बुधवार, 15 अप्रैल 2020
👉 "आंतरिक सामर्थ्य ही सांथ देगी"
एक दिन मैं किसी पहाड़ी से गुजर रहा था। एक बड़ा विशाल बरगद का पेड़ खड़ा तलहटी की शोभा बढ़ा रहा था। उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई संसार में कैसे कैसे सामर्थ्यवान् लोग हैं, ऐसे लोग दूसरों का कितना हित करते हैं। इस तरह सोचता हुआ मैं आगे बढ़ गया।
कुछ दिन बीते उसी रास्ते से पुनः लौटना हुआ। जब उस पहाड़ी पर पहुँचा तो वहाँ वट वृक्ष न देखकर बड़ा विस्मय हुआ। ग्रामवासियों से पूछने पर पता चला कि दो दिन पहले तेज तूफान आया था, वृक्ष उसी में उखड़ कर लुढ़क गया। मैंने पूछा - "भाई वृक्ष तो बहुत मजबूत था फिर वह उखड़ कैसे गया।” उन्होंने बताया- "उसकी विशालता दिखावा मात्र थी। भीतर से तो वह खोखला था। खोखले लोग हल्के आघात भी सहन नहीं कर सकते।”
"तब से मैं बराबर सोचा करता हूँ कि जो बाहर से बलवान्, किन्तु भीतर से दुर्बल हैं, ऐसे लोग संसार में औरों का हित तो क्या कर सकते हैं, वे स्वयं अपना ही अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख सकते। खोखले पेड़ की तरह एक ही झोंके में उखड़ कर गिर जाता है और फिर कभी ऊपर नहीं उठ पाता। जिसके पास भावनाओं का बल है, साहस की पूँजी है, जिसने मानसिक शक्तियों को, संसार की किसी भी परिस्थिति से मोर्चा लेने योग्य बना लिया है, उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ने में किसी प्रकार परेशानी अनुभव न होगी।
भीतर की शक्ति सूर्य की तेजस्विता के समान है जो घने बादलों को चीर कर भी अपनी शक्ति और अस्तित्व का परिचय देती है। हम में जब तक इस तरह की आन्तरिक शक्ति नहीं आयेगी, तब तक हम उस खोखले पेड़ की तरह ही उखड़ते रहेंगे, जो उस पहाड़ी पर उखड़ कर गिर पड़ा था।"
अखण्ड ज्योति मई, 1969
कुछ दिन बीते उसी रास्ते से पुनः लौटना हुआ। जब उस पहाड़ी पर पहुँचा तो वहाँ वट वृक्ष न देखकर बड़ा विस्मय हुआ। ग्रामवासियों से पूछने पर पता चला कि दो दिन पहले तेज तूफान आया था, वृक्ष उसी में उखड़ कर लुढ़क गया। मैंने पूछा - "भाई वृक्ष तो बहुत मजबूत था फिर वह उखड़ कैसे गया।” उन्होंने बताया- "उसकी विशालता दिखावा मात्र थी। भीतर से तो वह खोखला था। खोखले लोग हल्के आघात भी सहन नहीं कर सकते।”
"तब से मैं बराबर सोचा करता हूँ कि जो बाहर से बलवान्, किन्तु भीतर से दुर्बल हैं, ऐसे लोग संसार में औरों का हित तो क्या कर सकते हैं, वे स्वयं अपना ही अस्तित्व सुरक्षित नहीं रख सकते। खोखले पेड़ की तरह एक ही झोंके में उखड़ कर गिर जाता है और फिर कभी ऊपर नहीं उठ पाता। जिसके पास भावनाओं का बल है, साहस की पूँजी है, जिसने मानसिक शक्तियों को, संसार की किसी भी परिस्थिति से मोर्चा लेने योग्य बना लिया है, उसे विपरीत परिस्थितियों से लड़ने में किसी प्रकार परेशानी अनुभव न होगी।
भीतर की शक्ति सूर्य की तेजस्विता के समान है जो घने बादलों को चीर कर भी अपनी शक्ति और अस्तित्व का परिचय देती है। हम में जब तक इस तरह की आन्तरिक शक्ति नहीं आयेगी, तब तक हम उस खोखले पेड़ की तरह ही उखड़ते रहेंगे, जो उस पहाड़ी पर उखड़ कर गिर पड़ा था।"
अखण्ड ज्योति मई, 1969
👉 भारत अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा
इन दिनों दुनिया का विस्तार सिमट कर राजनीति के इर्द गिर्द जमा हो गया है। जिसके पास जितनी प्रचण्ड मारक शक्ति है वह अपने को उतना ही बलिष्ठ समझता है। जो जितना सम्पन्न और धूर्त है, वह अपनी शेखी उसी अनुपात से धारता है और अपने को सर्वसमर्थ घोषित करता है। इसी बलबूते वह छोटे देशों को डराता और फुसलाता भी है। यही क्रम इन दिनों चलता रहा है, किन्तु अगले दिनों यह सिलसिला न चल सकेगा। परिस्थितियां इस प्रकार करवटें लेंगी कि जो पिछले दिनों होता रहा है अगले दिनों उसके ठीक विपरीत घटित होगा। भविष्य में नैतिक शक्ति ही सबसे भारी पड़ेगी। आत्मबल और दैब बल जनसमुदाय को आकर्षित, प्रभावित एवं परिवर्तित करेगा। इस नयी शक्ति का उदय होते लोग पहली बार प्रत्यक्ष अनुभव करेंगे। यों प्राचीन काल में भी इसी क्षमता का मूर्धन्य प्रभाव रहा है।
बुद्ध, गान्धी ने कुछ ही समय पूर्व न केवल अपने देश को बदला था, वरन् विशाल भू भाग को नव चेतना से प्रभावित किया था। विवेकानन्द विचार परिवर्तन की महती पृष्ठभूमि बना कर गये थे। कौडिन्य ओर कुमारजीव एशिया के पूर्वांचल को झकझोर चुके थे। विश्वामित्र, भागीरथ, दधिचि, परशुराम, अगस्त्य, व्यास, वशिष्ठ जैसी प्रतिभाओं का तो कहना ही क्या, जिनने धरातल को चौंकाने वाले कृत्य प्रस्तुत किये थे। चाणक्य की राजनीति ने भारत को विश्व का मुकुटमणि बनाया था। देश को संभालने में तो अनेक प्रतापी सत्ताधीश और प्रतिभा के धनी मनीषी बहुत कुछ कर गुजर हैं।
समय आ गया है कि भारत अपनी भीतरी समस्याओं को हल करके रहेगा। अभी कितनी ही ऐसी समस्याऐं दीखती हैं जिनसे आशंका होती है कि कहीं अगले दिन विपत्ति से भरे हुए तो न होंगे। चिनगारियाँ दावानल बन कर तो न फूट पड़ेंगी। बाढ़ का पानी सिर से ऊपर होकर तो न निकल जायगा। ऐसी आशंकाएं करने वाले सभी लोगों को हम आश्वस्त करना चाहते हैं कि विनाश को विकास पर हावी न होने दिया जायगा। मार्ग में रोड़े भल ही अड़चनें उत्पन्न करती रहें, पर काफिला रुकेगा नहीं। वह उस लक्ष्य तक पहुँचेगा। जिससे विश्व को शान्ति से रहने और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। वह दिन दूर नहीं जब भारत अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा और वह एक एक करके विश्व उलझनों के निराकरण में अपनी दैवी विलक्षणता का चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर रहा होगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1987 पृष्ठ 58
बुद्ध, गान्धी ने कुछ ही समय पूर्व न केवल अपने देश को बदला था, वरन् विशाल भू भाग को नव चेतना से प्रभावित किया था। विवेकानन्द विचार परिवर्तन की महती पृष्ठभूमि बना कर गये थे। कौडिन्य ओर कुमारजीव एशिया के पूर्वांचल को झकझोर चुके थे। विश्वामित्र, भागीरथ, दधिचि, परशुराम, अगस्त्य, व्यास, वशिष्ठ जैसी प्रतिभाओं का तो कहना ही क्या, जिनने धरातल को चौंकाने वाले कृत्य प्रस्तुत किये थे। चाणक्य की राजनीति ने भारत को विश्व का मुकुटमणि बनाया था। देश को संभालने में तो अनेक प्रतापी सत्ताधीश और प्रतिभा के धनी मनीषी बहुत कुछ कर गुजर हैं।
समय आ गया है कि भारत अपनी भीतरी समस्याओं को हल करके रहेगा। अभी कितनी ही ऐसी समस्याऐं दीखती हैं जिनसे आशंका होती है कि कहीं अगले दिन विपत्ति से भरे हुए तो न होंगे। चिनगारियाँ दावानल बन कर तो न फूट पड़ेंगी। बाढ़ का पानी सिर से ऊपर होकर तो न निकल जायगा। ऐसी आशंकाएं करने वाले सभी लोगों को हम आश्वस्त करना चाहते हैं कि विनाश को विकास पर हावी न होने दिया जायगा। मार्ग में रोड़े भल ही अड़चनें उत्पन्न करती रहें, पर काफिला रुकेगा नहीं। वह उस लक्ष्य तक पहुँचेगा। जिससे विश्व को शान्ति से रहने और चैन की साँस लेने का अवसर मिल सके। वह दिन दूर नहीं जब भारत अग्रिम पंक्ति में खड़ा होगा और वह एक एक करके विश्व उलझनों के निराकरण में अपनी दैवी विलक्षणता का चमत्कारी सत्परिणाम प्रस्तुत कर रहा होगा।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1987 पृष्ठ 58
👉 आत्मचिंतन के क्षण 15 April 2020
अपने माता-पिता गुरुजनों आदि के साथ उन पर एहसान चढ़ाने वाली भाषा न बोलें।
जीवन में अनेक बार व्यक्तियों का आपस में टकराव हो जाता है। माता-पिता के साथ, गुरुजनों के साथ, मित्रों के साथ, पड़ोसियों के साथ, व्यापारियों और ग्राहकों के साथ इत्यादि , अनेक जगह पर टकराव हो जाता है। कभी-कभी यह टकराव, गलतियों के कारण होता है, और कभी-कभी एक दूसरे के व्यवहार को ठीक तरह से न समझने के कारण, भ्रांतियों से भी ऐसा टकराव हो जाता है।
यह टकराव हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, स्वाभाविक है। क्योंकि सभी लोग अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान् हैं। अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने के कारण अनेक बार भूल चूक हो जाती है। गलतियां हो जाती हैं। किसी भी व्यक्ति से हो सकती हैं। केवल परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो कभी गलती नहीं करता. उसे छोड़ कर सभी से कुछ न कुछ छोटी बड़ी गलतियां हो जाती हैं।
जब कभी ऐसी गलतियां हो जाएं, तो आपस में लड़ाई झगड़ा आरोप प्रत्यारोप इत्यादि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। विशेष रूप से अपने माता-पिता और गुरुजनों के साथ तो ऐसा झगड़ा कभी भी नहीं करना चाहिए।
चाहे आप प्रधानमंत्री पद पर भी क्यों न पहुंच जाएं, तब भी आप अपने माता-पिता के सामने तो छोटे ही रहेंगे। क्योंकि आपको उनके ही आशीर्वाद से सेवा से प्रशिक्षण से अनेक प्रकार के सहयोग से ऊंची ऊंची योग्यताएं प्राप्त हुई हैं। इसलिए उनके साथ सदा नम्रता का व्यवहार रखना चाहिए। जैसा कि आजकल हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी अपनी माता जी के चरण स्पर्श करते और उनका आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ रहे हैं। यह बात सबको मालूम है.
जब हम सब अल्पज्ञ हैं, गलतियाँ होनी संभव हैं, तो बड़ी नम्रता से अपनी गलतियाँ स्वीकार कर लेनी चाहिएँ, और समस्याओं को निपटा देना चाहिए। बड़े बुजुर्गों के साथ असभ्यतापूर्ण या एहसान चढ़ाने वाली भाषा न बोलें, कि मैंने आपके लिए यह काम किया, वह काम किया, और आपने मेरे साथ यह किया, यह ठीक नहीं किया इत्यादि। बड़ों के साथ ऐसा व्यवहार करना असभ्यता है। इस प्रकार की असभ्यता नहीं करनी चाहिए।
इसलिए कभी माता पिता या गुरुजनों के साथ टकराव हो भी जाए, तो उनके उपकारों को याद रखें, और उनके साथ नम्रता पूर्वक ही व्यवहार करें। गलतियाँ हो जाने पर आपस में मिल बैठकर शांति से उन्हें सुलझा लेना चाहिए। यदि आपस में न सुलझे, तो किसी अन्य बुद्धिमान परिवार के अनुभवी बुजुर्ग अथवा किसी विद्वान की सहायता से उस समस्या को सुलझा लेना चाहिए। इससे आपका परिवार संगठित व्यवस्थित सुखी और संपन्न बना रहेगा । अन्यथा आपका परिवार कुछ ही समय में आपसी भ्रांतियों के कारण नष्ट हो जाएगा
जीवन में अनेक बार व्यक्तियों का आपस में टकराव हो जाता है। माता-पिता के साथ, गुरुजनों के साथ, मित्रों के साथ, पड़ोसियों के साथ, व्यापारियों और ग्राहकों के साथ इत्यादि , अनेक जगह पर टकराव हो जाता है। कभी-कभी यह टकराव, गलतियों के कारण होता है, और कभी-कभी एक दूसरे के व्यवहार को ठीक तरह से न समझने के कारण, भ्रांतियों से भी ऐसा टकराव हो जाता है।
यह टकराव हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, स्वाभाविक है। क्योंकि सभी लोग अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान् हैं। अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने के कारण अनेक बार भूल चूक हो जाती है। गलतियां हो जाती हैं। किसी भी व्यक्ति से हो सकती हैं। केवल परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो कभी गलती नहीं करता. उसे छोड़ कर सभी से कुछ न कुछ छोटी बड़ी गलतियां हो जाती हैं।
जब कभी ऐसी गलतियां हो जाएं, तो आपस में लड़ाई झगड़ा आरोप प्रत्यारोप इत्यादि का व्यवहार नहीं करना चाहिए। विशेष रूप से अपने माता-पिता और गुरुजनों के साथ तो ऐसा झगड़ा कभी भी नहीं करना चाहिए।
चाहे आप प्रधानमंत्री पद पर भी क्यों न पहुंच जाएं, तब भी आप अपने माता-पिता के सामने तो छोटे ही रहेंगे। क्योंकि आपको उनके ही आशीर्वाद से सेवा से प्रशिक्षण से अनेक प्रकार के सहयोग से ऊंची ऊंची योग्यताएं प्राप्त हुई हैं। इसलिए उनके साथ सदा नम्रता का व्यवहार रखना चाहिए। जैसा कि आजकल हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी अपनी माता जी के चरण स्पर्श करते और उनका आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ रहे हैं। यह बात सबको मालूम है.
जब हम सब अल्पज्ञ हैं, गलतियाँ होनी संभव हैं, तो बड़ी नम्रता से अपनी गलतियाँ स्वीकार कर लेनी चाहिएँ, और समस्याओं को निपटा देना चाहिए। बड़े बुजुर्गों के साथ असभ्यतापूर्ण या एहसान चढ़ाने वाली भाषा न बोलें, कि मैंने आपके लिए यह काम किया, वह काम किया, और आपने मेरे साथ यह किया, यह ठीक नहीं किया इत्यादि। बड़ों के साथ ऐसा व्यवहार करना असभ्यता है। इस प्रकार की असभ्यता नहीं करनी चाहिए।
इसलिए कभी माता पिता या गुरुजनों के साथ टकराव हो भी जाए, तो उनके उपकारों को याद रखें, और उनके साथ नम्रता पूर्वक ही व्यवहार करें। गलतियाँ हो जाने पर आपस में मिल बैठकर शांति से उन्हें सुलझा लेना चाहिए। यदि आपस में न सुलझे, तो किसी अन्य बुद्धिमान परिवार के अनुभवी बुजुर्ग अथवा किसी विद्वान की सहायता से उस समस्या को सुलझा लेना चाहिए। इससे आपका परिवार संगठित व्यवस्थित सुखी और संपन्न बना रहेगा । अन्यथा आपका परिवार कुछ ही समय में आपसी भ्रांतियों के कारण नष्ट हो जाएगा
👉 पीड़ा और प्रार्थना
पीड़ा और प्रार्थना में गहरा सम्बन्ध है। पीड़ा का अनुभव सकारात्मक हो, दृष्टिकोंण रचनात्मक हो तो पीड़ा स्वतः ही प्रार्थना बन जाती है। ऐसा न हो तो हर पीड़ा- निषेध व नकारात्मक दृष्टिकोंण के जाल में उलझ-फँस कर कभी वैर बनती है तो कभी द्वेष बन जाती है। इतना ही नहीं, ज्यादातर दशाओं में यह वैर-द्वेष के साथ मन को सन्ताप देने वाला विषम-विषाद बन जाती है। जीवन को अवसन्न करने वाला अवसाद बन जाती है।
पीड़ा का अनुभव सकारात्मक होने का मतलब है अन्तर्मन में प्रभु प्रेम उपस्थित होना। भगवान् के मंगलमय विधान में गहरी आस्था होना। ऐसा हो तो जीवन की पीड़ाएँ-दर्द का उन्माद जगाने की बजाय प्रार्थना को जन्म देती हैं। ऐसी स्थिति में पीड़ा जितनी गहरी होती है, प्रार्थना उतनी ही घनीभूत होती जाती है। पीड़ा के क्षणों में मन स्वाभाविक रूप से भगवान् के समीप सरकने लगता है। सच तो यह है कि यदि पीड़ा दर्द है, तो प्रार्थना उसकी दवा है।
पीड़ा और प्रार्थना का यही मिलन तप है। तपश्चर्या का अर्थ धूप में खड़ा हो जाना नहीं है, न भूखे रहकर उपवास करना है। तपश्चर्या का सही अर्थ जीवन के पीड़ादायक क्षणों में भगवान् के भाव भरे स्मरण, सर्वस्व समर्पण व उनमें ही लीन होना है। यथार्थ तप है- जीवन के खालीपन की पीड़ा को उसकी समग्रता में अनुभव करना, जीवन की अर्थहीनता को उसकी पूरी त्वरा में अनुभव करना। जीवन की यह बेकार भागदौड़ जिसको अभी बड़ी उपयोगी समझते हैं, यदि अचानक यह निरर्थक लगने लगे तो बड़ी घबराहट होगी। गहरी पीड़ा पनपेगी। इस पीड़ा को झेलने का नाम, इसे भगवान् के प्रेम व स्मरण तथा समर्पण में भीग कर सहने का नाम है तपश्चर्या। पीड़ा व प्रार्थना का अद्भुत मिलन, जिसके भी जीवन में आता है, उसका जीवन स्वाभाविक ही रूपान्तरित हो जाता है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१५
पीड़ा का अनुभव सकारात्मक होने का मतलब है अन्तर्मन में प्रभु प्रेम उपस्थित होना। भगवान् के मंगलमय विधान में गहरी आस्था होना। ऐसा हो तो जीवन की पीड़ाएँ-दर्द का उन्माद जगाने की बजाय प्रार्थना को जन्म देती हैं। ऐसी स्थिति में पीड़ा जितनी गहरी होती है, प्रार्थना उतनी ही घनीभूत होती जाती है। पीड़ा के क्षणों में मन स्वाभाविक रूप से भगवान् के समीप सरकने लगता है। सच तो यह है कि यदि पीड़ा दर्द है, तो प्रार्थना उसकी दवा है।
पीड़ा और प्रार्थना का यही मिलन तप है। तपश्चर्या का अर्थ धूप में खड़ा हो जाना नहीं है, न भूखे रहकर उपवास करना है। तपश्चर्या का सही अर्थ जीवन के पीड़ादायक क्षणों में भगवान् के भाव भरे स्मरण, सर्वस्व समर्पण व उनमें ही लीन होना है। यथार्थ तप है- जीवन के खालीपन की पीड़ा को उसकी समग्रता में अनुभव करना, जीवन की अर्थहीनता को उसकी पूरी त्वरा में अनुभव करना। जीवन की यह बेकार भागदौड़ जिसको अभी बड़ी उपयोगी समझते हैं, यदि अचानक यह निरर्थक लगने लगे तो बड़ी घबराहट होगी। गहरी पीड़ा पनपेगी। इस पीड़ा को झेलने का नाम, इसे भगवान् के प्रेम व स्मरण तथा समर्पण में भीग कर सहने का नाम है तपश्चर्या। पीड़ा व प्रार्थना का अद्भुत मिलन, जिसके भी जीवन में आता है, उसका जीवन स्वाभाविक ही रूपान्तरित हो जाता है।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ २१५
👉 Darkness to Light
Truth! Truth!! Truth!!! What a force and impact this word carries that even uttering this word seems to sooth the tongue, thought of it itself gives some light to the mind and feeling of it rejuvenates the heart. The transition from falsehood to truth is an ascent from filthy mire to pious skies, a transmutation from beastly instincts, devilish darkness to divine virtues and eternal light.
Truth is absolute, eternal. God is Truth, the Soul is Truth, God’s creation of Nature is Truth; Truth is Omnipresent. It is the ultimate goal of life; truth is the ceaseless perennial quest of the individual self, for which it takes birth, life after life, Age after Age… This life is bestowed upon us as yet another opportunity to realize the ultimate truth and savor the nectar of infinite bliss.
It is pitiable that we remain ignorant of this fact that – what we think of the world around (and die hunting for the mirage of joy in it) is not true; it is nothing but the image of our own perception. Once you understand this fact, you will turn towards truth. You will become a follower of Truth; it will be your ideal; an integral part of your character. “Truth” will then show you the divine radiance of your inner self.
If every word, every deed of yours is truthful, the world will truthfully honor you and you will inspire many others towards its noble path. The Vedic teaching reminds all of us to follows the path of truth – “Asato Ma Sadgamaya”, as this is the only source of auspicious welfare of all…
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1942
Truth is absolute, eternal. God is Truth, the Soul is Truth, God’s creation of Nature is Truth; Truth is Omnipresent. It is the ultimate goal of life; truth is the ceaseless perennial quest of the individual self, for which it takes birth, life after life, Age after Age… This life is bestowed upon us as yet another opportunity to realize the ultimate truth and savor the nectar of infinite bliss.
It is pitiable that we remain ignorant of this fact that – what we think of the world around (and die hunting for the mirage of joy in it) is not true; it is nothing but the image of our own perception. Once you understand this fact, you will turn towards truth. You will become a follower of Truth; it will be your ideal; an integral part of your character. “Truth” will then show you the divine radiance of your inner self.
If every word, every deed of yours is truthful, the world will truthfully honor you and you will inspire many others towards its noble path. The Vedic teaching reminds all of us to follows the path of truth – “Asato Ma Sadgamaya”, as this is the only source of auspicious welfare of all…
📖 Akhand Jyoti, Jan. 1942
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