बुधवार, 6 सितंबर 2023

👉 जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ (अन्तिम भाग)

यह तथ्य हजार बार समझा और लाख बार समझाया जाना चाहिए कि जीवन का परम श्रेयस्कर और शान्तिदायक उत्कर्ष आस्थाओं के परिष्कार- चिन्तन के निखार एवं गतिविधियों के सुधार पर निर्भर है। जीवन इन्हीं तीन धाराओं में प्रवाहित होता है। शक्ति के स्रोत इन्हीं में भरे पड़े हैं और अद्भुत उपलब्धियाँ उन्हीं में से उद्भूत होती हैं। इन्हें किस आधार पर सुधारा, सँभाला जाय इसकी एक विशिष्ट पद्धति है जिसे साधना कहते हैं। साधना का अर्थ है अपने अन्तरंग और बहिरंग को उच्चस्तर तक उठा ले चलना। इसे जीवन का अभिनव निर्माण एवं व्यक्तित्व का काया-कल्प भी कह सकते हैं। बोलचाल की भाषा में इसे योगाभ्यास तपश्चर्या कहते हैं।

चेतना का उच्चस्तरीय प्रशिक्षण देने को योग समझा जाय। क्रिया-कलाप में सुव्यवस्था का आरोपण तप माना जाय। इसके लिए कई तरह के प्रयोगात्मक अभ्यास करने पड़ते हैं। पहलवान बनने के लिए अखाड़े में जाकर छोटी-छोटी कसरतों का सिलसिला शुरू करना पड़ता है। कसरतों की खिलवाड़ और दंगल में कुश्ती पछाड़ कर यशस्वी होना दो अलग स्थितियाँ हैं, पर दोनों का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। बीज का बोने का शुभारम्भ कालान्तर में विशाल वृक्ष बनकर सामने आता है।

पूजा-उपासना और स्वाध्याय मनन जैसे उपचार बीजारोपण की तरह हैं जो खाद पानी, निराई, गुड़ाई, रखवाली आदि की चिरकाल तक अपेक्षा करते हैं और समयानुसार कल्प-वृक्ष बनकर मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनाते हैं। आन्तरिक दृष्टि से आनन्द विभोर और बहिरंग दृष्टि से श्रद्धा का पात्र बना हुआ भूदेव यह अनुभव करता है कि आत्म-विज्ञान ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ और संसार का सबसे बड़ा लाभ है।

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✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 5


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