के लिए ,, कपड़े पहनने के लिए और अपना मौज- शौक पूरा करने के लिए पैसा इकट्ठा करते रहते पर हमारा यह बड़ा काम संभव न हो पाता।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 हारिय न हिम्मत दिनांक :: २०

भटकना मत   

लोभों के झोंके, मोहों के झोंके, नामवरी के झोंके, यश के झोंके, दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहॉं से कहॉं घसीट कर ले जाते हैं। हमको भी घसीट ले गये होते। ये सामान्य आदमियों को घसीट ले जाते हैं। बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले इन्हीं के कारण भटक कर कहॉं से कहॉं जा पहुँचे।

आप भटकना मत। आपको जब कभी भटकन आये तो आप अपने उस दिन की उस समय कीमन:स्थिति को याद कर लेना, जब कि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था। उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए उसमें कमी तो नहीं आ रही।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 आज का सद्चिंतन Aaj Ka Sadchintan 22 March 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग Prernadayak Prasang 22 March 2022


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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