शनिवार, 18 दिसंबर 2021

👉 गलती स्वयं सुधारें

एक बार गुरू आत्मानंद ने अपने चार शिष्यों को एक पाठ पढाया। पाठ पढाने के बाद वह अपने शिष्यों से बोले - “अब तुम चारों इस पाठ का स्वाध्ययन कर इसे याद करो। इस बीच यह ध्यान रखना कि तुममें से कोई बोले नहीं। एक घंटे बाद मैं तुमसे इस पाठ के बारे में बात करुँगा।“

यह कह कर गुरू आत्मानंद वहाँ से चले गए। उनके जाने के बाद चारों शिष्य बैठ कर पाठ का अध्ययन करने लगे। अचानक बादल घिर आए और वर्षा की संभावना दिखने लगी।

यह देख कर एक शिष्य बोला- “लगता है तेज बारिश होगी।“

ये सुन कर दूसरा शिष्य बोला - “तुम्हें बोलना नहीं चाहिये था। गुरू जी ने मना किया था। तुमने गुरू जी की आज्ञा भंग कर दी।“

तभी तीसरा शिष्य भी बोल पड़ा- “तुम भी तो बोल रहे हो।“

इस तरह तीन शिष्य बोल पड़े, अब सिर्फ चौथा शिष्य बचा वो कुछ भी न बोला। चुपचाप पढ़ता रहा।

एक घंटे बाद गुरू जी लौट आए। उन्हें देखते ही एक शिष्य बोला- “गुरूजी ! यह मौन नहीं रहा, बोल दिया।“

दुसरा बोला - “तो तुम कहाँ मौन थे, तुम भी तो बोले थे।“

तीसरा बोला - “इन दोनों ने बोलकर आपकी आज्ञा भंग कर दी।“

ये सुन पहले वाले दोनों फिर बोले - “तो तुम कौन सा मौन थे, तुम भी तो हमारे साथ बोले थे।“

चौथा शिष्य अब भी चुप था।

यह देख गुरू जी बोले - “मतलब तो ये हुआ कि तुम तीनों ही बोल पड़े । बस ये चौथा शिष्य ही चुप रहा। अर्थात सिर्फ इसी ने मेरी शिक्षा ग्रहण की और मेरी बात का अनुसरण किया। यह निश्चय ही आगे योग्य आदमी बनेगा। परंतु तुम तीनों पर मुझे संदेह है। एक तो तुम तीनों ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया; और वह भी एक-दूसरे की गलती बताने के लिये। और ऐसा करने में तुम सब ने स्वयं की गलती पर ध्यान न दिया।

आमतौर पर सभी लोग ऐसा ही करते हैं। दूसरों को गलत बताने और साबित करने की कोशिश में स्वयं कब गलती कर बैठते हैं। उन्हें इसका एहसास भी नहीं होता। यह सुनकर तीनो शिष्य लज्जित हो गये। उन्होंने अपनी भूल स्वीकार की, गुरू जी से क्षमा माँगी और स्वयं को सुधारने का वचन दिया।

👉 स्वामी विवेकानन्द के विचार

मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्न्त बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना -- इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।

नीतिपरायण तथा साहसी बनो, अन्त: करण पूर्णतया शुध्द रहना चाहिए। पूर्ण नीतिपरायण तथा साहसी बनो  प्रणों के लिए भी कभी न डरो। कायर लोग ही पापाचरण करते हैं, वीर पुरूष कभी भी पापानुष्ठान नहीं करते -- यहाँ तक कि कभी वे मन में भी पाप का विचार नहीं लाते। प्राणिमात्र से प्रेम करने का प्रयास करो।

बच्चो, तुम्हारे लिए नीतिपरायणता तथा साहस को छोडकर और कोई दूसरा धर्म नहीं।इसके सिवाय और कोई धार्मिक मत-मतान्तर तुम्हारे लिए नहीं है। कायरता, पाप्,असदाचरण तथा दुर्बलता तुममें एकदम नहीं रहनी चाहिए, बाक़ी आवश्यकीय वस्तुएँ अपने आप आकर उपस्थित होंगी।

शक्तिमान, उठो तथा सामर्थ्यशाली बनो। कर्म, निरन्तर कर्म; संघर्ष , निरन्तर संघर्ष! अलमिति। पवित्र और निःस्वार्थी बनने की कोशिश करो सारा धर्म इसी में है।

.... समाप्त
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1965 पृष्ठ १७

👉 भक्तिगाथा (भाग ९३)

सर्वथा त्याज्य है दुःसंग

मेरी स्वयं की कथा तो उस समय की है जब मैं किशोरवय में था। बचपन से ही आश्रम के निवास एवं भगवद्भक्त महापुरूष के सुपास की वजह से मन स्वभावतः संस्कारी एवं शान्त था फिर भी जन्मों के दुष्कृत बीज कहीं गहरे मन में होते हैं, जो समयानुसार काल प्रवाह में उदित एवं अंकुरित होते रहते हैं। ऐसा ही कुछ मेरे साथ हुआ। मेरे आश्रम के अधिष्ठाता आचार्य मुझे आश्रम में अकेला छोड़कर तीर्थयात्रा के लिए चले गए। आश्रम के अन्य भक्त एवं शिष्य भी उनके साथ हो लिए। बस मैं अकेला ही रह गया। मैंने अपने पूज्य आचार्य से बहुतेरी विनती की, परन्तु उन्होंने मेरी एक न मानी। बहुत आग्रह करने पर उन्होंने केवल इतना कहा, कभी-कभी जीवन में परीक्षा की घड़ियाँ आती हैं, जिनसे अकेले ही गुजरना पड़ता है। तुम्हारे लिए भी यह समय परीक्षा का है। इसे सफलतापूर्वक उत्तीर्ण करो। इतना कहकर उन्होंने मेरे सिर पर आशीष का हाथ रखा और प्रस्थान कर गए।

उनके जाने के कुछ समय बाद एक प्रतिष्ठित व्यवसायी आश्रम पधारे। उनके साथ उनके साथी-संगी भी थे। वह व्यवसायी अपने साथ ऐश्वर्य-विलास के सम्पूर्ण साधन लेकर आए थे। ऐसे साधन जिनकी आश्रम जीवन में, साधना जीवन में कोई उपयोगिता न थी। मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की, पर उन्हें कुछ भी समझ में न आया। उल्टे उन्होंने मुझे समझा दिया कि अभी तुम्हारी आयु कम है, इसी के साथ जीवन की समझ भी कम है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि इतनी कम आयु में भला यह वैराग्य लेने की क्या तुक है। सांझ के समय उन्होंने मुझको अपने आवासीय शिविर में बुलाया और जीवन की अपनी समझ में समझदारी की बातें बतायीं। इतना ही नहीं बातों में उन्होंने यह भी कह डाला कि उनके ऐश्वर्यशाली परिवार में कोई उत्तराधिकारी नहीं है, बस एक विवाहयोग्य कन्या है जिसके लिए वे योग्य वर की तलाश कर रहे हैं।

उनकी इन बातों ने मेरे मन में हलचल मचा दी। मन में एक साथ अनेकों हिलोरें उठीं। तरंगित मन शान्त न हो सका। प्रातः भी नित्य की भांति प्रभु का नाम संकीर्तन न कर सका। इसी अन्यमनस्कता में मैंने बाहर विचरण कर रहे एक साधु के प्रभाती के स्वर सुने-

हंसा मानसरोवर भूला
सनी पंक में चोंच
हो गए उजले पंख मटमैले
कंकर चुनने लगा वही जो
मोती चुगता था पहले
क्षर में ऐसा क्या सम्मोहन
जो तू अक्षर भूला?
कमल नाल से बिछुड़
कांस के सूखे तिनके जोड़े
अवगुंठित कलियों के धोखे
कुंठित शूल बटोरे
पर में ऐसा क्या आकर्षण
जो तू परमेश्वर को भूला?
नीर-क्षीर की दिव्य दृष्टि में
अन्य वासना जागी
चंचलता का परम प्रतीक बन गया
स्थिरता का अनुरागी
क्षण को अर्पित हुआ
साधना का मन्वन्तर भूला
हंसा मानसरोवर भूला
हंसा तू मानसरोवर भूला।
भ्रमण कर रहे साधु के इस प्रभाती गीत ने मुझे झकझोरा तो सही, परन्तु सम्पूर्ण चेत न हो सका। सम्भवतः दुःसंग के और भी परिणाम आने अभी शेष थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १७७

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