सोमवार, 6 मार्च 2017
👉 दलदल से निकाल कर दिखाई थी राह
🔴 सन् १९७१ई. में मैंने गायत्री महामंत्र की दीक्षा तो ले ली, पर दीक्षा के समय परम पूज्य गुरुदेव के दर्शन नहीं हो सके। उन दिनों वे हिमालय प्रवास में थे। अगले साल हिमालय से वापस आने के बाद उनके दर्शन का सौभाग्य मिला।
🔵 दीक्षा के पाँच वर्षों बाद एक बार फिर शांतिकुंज पहुँचा, एक विशेष साधना सत्र में शामिल होने के लिए। सत्र शुरू होने के पहले जब मैं गुरुदेव को प्रणाम करने गया तो देखा कि पंक्ति में पहले से ही काफी लोग खड़े थे। मैं सोचने लगा कि ऐसी परिस्थिति में कुछ व्यक्तिगत बातें करना चाहूँ, तो कैसे करूँ।
🔴 जब मैं पूज्य गुरुदेव के सम्मुख पहुँचा तो मुझे एक नजर देखकर ही मेरी मनःस्थिति समझ गए। स्नेहिल स्वर में पूछा- अकेले में बात करना चाहते हो? मैंने सिर हिलाते हुए हामी भरी। उन्होंने कहा- तुम मुझसे अकेले में मिलकर जो कुछ कहना चाहते हो वह सब मैं सुन चुका हूँ। चिन्ता मत करो। तुम्हारा काम हो जायेगा। पर क्या तुम मेरा काम करोगे?
🔵 खुशी के मारे मैं कुछ बोल नहीं सका। मैंने उसी क्षण मन ही मन संकल्प लिया कि पूज्य गुरुदेव की आज्ञा का पालन जीवन भर करता रहूँगा। तभी से मिशन का काम कर रहा हूँ। बात सन् १९८१ ई. की है। सुपौल से लगभग ७- ८ कि.मी. की दूरी पर एक गाँव है- गोरामानसिंह। वहाँ के मुखिया ने गायत्री महायज्ञ के आयोजन का आग्रह किया था। मेरे घर पर जब महायज्ञ के लिए दिन, समय आदि तय हो रहा था, तो मैंने रास्ते के बारे में पूछा।
🔴 आसपास के गाँव में यज्ञ कराने मैं प्रायः साइकिल से जाया करता था, इसलिए यह भी जानना चाहा कि बीच में कोई नदी तो नहीं है। लेकिन उनका ध्यान इस तरफ लगा हुआ था कि यज्ञ में कैसे क्या तैयारियाँ करनी होंगी, इसलिए नदी की बात उनके ध्यान से उतर गई। मैं भी बातचीत के प्रवाह में नदी के बारे में दुबारा पूछना भूल गया और मुखिया जी कार्यक्रम तय करके वापस चले गए।
🔵 मैं निर्धारित तिथि के एक दिन पूर्व घर से चला। पर रास्ते में ही शाम हो गई। सूर्यास्त के बाद आवाजाही कुछ कम पड़ने लगी। शाम के कुछ और गहरा जाने के बाद रास्ता सुनसान पड़ गया। आगे की बस्ती में कच्ची सड़क के किनारे कुछ लोग खड़े- खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। उन्होंने मुझे रोककर पूछा- कहाँ तक जाना है पंडित जी? मैंने कहा- गोरामानसिंह।
🔴 गाँव का नाम सुनते ही उनमें से एक बोल पड़ा- पंडित जी, गोरामानसिंह तो यहाँ से बहुत दूर है। आगे का इलाका भी ठीक नहीं है। रास्ते में कहीं लूट- पाट, छीना- झपटी करने वालों से सामना हो जाए, तो क्या करेंगे? अच्छा यही होगा कि आप हमारे यहाँ ही रात्रि विश्राम कर लें। पर मुझे तो पूज्य गुरुदेव के काम से जाना था, उन सबको समझा बुझाकर, धन्यवाद देकर आगे बढ़ चला।
🔵 आगे चलकर एक गाँव मिला- रजवा। वहाँ पहुँचकर देखा सामने एक बड़ी- सी नदी है। नदी के किनारे पहुँचकर देखा एक नाव लगी है। मैंने इधर- उधर नजर दौड़ाई। दाहिनी ओर थोड़ी ही दूरी पर घुटने भर की धोती पहने एक ग्रामीण खड़ा था। मैंने पास जाकर पूछा- यह नाव किसकी है?
🔴 उसने कहा- नाव तो मेरी ही है। कहिए, क्या बात है?
🔵 मैं बोला- भैया, मुझे गोरामानसिंह जाना है। क्या आप मुझे नदी के उस पार पहुँचा देंगे? उसने लापरवाही से जवाब दिया- इतने कम पानी में नाव नहीं चल पाएगी, उतरकर पार होना पड़ेगा। मैं गुरुदेव का नाम लेकर साइकिल के साथ ही नदी में उतर गया। पानी कमर से कुछ ही ऊपर तक था, लेकिन फिर भी साइकिल आगे बढ़ाने के लिए काफी जोर लगाना पड़ रहा था।
🔴 अभी नदी का चौथाई हिस्सा ही पार कर सका था कि एक- एक कर मेरे दोनों पैर दलदल में जा धँसे। बाहर निकलने के लिए जितना ही जोर लगाता था, उतना ही अन्दर धँसता चला जा रहा था। जब जाँघ तक का हिस्सा कीचड़ में धँस गया तो मेरी हिम्मत जवाब देने लगी। भयाक्रान्त मन भी यह मान चुका था कि अब किसी भी पल मेरी जीवन लीला समाप्त हो सकती है।
🔵 व्यक्ति को अपने जीवन के अन्तिम क्षण में किस प्रकार की अनुभूति होती है, इसका आभास मुझे उन पलों में होने लग गया था। सारे शरीर में जैसे बिजली सी कौंध गई थी। पिछला पूरा जीवन एकबारगी आँखों के आगे नाच उठा। कितने सारे काम पड़े हैं- मेरे मर जाने के बाद उन छोटे- छोटे बच्चों का क्या होगा?
🔴 हताशा के इस दौर में पूज्य गुरुदेव की बात याद आयी। उन्होंने कहा था कि वे हमेशा हमारे आगे पीछे रहेंगे, विपत्तियों से हमारी रक्षा करेंगे। दूसरे पल मन में यह विचार उठा कि संत स्वभाव के हैं, इसलिए दिलासा दे दिया होगा। अब इतनी दूर वे बचाव के लिए कैसे आ सकते हैं?
🔵 कीचड़ अब कमर से ऊपर आ चुका था। तभी दो लोग दूर से आते दिखाई पड़े। उनमें से एक ने ऊँची आवाज में पूछा- सुनो भाई, क्या तुम किसी खतरे में पड़े हो? मैंने जोर- जोर से हाथ हिलाते हुए कहा- जी हाँ भाईसाहब! मैं भयानक दलदल में फँस गया हूँ। कृपा करके मुझे बचा लीजिए।
🔴 मेरी बात सुनकर वह अपने साथी को पीछे छोड़कर तेजी से दौड़ पड़ा। पास पहुँचकर उसने एक हाथ से लगभग पूरी तरह से डूब चुकी साइकिल थामी और दूसरे हाथ से मुझे एक ही झटके में कीचड़ से बाहर निकालकर किनारे की ओर बढ़ चला।
🔵 ऊपर से दुबले- पतले दिखने वाले उस आदमी की अन्दरूनी ताकत देखकर मैं मन ही मन उसकी प्रशंसा कर रहा था। किनारे पर पहुँचकर मैंने उसे हृदय से धन्यवाद दिया। थोड़ी देर बाद मेरे सहज होने पर उसने पूछा- कहाँ से आए हैं...कहाँ जाना है...क्या काम है...?
🔴 मैंने उसे बताया कि मुझे गोरामानसिंह के मुखिया जी के यहाँ यज्ञ कराने जाना है। उसने कहा- चलिए, मैं आपको वहाँ तक छोड़ देता हूँ।
🔵 वह अपने मित्र के साथ आगे- आगे चल रहा था। उनके पीछे- पीछे चलते हुए मैंने जिज्ञासावश जब उनका परिचय पूछा तो मेरी जीवन रक्षा करने वाले ने अपना और अपने गाँव का नाम बताकर कहा कि उसका गाँव गोरामानसिंह के पास ही है। रास्ते भर इधर- उधर की बातें करते हुए आखिरकार हम लोग गोरामानसिंह पहुँच गए। एक बड़े से मकान के पास पहुँचकर वे दोनों रुके और उँगली से इशारा करते हुए कहा, यही मुखिया जी का घर है। अब आप हमें आज्ञा दीजिए। कृतज्ञता के भाव से भरकर मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूँगा। आप दोनों कल के यज्ञ में आएँगे, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। उन्होंने सहमति सूचक मुद्रा में गर्दन हिलायी और आगे बढ़ चले।
🔴 मैं मुखिया जी के घर की ओर बढ़ा। मुखिया जी अपने दालान पर बैठे मेरी ही राह देख रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने उठकर मेरा स्वागत करते हुए कहा- मैं शाम से ही आपकी राह देख रहा था। रास्ते में कहीं कोई दिक्कत तो नहीं हुई? उनका इतना पूछना भर था कि मैं बोल पड़ा- मैं तो आज मरते- मरते बचा हूँ मुखिया जी।
🔵 मुखिया जी ने अचकचाकर पूछा- क्यों क्या हुआ? मैंने भयानक दलदल से उबरने का अपना सारा वृत्तान्त एक ही साँस में कह सुनाया। मुझे बचाने वाले उस व्यक्ति का तथा उसके गाँव का नाम सुनकर मुखिया जी चौंक पड़े।
🔴 उन्होंने कहा- यहाँ न तो इस नाम का कोई गाँव ही है और न आसपास के गाँव में ऐसा कोई आदमी। मुखिया जी को इस बात पर भी घोर आश्चर्य हो रहा था कि उस व्यक्ति से मेरी सारी बातचीत हिन्दी में होती रही। जब मुखिया जी ने मुझे यह बताया कि आसपास के किसी भी गाँव में एक भी व्यक्ति खड़ी बोली का जानकार नहीं है, तो मेरे भी आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
🔵 सोचने की मुद्रा में मेरी आँखें बन्द हो गईं। मुझे लगा कि सामने परम पूज्य गुरुदेव खड़े हैं। मन्द- मन्द मुस्कराते हुए कह रहे हैं- तुम जहाँ भी जाते हो मैं तुम्हारे आगे- पीछे मौजूद रहता हूँ। आगे से अनजान राहों पर कुसमय में मत चला करना। भाव लोक में विचरण करते हुए गुरुदेव की इस प्यार भरी झिड़की से मेरी आँखें नम होती चली गईं।
🌹 चन्द्र किशोर सिंह आरा बगीचा, मुंगेर (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/dal.1
🔵 दीक्षा के पाँच वर्षों बाद एक बार फिर शांतिकुंज पहुँचा, एक विशेष साधना सत्र में शामिल होने के लिए। सत्र शुरू होने के पहले जब मैं गुरुदेव को प्रणाम करने गया तो देखा कि पंक्ति में पहले से ही काफी लोग खड़े थे। मैं सोचने लगा कि ऐसी परिस्थिति में कुछ व्यक्तिगत बातें करना चाहूँ, तो कैसे करूँ।
🔴 जब मैं पूज्य गुरुदेव के सम्मुख पहुँचा तो मुझे एक नजर देखकर ही मेरी मनःस्थिति समझ गए। स्नेहिल स्वर में पूछा- अकेले में बात करना चाहते हो? मैंने सिर हिलाते हुए हामी भरी। उन्होंने कहा- तुम मुझसे अकेले में मिलकर जो कुछ कहना चाहते हो वह सब मैं सुन चुका हूँ। चिन्ता मत करो। तुम्हारा काम हो जायेगा। पर क्या तुम मेरा काम करोगे?
🔵 खुशी के मारे मैं कुछ बोल नहीं सका। मैंने उसी क्षण मन ही मन संकल्प लिया कि पूज्य गुरुदेव की आज्ञा का पालन जीवन भर करता रहूँगा। तभी से मिशन का काम कर रहा हूँ। बात सन् १९८१ ई. की है। सुपौल से लगभग ७- ८ कि.मी. की दूरी पर एक गाँव है- गोरामानसिंह। वहाँ के मुखिया ने गायत्री महायज्ञ के आयोजन का आग्रह किया था। मेरे घर पर जब महायज्ञ के लिए दिन, समय आदि तय हो रहा था, तो मैंने रास्ते के बारे में पूछा।
🔴 आसपास के गाँव में यज्ञ कराने मैं प्रायः साइकिल से जाया करता था, इसलिए यह भी जानना चाहा कि बीच में कोई नदी तो नहीं है। लेकिन उनका ध्यान इस तरफ लगा हुआ था कि यज्ञ में कैसे क्या तैयारियाँ करनी होंगी, इसलिए नदी की बात उनके ध्यान से उतर गई। मैं भी बातचीत के प्रवाह में नदी के बारे में दुबारा पूछना भूल गया और मुखिया जी कार्यक्रम तय करके वापस चले गए।
🔵 मैं निर्धारित तिथि के एक दिन पूर्व घर से चला। पर रास्ते में ही शाम हो गई। सूर्यास्त के बाद आवाजाही कुछ कम पड़ने लगी। शाम के कुछ और गहरा जाने के बाद रास्ता सुनसान पड़ गया। आगे की बस्ती में कच्ची सड़क के किनारे कुछ लोग खड़े- खड़े आपस में बातचीत कर रहे थे। उन्होंने मुझे रोककर पूछा- कहाँ तक जाना है पंडित जी? मैंने कहा- गोरामानसिंह।
🔴 गाँव का नाम सुनते ही उनमें से एक बोल पड़ा- पंडित जी, गोरामानसिंह तो यहाँ से बहुत दूर है। आगे का इलाका भी ठीक नहीं है। रास्ते में कहीं लूट- पाट, छीना- झपटी करने वालों से सामना हो जाए, तो क्या करेंगे? अच्छा यही होगा कि आप हमारे यहाँ ही रात्रि विश्राम कर लें। पर मुझे तो पूज्य गुरुदेव के काम से जाना था, उन सबको समझा बुझाकर, धन्यवाद देकर आगे बढ़ चला।
🔵 आगे चलकर एक गाँव मिला- रजवा। वहाँ पहुँचकर देखा सामने एक बड़ी- सी नदी है। नदी के किनारे पहुँचकर देखा एक नाव लगी है। मैंने इधर- उधर नजर दौड़ाई। दाहिनी ओर थोड़ी ही दूरी पर घुटने भर की धोती पहने एक ग्रामीण खड़ा था। मैंने पास जाकर पूछा- यह नाव किसकी है?
🔴 उसने कहा- नाव तो मेरी ही है। कहिए, क्या बात है?
🔵 मैं बोला- भैया, मुझे गोरामानसिंह जाना है। क्या आप मुझे नदी के उस पार पहुँचा देंगे? उसने लापरवाही से जवाब दिया- इतने कम पानी में नाव नहीं चल पाएगी, उतरकर पार होना पड़ेगा। मैं गुरुदेव का नाम लेकर साइकिल के साथ ही नदी में उतर गया। पानी कमर से कुछ ही ऊपर तक था, लेकिन फिर भी साइकिल आगे बढ़ाने के लिए काफी जोर लगाना पड़ रहा था।
🔴 अभी नदी का चौथाई हिस्सा ही पार कर सका था कि एक- एक कर मेरे दोनों पैर दलदल में जा धँसे। बाहर निकलने के लिए जितना ही जोर लगाता था, उतना ही अन्दर धँसता चला जा रहा था। जब जाँघ तक का हिस्सा कीचड़ में धँस गया तो मेरी हिम्मत जवाब देने लगी। भयाक्रान्त मन भी यह मान चुका था कि अब किसी भी पल मेरी जीवन लीला समाप्त हो सकती है।
🔵 व्यक्ति को अपने जीवन के अन्तिम क्षण में किस प्रकार की अनुभूति होती है, इसका आभास मुझे उन पलों में होने लग गया था। सारे शरीर में जैसे बिजली सी कौंध गई थी। पिछला पूरा जीवन एकबारगी आँखों के आगे नाच उठा। कितने सारे काम पड़े हैं- मेरे मर जाने के बाद उन छोटे- छोटे बच्चों का क्या होगा?
🔴 हताशा के इस दौर में पूज्य गुरुदेव की बात याद आयी। उन्होंने कहा था कि वे हमेशा हमारे आगे पीछे रहेंगे, विपत्तियों से हमारी रक्षा करेंगे। दूसरे पल मन में यह विचार उठा कि संत स्वभाव के हैं, इसलिए दिलासा दे दिया होगा। अब इतनी दूर वे बचाव के लिए कैसे आ सकते हैं?
🔵 कीचड़ अब कमर से ऊपर आ चुका था। तभी दो लोग दूर से आते दिखाई पड़े। उनमें से एक ने ऊँची आवाज में पूछा- सुनो भाई, क्या तुम किसी खतरे में पड़े हो? मैंने जोर- जोर से हाथ हिलाते हुए कहा- जी हाँ भाईसाहब! मैं भयानक दलदल में फँस गया हूँ। कृपा करके मुझे बचा लीजिए।
🔴 मेरी बात सुनकर वह अपने साथी को पीछे छोड़कर तेजी से दौड़ पड़ा। पास पहुँचकर उसने एक हाथ से लगभग पूरी तरह से डूब चुकी साइकिल थामी और दूसरे हाथ से मुझे एक ही झटके में कीचड़ से बाहर निकालकर किनारे की ओर बढ़ चला।
🔵 ऊपर से दुबले- पतले दिखने वाले उस आदमी की अन्दरूनी ताकत देखकर मैं मन ही मन उसकी प्रशंसा कर रहा था। किनारे पर पहुँचकर मैंने उसे हृदय से धन्यवाद दिया। थोड़ी देर बाद मेरे सहज होने पर उसने पूछा- कहाँ से आए हैं...कहाँ जाना है...क्या काम है...?
🔴 मैंने उसे बताया कि मुझे गोरामानसिंह के मुखिया जी के यहाँ यज्ञ कराने जाना है। उसने कहा- चलिए, मैं आपको वहाँ तक छोड़ देता हूँ।
🔵 वह अपने मित्र के साथ आगे- आगे चल रहा था। उनके पीछे- पीछे चलते हुए मैंने जिज्ञासावश जब उनका परिचय पूछा तो मेरी जीवन रक्षा करने वाले ने अपना और अपने गाँव का नाम बताकर कहा कि उसका गाँव गोरामानसिंह के पास ही है। रास्ते भर इधर- उधर की बातें करते हुए आखिरकार हम लोग गोरामानसिंह पहुँच गए। एक बड़े से मकान के पास पहुँचकर वे दोनों रुके और उँगली से इशारा करते हुए कहा, यही मुखिया जी का घर है। अब आप हमें आज्ञा दीजिए। कृतज्ञता के भाव से भरकर मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा- आपका यह उपकार मैं कभी नहीं भूलूँगा। आप दोनों कल के यज्ञ में आएँगे, तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी। उन्होंने सहमति सूचक मुद्रा में गर्दन हिलायी और आगे बढ़ चले।
🔴 मैं मुखिया जी के घर की ओर बढ़ा। मुखिया जी अपने दालान पर बैठे मेरी ही राह देख रहे थे। मुझे देखते ही उन्होंने उठकर मेरा स्वागत करते हुए कहा- मैं शाम से ही आपकी राह देख रहा था। रास्ते में कहीं कोई दिक्कत तो नहीं हुई? उनका इतना पूछना भर था कि मैं बोल पड़ा- मैं तो आज मरते- मरते बचा हूँ मुखिया जी।
🔵 मुखिया जी ने अचकचाकर पूछा- क्यों क्या हुआ? मैंने भयानक दलदल से उबरने का अपना सारा वृत्तान्त एक ही साँस में कह सुनाया। मुझे बचाने वाले उस व्यक्ति का तथा उसके गाँव का नाम सुनकर मुखिया जी चौंक पड़े।
🔴 उन्होंने कहा- यहाँ न तो इस नाम का कोई गाँव ही है और न आसपास के गाँव में ऐसा कोई आदमी। मुखिया जी को इस बात पर भी घोर आश्चर्य हो रहा था कि उस व्यक्ति से मेरी सारी बातचीत हिन्दी में होती रही। जब मुखिया जी ने मुझे यह बताया कि आसपास के किसी भी गाँव में एक भी व्यक्ति खड़ी बोली का जानकार नहीं है, तो मेरे भी आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।
🔵 सोचने की मुद्रा में मेरी आँखें बन्द हो गईं। मुझे लगा कि सामने परम पूज्य गुरुदेव खड़े हैं। मन्द- मन्द मुस्कराते हुए कह रहे हैं- तुम जहाँ भी जाते हो मैं तुम्हारे आगे- पीछे मौजूद रहता हूँ। आगे से अनजान राहों पर कुसमय में मत चला करना। भाव लोक में विचरण करते हुए गुरुदेव की इस प्यार भरी झिड़की से मेरी आँखें नम होती चली गईं।
🌹 चन्द्र किशोर सिंह आरा बगीचा, मुंगेर (बिहार)
🌹 अदभुत, आश्चर्यजनक किन्तु सत्य पुस्तक से
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Wonderful/dal.1
👉 महाकाल का प्रतिभाओं को आमंत्रण (भाग 14)
🌹 प्रतिभा से बढ़कर और कोई समर्थता है नहीं
🔴 हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे। भयभीत सुग्रीव के लिए दो वन आगन्तुकों का भेद लेने के लिए वे वेष बदलकर राम-लक्ष्मण के पास गए थे और सिर नवाकर विनम्रतापूर्वक पूछ-ताछ कर रहे थे। पर बाद में स्थिति बदली, सीता की खोज के लिए राम को हनुमान की जरूरत पड़ी। अनुरोध उन्होंने स्वीकारा तो बदले में इतनी सामर्थ्य के धनी बन गए, जो उनकी मौलिक विशेषताओं में सम्मिलित नहीं थी। समुद्र छलांगने, लङ्का को जलाने, पर्वत उखाड़कर लाने जैसे असाधारण काम थे, जो उन्होंने अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करके सम्पन्न किये।
🔵 ईश्वर के लिए आड़े समय में काम आने वाले को भी ऐसे ही उपहार-अनुदान मिलते हैं। विभीषण को लङ्का का सम्राट् बनने का सुयोग मिला। सुग्रीव ने अपना खोया राज्य पाया। भगवान के काम के लिए देवपुत्र माँगने वाली कुन्ती को उत्कृष्ट स्तर के पुत्र रत्न देने में उन्होंने आना-कानी नहीं की। भक्ति का प्रचार करने वाले नारद देवर्षि कहलाए। सूर-तुलसी ने ईश्वर के काम के लिए प्रतिज्ञारत होकर ऐसी प्रतिभा पाई, जिसके सहारे वे अनन्त कीर्ति पा सकने के अधिकारी बने।
🔴 इन दिनों स्रष्टा ने ही विश्व-कल्याण के लिए, नवसृजन के लिए कर्मवीरों को पुकारा है। जो उस हेतु हाथ बढ़ाएँगे, वे खाली क्यों रहेंगे? भगीरथ, गाँधी, बुद्ध आदि को जो समर्थता मिली, वह इसलिए मिली कि परमार्थ प्रयोजन के काम आए।
🔵 इस दुनियाँ में ऐसी भी सुविधा है कि जब-तब बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ बिना मूल्य भी मिल जाती हैं। हवा, पानी, छाया, खुशबू आदि हम बिना मूल्य ही पाते हैं; पर जौहरी या हलवाई की दुकान पर सुसज्जित रखी हुई वस्तुएँ उठाकर चल देने का कोई नियम नहीं है। उनका मूल्य चुकाना पड़ता है। गाय को घास न खिलाई जाए, तो दूध प्राप्त करते रहना कठिन है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 हनुमान, सुग्रीव के सुरक्षा कर्मचारी थे। भयभीत सुग्रीव के लिए दो वन आगन्तुकों का भेद लेने के लिए वे वेष बदलकर राम-लक्ष्मण के पास गए थे और सिर नवाकर विनम्रतापूर्वक पूछ-ताछ कर रहे थे। पर बाद में स्थिति बदली, सीता की खोज के लिए राम को हनुमान की जरूरत पड़ी। अनुरोध उन्होंने स्वीकारा तो बदले में इतनी सामर्थ्य के धनी बन गए, जो उनकी मौलिक विशेषताओं में सम्मिलित नहीं थी। समुद्र छलांगने, लङ्का को जलाने, पर्वत उखाड़कर लाने जैसे असाधारण काम थे, जो उन्होंने अतिरिक्त शक्ति प्राप्त करके सम्पन्न किये।
🔵 ईश्वर के लिए आड़े समय में काम आने वाले को भी ऐसे ही उपहार-अनुदान मिलते हैं। विभीषण को लङ्का का सम्राट् बनने का सुयोग मिला। सुग्रीव ने अपना खोया राज्य पाया। भगवान के काम के लिए देवपुत्र माँगने वाली कुन्ती को उत्कृष्ट स्तर के पुत्र रत्न देने में उन्होंने आना-कानी नहीं की। भक्ति का प्रचार करने वाले नारद देवर्षि कहलाए। सूर-तुलसी ने ईश्वर के काम के लिए प्रतिज्ञारत होकर ऐसी प्रतिभा पाई, जिसके सहारे वे अनन्त कीर्ति पा सकने के अधिकारी बने।
🔴 इन दिनों स्रष्टा ने ही विश्व-कल्याण के लिए, नवसृजन के लिए कर्मवीरों को पुकारा है। जो उस हेतु हाथ बढ़ाएँगे, वे खाली क्यों रहेंगे? भगीरथ, गाँधी, बुद्ध आदि को जो समर्थता मिली, वह इसलिए मिली कि परमार्थ प्रयोजन के काम आए।
🔵 इस दुनियाँ में ऐसी भी सुविधा है कि जब-तब बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ बिना मूल्य भी मिल जाती हैं। हवा, पानी, छाया, खुशबू आदि हम बिना मूल्य ही पाते हैं; पर जौहरी या हलवाई की दुकान पर सुसज्जित रखी हुई वस्तुएँ उठाकर चल देने का कोई नियम नहीं है। उनका मूल्य चुकाना पड़ता है। गाय को घास न खिलाई जाए, तो दूध प्राप्त करते रहना कठिन है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 पति की नाव पत्नी ने खेई
🔵 श्री जगदीश चंद्र बसु कलकत्ता यूनिवर्सिटी में विज्ञान के अध्यापक नियुक्त किए गए। अभी तक ऐसा सम्मान किसी भी भारतीय को उपलब्ध नहीं हुआ था। इसलिए श्री जगदीशचंद्र बसु को भारतीय बडा भाग्यशाली मानते थे।
🔴 कुछ दिन पीछे पदोन्नति का समय आया। श्री बसु को पदोन्नत कर दिया गया, पर अब वे जिस पद पर पहुँचे, उस पर पहले से काम कर रहे अंग्रेज पदाधिकारी की अपेक्षा उन्हें वेतन कम दिया गया। जहाँ अन्य संबंधियों ने उन्हें इस बात की उपेक्षा करने की सलाह दी वहीं श्री जगदीश चंद्र बसु ने इसे अपने स्वाभिमान पर आघात माना और तब तक वेतन लेने से इनकार कर दिया जब तक कि उनका स्वयं का वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर नहीं कर दिया जाता। इस तरह का सत्याग्रह करते हुये भी अध्यापन कार्य नहीं छोड़ा। आजीविका का स्रोत बंद हो जाने के कारण घर-खर्च की तंगी आ गई। उनकी धर्म पत्नी ने ऐसे गाढ़े समय पति के स्वाभिमान को चोट न आने देने व उनको किसी प्रकार कष्ट न होने देने में पूर्ण तत्परता बरती।
🔵 उन दिनो में हुगली नदी पर पुल नहीं बना था। कालेज जाने के मार्ग में हुगली पडती थी, उसे पार करने में आठ आने देने पडते थे। इस तरह के कई अनावश्यक खर्च जिन्हें उनकी धर्म पत्नी ने बचा लिया, पर इस खर्च को रोक सकना कठिन था।
🔴 कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तब श्रीमती अवला वसु ने अपने एक मांगलिक आभूषण को बाजार में बेचकर एक छोटी नाव खरीद ली। उस दिन से वह स्वयं नदी तक उनके साथ जाती। नाव में बैठकर पार पहुँचा आती और वापसी घर अपना काम-काज करती। सांयकाल फिर ठीक समय वे नाव लेकर पहुंच जाती और श्री बसु को उसमें बैठाकर साथ लेकर आती। सरकार को इस बात का पता चला तो उसने यह लिखते हुए-"जिसकी ऐसी निष्ठावान् पत्नी हो उसका वेतन नहीं रोका जा सकता।" उनका वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर कर दिया और अपनी पराजय मान ली।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 67, 68
🔴 कुछ दिन पीछे पदोन्नति का समय आया। श्री बसु को पदोन्नत कर दिया गया, पर अब वे जिस पद पर पहुँचे, उस पर पहले से काम कर रहे अंग्रेज पदाधिकारी की अपेक्षा उन्हें वेतन कम दिया गया। जहाँ अन्य संबंधियों ने उन्हें इस बात की उपेक्षा करने की सलाह दी वहीं श्री जगदीश चंद्र बसु ने इसे अपने स्वाभिमान पर आघात माना और तब तक वेतन लेने से इनकार कर दिया जब तक कि उनका स्वयं का वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर नहीं कर दिया जाता। इस तरह का सत्याग्रह करते हुये भी अध्यापन कार्य नहीं छोड़ा। आजीविका का स्रोत बंद हो जाने के कारण घर-खर्च की तंगी आ गई। उनकी धर्म पत्नी ने ऐसे गाढ़े समय पति के स्वाभिमान को चोट न आने देने व उनको किसी प्रकार कष्ट न होने देने में पूर्ण तत्परता बरती।
🔵 उन दिनो में हुगली नदी पर पुल नहीं बना था। कालेज जाने के मार्ग में हुगली पडती थी, उसे पार करने में आठ आने देने पडते थे। इस तरह के कई अनावश्यक खर्च जिन्हें उनकी धर्म पत्नी ने बचा लिया, पर इस खर्च को रोक सकना कठिन था।
🔴 कोई उपाय नहीं सूझ रहा था, तब श्रीमती अवला वसु ने अपने एक मांगलिक आभूषण को बाजार में बेचकर एक छोटी नाव खरीद ली। उस दिन से वह स्वयं नदी तक उनके साथ जाती। नाव में बैठकर पार पहुँचा आती और वापसी घर अपना काम-काज करती। सांयकाल फिर ठीक समय वे नाव लेकर पहुंच जाती और श्री बसु को उसमें बैठाकर साथ लेकर आती। सरकार को इस बात का पता चला तो उसने यह लिखते हुए-"जिसकी ऐसी निष्ठावान् पत्नी हो उसका वेतन नहीं रोका जा सकता।" उनका वेतन अंग्रेज पदाधिकारी के बराबर कर दिया और अपनी पराजय मान ली।
🌹 ~पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🌹 संस्मरण जो भुलाए न जा सकेंगे पृष्ठ 67, 68
👉 वास्तविक अध्यात्म क्या है?
🔴 किसी भी व्यक्ति की आत्मिक प्रगति कितनी हुई, इसका निर्धारण उसके कथन-पठन-श्रवण-भजन की बहिरंग क्रिया-प्रक्रिया के आधार पर नहीं किया जा सकता। इन उपचारों को कोई भी विद्याव्यसनी या कौतुकी भी करता रह सकता है। व्यक्तित्व की गरिमा का मूल्यांकन करने के लिए दो प्रकार की जाँच करनी पड़ती है। एक है व्यक्तिगत ललक लिप्साओं में, महत्त्वकांक्षाओं में कटौती। इसी को संयम-साधना या तपश्चर्या कहते हैं। दूसरी है न्यूनतम में निर्वाह के उपरान्त बची हुई श्रम, क्षमता, बुद्धि, सम्पदा और साधन-सामग्री को सत्प्रवृत्ति, संवर्धन के लिए नियोजित करने की ललक-लगन व निष्ठा भरी तत्परता। अन्तःकरण के स्तर को उदात्त बनाने में इससे कम में काम चल ही नहीं सकता। इतना बन पड़े तो फिर अन्य उपचारों की आवश्यकता शोभा-सज्जा जितनी भर रह जाती है।
🔵 अध्यात्म एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है, मात्र उपचार नहीं, जिसमें क्रिया-कृत्यों के आधार पर समय क्षेप करने पर, कर्मकाण्ड आदि करने पर कुछ उपलब्धियाँ हस्तगत होती बतायी जाती हैं। ये कर्मकाण्ड तो एक प्रकार के मनोवैज्ञानिक दबाव है, जिनके कारण दृष्टिकोण बदलने, आदतें सुधारने के आधार पर चेतना को अधिकाधिक परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। जो लोग पूजा पत्री की लकीर भर पीटते रहते हैं, वे भीतर से निराशा एवं मन में नास्तिकता ही संजोये रहते हैं। कुछ कहने योग्य हाथ नहीं लगता एवं व्यक्तित्व के परिमापन के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है कि वस्तुतः अध्यात्म इनके जीवन में उतरा नहीं।
🔴 यह समझा जाना चाहिए कि वास्तविक अध्यात्म जब आन्तरिक सफलताओं का पथ प्रशस्त करता है, तो साधक को सम्पन्न नहीं, सुसंस्कृत बनाता है। सम्पत्तिपरक वैभव का भार घटता है और उच्चस्तरीय पराक्रम उभरता है। इतिहास साक्षी है कि आत्मचेतना के विकास ने किसी को सम्पन्न नहीं बनाया वरन् समृद्धि को आदर्शों के लिए समर्पित करने एवं स्वयं हल्का-फुल्का रहने के लिए बाधित किया है।
🔵 महामानवों ने सदा से ही गरीबी का स्वेच्छा से वरण किया है और सञ्चित वैभव का उदारतापूर्वक उस प्रयोजन के निमित्त समर्पण किया है। वास्तविक अध्यात्म यही है जो महत्वाकांक्षाओं की लिप्साओं की कटौती करना सिखाता है, जिससे लोक मंगल की भगवद् उपासना करने के लिए अपना सब कुछ नियोजित हो सके। यह मर्म समझ में आ जाने पर यथार्थता की सम्पदा पा लेने पर, आत्मिक प्रगति के पथ पर चल पड़ने में किसी को संशय नहीं करना चाहिए।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 21
🔵 अध्यात्म एक उच्चस्तरीय पुरुषार्थ है, मात्र उपचार नहीं, जिसमें क्रिया-कृत्यों के आधार पर समय क्षेप करने पर, कर्मकाण्ड आदि करने पर कुछ उपलब्धियाँ हस्तगत होती बतायी जाती हैं। ये कर्मकाण्ड तो एक प्रकार के मनोवैज्ञानिक दबाव है, जिनके कारण दृष्टिकोण बदलने, आदतें सुधारने के आधार पर चेतना को अधिकाधिक परिष्कृत बनने का अवसर मिलता है। जो लोग पूजा पत्री की लकीर भर पीटते रहते हैं, वे भीतर से निराशा एवं मन में नास्तिकता ही संजोये रहते हैं। कुछ कहने योग्य हाथ नहीं लगता एवं व्यक्तित्व के परिमापन के रूप में दृष्टिगोचर होने लगता है कि वस्तुतः अध्यात्म इनके जीवन में उतरा नहीं।
🔴 यह समझा जाना चाहिए कि वास्तविक अध्यात्म जब आन्तरिक सफलताओं का पथ प्रशस्त करता है, तो साधक को सम्पन्न नहीं, सुसंस्कृत बनाता है। सम्पत्तिपरक वैभव का भार घटता है और उच्चस्तरीय पराक्रम उभरता है। इतिहास साक्षी है कि आत्मचेतना के विकास ने किसी को सम्पन्न नहीं बनाया वरन् समृद्धि को आदर्शों के लिए समर्पित करने एवं स्वयं हल्का-फुल्का रहने के लिए बाधित किया है।
🔵 महामानवों ने सदा से ही गरीबी का स्वेच्छा से वरण किया है और सञ्चित वैभव का उदारतापूर्वक उस प्रयोजन के निमित्त समर्पण किया है। वास्तविक अध्यात्म यही है जो महत्वाकांक्षाओं की लिप्साओं की कटौती करना सिखाता है, जिससे लोक मंगल की भगवद् उपासना करने के लिए अपना सब कुछ नियोजित हो सके। यह मर्म समझ में आ जाने पर यथार्थता की सम्पदा पा लेने पर, आत्मिक प्रगति के पथ पर चल पड़ने में किसी को संशय नहीं करना चाहिए।
🌹 डॉ प्रणव पंड्या
🌹 जीवन पथ के प्रदीप पृष्ठ 21
👉 सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग 30)
🌹 विचारशील लोग दीर्घायु होते हैं
🔴 चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है—‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शतप्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। गया हुआ धन वापस आ जाता है। नित्य प्रति संसार में लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान् होते रहते हैं। धूप-छांव जैसी धन अथवा अधन की इस स्थिति का जरा भी महत्व नहीं है।
🔵 इसी प्रकार रोगों व्याधियों और चिन्ताओं के प्रभाव में लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता और तदनुकूल उपायों द्वारा बनता रहता है। नित्य प्रति अस्वास्थ्य के बाद लोग स्वस्थ होते देखे जा सकते हैं। किन्तु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुष्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान बन सकता है। तथापि वह अपना वह असंदिग्ध विश्वास नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका है।
🔴 समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हों, चरित्रवान् होने पर भी उसके चरित्र का कोई मूल्य, महत्त्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। यथार्थ में चरित्रवान् वही है, जो अपने समाज, अपनी आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और सन्देह रहित हो। इस प्रकार की मान्य और निःशंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है, जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनी चारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिए। यदि चरित्र चला गया तो मानो मानव-जीवन का सब कुछ चला गया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
🔴 चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है—‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शतप्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। गया हुआ धन वापस आ जाता है। नित्य प्रति संसार में लोग धनी से निर्धन और निर्धन से धनवान् होते रहते हैं। धूप-छांव जैसी धन अथवा अधन की इस स्थिति का जरा भी महत्व नहीं है।
🔵 इसी प्रकार रोगों व्याधियों और चिन्ताओं के प्रभाव में लोगों का स्वास्थ्य बिगड़ता और तदनुकूल उपायों द्वारा बनता रहता है। नित्य प्रति अस्वास्थ्य के बाद लोग स्वस्थ होते देखे जा सकते हैं। किन्तु गया हुआ चरित्र दुबारा वापस नहीं मिलता। ऐसी बात नहीं कि गिरे हुए चरित्र के लोग अपना परिष्कार नहीं कर सकते। दुष्चरित्र व्यक्ति भी सदाचार, सद्विचार और सत्संग द्वारा चरित्रवान बन सकता है। तथापि वह अपना वह असंदिग्ध विश्वास नहीं पा पाता, चरित्रहीनता के कारण जिसे वह खो चुका है।
🔴 समाज जिसके ऊपर विश्वास नहीं करता, लोग जिसे सन्देह और शंका की दृष्टि से देखते हों, चरित्रवान् होने पर भी उसके चरित्र का कोई मूल्य, महत्त्व नहीं है। वह अपनी निज की दृष्टि में भले ही चरित्रवान् बना रहे। यथार्थ में चरित्रवान् वही है, जो अपने समाज, अपनी आत्मा और अपने परमात्मा की दृष्टि में समान रूप से असंदिग्ध और सन्देह रहित हो। इस प्रकार की मान्य और निःशंक चरित्रमत्ता ही वह आध्यात्मिक स्थिति है, जिसके आधार पर सम्मान, सुख, सफलता और आत्मशान्ति का लाभ होता है। मनुष्य को अपनी चारित्रिक महानता की अवश्य रक्षा करनी चाहिए। यदि चरित्र चला गया तो मानो मानव-जीवन का सब कुछ चला गया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 स्रष्टा का परम प्रसाद-प्रखर प्रज्ञा (भाग 8)
🌹 अनास्था की जननी-दुर्बुद्धि
🔵 कहना न होगा कि सशक्तों की समीपता-सान्निध्यता मनुष्य के लिये सदा लाभदायक ही होती है। सुगंध जलाते ही दुकान पर सजी चीजों में से अनेकानेक महकने लगती हैं। चंदन के समीप उगे झाड़- झंखाड़ भी प्राय: वैसी ही सुगंध वाले बन जाते हैं। पारस को छूने से लोहे से सोना बनने वाली उक्ति बहुचर्चित है। कल्पवृक्ष के नीचे बैठने वालों का मनोरथ पूरा होने की बात सुनी जाती है। अमृत की कुछ बूँदें मुँह में चले जाने पर मुरदे जी उठते हैं।
🔴 भृंग अपने संकल्प के प्रभाव से छोटे कीड़े को अपने साँचे में ढाल लेता है। हरियाली के समीपता में रहने वाले टिड्डे और साँप हरे रंग के हो जाते हैं। सीप में स्वाति की बूँदें गिरने पर मोती बनने और बाँस के ढेरों में बंसलोचन उत्पन्न होने की मान्यता प्रसिद्ध है। इनमें से कितनी बात सही और कितनी गलत हैं, इस विवेचना की तो यहाँ आवश्यकता नहीं, पर इतना निश्चित है कि सज्जनों के महामानवों के सान्निध्य में रहने वाले अधिकांश लोग प्रतापी जैसी विशेषताओं में से बहुत कुछ अपना लेते हैं।
🔵 राजदरबारी शिष्टाचार का पालन अच्छी तरह कर सकते हैं। अत: हर कोई बड़ों का सान्निध्य चाहता हैं, किंतु आश्चर्य की बात यह है कि सर्वशक्तिमान् साथी के साथ जुड़ने में हमारे प्रयत्न उतने भी नहीं होते, जितने कि स्वजन-कुटुंबियों के साथ आत्मीयता प्रदर्शित करने में होते हैं। यदि ऐसा बन सकना संभव होता तो हम जड़-से न रहे होते और इस स्थिति में पड़े न रहते, जिसमें कि किसी प्रकार खाते-पीते इन दिनों समय गुजार रहे हैं।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 दीक्षा और उसका स्वरूप (भाग 12)
🌹 निर्मल-उदात्त जीवन की ओर
🔴 ये जो दो कदम हैं- आत्मा की उन्नति के और मनुष्य जीवन को सफल बनाने के, जिनको मैंने अभी- अभी आपको निर्मल जीवन जीना कहा, उदार जीवन जीना कहा- वह साधना है। साधना निश्चित होती है। उपासना एक छोटा- सा अंग है। जो पूजा की कोठरी में दस- बीस मिनट बैठकर की जा सकती है, लेकिन उपासना तो बीज हुआ। बीज तो थोड़ी देर ही बोया जाता है, पर खेती तो साल भर की जाती है। जो पूजा- पाठ दस- पाँच मिनट किया गया है, उस पूजा- पाठ को सारे जीवन भर चौबीस घंटे अपने जीवन को निर्मल बनाने और परिष्कृत बनाने में खर्च किया जाना चाहिए। यही तो उपासना है, यही तो साधना है।
🔴 इस तरह का साधनात्मक जीवन जीने की प्रतिज्ञा जिस दिन ली जाती है। वह दिन ही दीक्षा दिवस होता है। जब मनुष्य अपने उद्देश्य के बारे में खबरदार हो जाता है, सावधान हो जाता है और ये ख्याल करता कि मैं दूसरे लोगों के तरीके से दुनिया के आकर्षणों में, प्रलोभनों में और भ्रमों में फँसने वाला नहीं हूँ, मैं ऊँचा जीवन जिऊँगा, ऊँचा जीवन जीने के लिए गतिविधियाँ बनाऊँगा, कार्यक्रम बनाऊँगा, योजना बनाऊँगा, जिस दिन वह आदमी संकल्प करता है, समझना चाहिए कि उस दिन उसकी दीक्षा हो गई। उस दिन वह भगवान् से जुड़ गया और अपने उद्देश्यों के साथ में जुड़ गया और महानता के साथ जुड़ गया और जीवन की सफलता की मंजिल प्रारम्भ हो गयी। इस तरह का श्रेष्ठ जीवन और इस तरह का व्रत जिस दिन लिया गया है, समझना चाहिए कि उसी दिन आदमी का नया जन्म हो गया। ये नया जन्म है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Diksha/b
🔴 ये जो दो कदम हैं- आत्मा की उन्नति के और मनुष्य जीवन को सफल बनाने के, जिनको मैंने अभी- अभी आपको निर्मल जीवन जीना कहा, उदार जीवन जीना कहा- वह साधना है। साधना निश्चित होती है। उपासना एक छोटा- सा अंग है। जो पूजा की कोठरी में दस- बीस मिनट बैठकर की जा सकती है, लेकिन उपासना तो बीज हुआ। बीज तो थोड़ी देर ही बोया जाता है, पर खेती तो साल भर की जाती है। जो पूजा- पाठ दस- पाँच मिनट किया गया है, उस पूजा- पाठ को सारे जीवन भर चौबीस घंटे अपने जीवन को निर्मल बनाने और परिष्कृत बनाने में खर्च किया जाना चाहिए। यही तो उपासना है, यही तो साधना है।
🔴 इस तरह का साधनात्मक जीवन जीने की प्रतिज्ञा जिस दिन ली जाती है। वह दिन ही दीक्षा दिवस होता है। जब मनुष्य अपने उद्देश्य के बारे में खबरदार हो जाता है, सावधान हो जाता है और ये ख्याल करता कि मैं दूसरे लोगों के तरीके से दुनिया के आकर्षणों में, प्रलोभनों में और भ्रमों में फँसने वाला नहीं हूँ, मैं ऊँचा जीवन जिऊँगा, ऊँचा जीवन जीने के लिए गतिविधियाँ बनाऊँगा, कार्यक्रम बनाऊँगा, योजना बनाऊँगा, जिस दिन वह आदमी संकल्प करता है, समझना चाहिए कि उस दिन उसकी दीक्षा हो गई। उस दिन वह भगवान् से जुड़ गया और अपने उद्देश्यों के साथ में जुड़ गया और महानता के साथ जुड़ गया और जीवन की सफलता की मंजिल प्रारम्भ हो गयी। इस तरह का श्रेष्ठ जीवन और इस तरह का व्रत जिस दिन लिया गया है, समझना चाहिए कि उसी दिन आदमी का नया जन्म हो गया। ये नया जन्म है।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 हमारी वसीयत और विरासत (भाग 69)
🌹 प्रवास का दूसरा चरण एवं कार्य क्षेत्र का निर्धारण
🔴 जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जायेगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया, पर एक ही संदेह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धन शक्ति और जन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?
🔵 मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिंता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरम्भ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है, उसे कैसे, कहाँ बोया-जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी, यह जानकारी भी उनने दी।
🔴 जो उन्होंने कहा-उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? हमारे लिए भी अवज्ञा एवं उपेक्षा करने का कोई प्रश्न नहीं।
🔵 वार्ता समाप्त हो गई। इस बार छः महीने ही हिमालय रुकने का आदेश हुआ। जहाँ रुकना था, वहाँ की सारी व्यवस्था बना दी गई। गुरुदेव के वीरभद्र ने हमें गोमुख पहुँचा दिया। वहाँ से हम निर्देशित स्थान पर जा पहुँचे और छः महीने पूरे कर लिए। लौटकर घर आए थे तो स्वास्थ्य पहले से भी अच्छा था। प्रसन्नता और गम्भीरता बढ़ गई थी, जो प्रतिभा के रूप में चेहरे के इर्द-गिर्द छाई हुई थी। लौटने पर जिनने भी देखा, उन सभी ने कहा-‘‘लगता है, हिमालय में कहीं बड़ी सुख-सुविधा का स्थान है। तुम वहीं जाते हो और स्वास्थ्य सम्वर्धन करके लौटते हो।’’ हमने हँसने के अतिरिक्त और कोई उत्तर नहीं दिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/hari/prav.3
🔴 जो आदेश हो रहा है, उसमें किसी प्रकार की त्रुटि नहीं रहने दी जायेगी। यह मैंने प्रथम मिलन की तरह उन्हें आश्वासन दे दिया, पर एक ही संदेह रहा कि इतने विशालकाय कार्य के लिए जो धन शक्ति और जन शक्ति की आवश्यकता पड़ेगी, उसकी पूर्ति कहाँ से होगी?
🔵 मन को पढ़ रहे गुरुदेव हँस पड़े। ‘‘इन साधनों के लिए चिंता की आवश्यकता नहीं है। जो तुम्हारे पास है, उसे बोना आरम्भ करो। इसकी फसल सौ गुनी होकर पक जाएगी और जो काम सौंपे गए हैं, उन सभी के पूरा हो जाने का सुयोग बन जाएगा।’’ क्या हमारे पास है, उसे कैसे, कहाँ बोया-जाना है और उसकी फसल कब, किस प्रकार पकेगी, यह जानकारी भी उनने दी।
🔴 जो उन्होंने कहा-उसकी हर बात गाँठ बाँध ली। भूलने का तो प्रश्न ही नहीं था। भूला तब जाता है, जब उपेक्षा होती है। सेनापति का आदेश सैनिक कहाँ भूलता है? हमारे लिए भी अवज्ञा एवं उपेक्षा करने का कोई प्रश्न नहीं।
🔵 वार्ता समाप्त हो गई। इस बार छः महीने ही हिमालय रुकने का आदेश हुआ। जहाँ रुकना था, वहाँ की सारी व्यवस्था बना दी गई। गुरुदेव के वीरभद्र ने हमें गोमुख पहुँचा दिया। वहाँ से हम निर्देशित स्थान पर जा पहुँचे और छः महीने पूरे कर लिए। लौटकर घर आए थे तो स्वास्थ्य पहले से भी अच्छा था। प्रसन्नता और गम्भीरता बढ़ गई थी, जो प्रतिभा के रूप में चेहरे के इर्द-गिर्द छाई हुई थी। लौटने पर जिनने भी देखा, उन सभी ने कहा-‘‘लगता है, हिमालय में कहीं बड़ी सुख-सुविधा का स्थान है। तुम वहीं जाते हो और स्वास्थ्य सम्वर्धन करके लौटते हो।’’ हमने हँसने के अतिरिक्त और कोई उत्तर नहीं दिया।
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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👉 "सुनसान के सहचर" (भाग 70)
🌹 हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
🔴 अपनी कसौटी पर अपने आपको कसने के बाद यही कहा जा सकता है कि कम परिश्रम, कम जोखिम और कम जिम्मेदारी लेकर हम शरीर, मन की दृष्टि से अधिक सुखी रहे और सम्मान भी कम नहीं पाया, पागल प्रशंसा न करें इसमें हमें एतराज नहीं- पर अपने आप से हमें कोई शिकायत नहीं- आत्मा से लेकर परमात्मा तक सज्जनों से लेकर दूरदर्शियों तक अपनी क्रिया पद्धति प्रशंसनीय मानी गयी। जोखिम भी कम और नफा भी ज्यादा।
🔵 खर्चीली, तृष्णाग्रस्त, बनावटी, भारभूत जिन्दगी पाप और पतन के पहियों वाली गाड़ी पर ढोई जा सकती है। अपना सबकुछ हल्का रहा, बिस्तर बगल में दबाया और चल दिये। न थकान, न चिन्ता, हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि आदर्शवादी जीवन सरल है। उसमें प्रकाश, सन्तोष, उल्लास सबकुछ है। दुष्ट लोग आक्रमण करके कुछ हानि पहुँचा दें, तो यह जोखिम पापी और घृणित जीवन में भी कम कहाँ है? सन्त और सेवाभावियों को जब इतना त्रास सहना पड़ता है, तो प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या- व्देष और प्रतिशोध के कारण भौतिक जीवन में और भी अधिक खतरा रहता है। कत्ल, खून, डकैती, आक्रमण की जो रोमांचकारी घटनाएँ जो आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं उनमें भौतिक जीवन जीने वाले ही अधिक मरते- खपते देखे जाते हैं। इतने व्यक्ति अगर स्वेच्छापूर्वक अपने प्राण और धन गँवाने को मजबूर हो जाते, तो उन्हें देवता माना जाता और इतिहास धन्य हो जाता।
🔴 ईसा, सुकरात, गाँधी जैसे सन्त या उस वर्ग के लोग थोड़ी संख्या में ही मरे हैं। उससे हजार गुने अधिक की तो पतन्मुखी क्षेत्र में ही हत्याएँ होती रहती हैं। दान से गरीब हुए भामाशाह तो उँगलियों पर गिने जाने वाले ही मिलेंगे पर ठगी, विश्वासघात, व्यसन, व्यभिचार, आक्रमण, मुकदमा, बीमारी, बेवकूफी के शिकार होने वाले आये दिन अमीर के फकीर बनते लाखों व्यक्ति रोज ही देखे जाते हैं। आत्मिक क्षेत्र में घाटा, आक्रमण, मुकदमा, कम है, भौतिक में अधिक। इस तथ्य को अगर ठीक तरह से समझा गया होता, तो लोग आदर्शवादी जीवन से घबराने और भौतिक लिप्सा में औंधे मुँह गिरने की बेवकूफी न करते।
🔵 हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि तृष्णा- वासना के प्रलोभन में व्यक्ति पाता कम खोता अधिक है। हमें जो खोना पड़ा वह नगण्य है, जो पाया वह इतना अधिक है कि जी बार- बार यही सोचता है कि हर व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन जीने को उत्कृष्ट और आदर्शवादी परम्परा अपनाने के लिए कहा जाय्, पर बात मुश्किल है। हमें अपने अनुभवों को साक्षी देकर उज्ज्वल जीवन जीने की गुहार मचाते मुद्दत हो गयी, पर कितनों ने उसे सुना और सुनने वालों में से कितनों ने उसे अपनाया?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books/sunsaan_ke_shachar/hamari_jivan_saadhna.3
🔴 अपनी कसौटी पर अपने आपको कसने के बाद यही कहा जा सकता है कि कम परिश्रम, कम जोखिम और कम जिम्मेदारी लेकर हम शरीर, मन की दृष्टि से अधिक सुखी रहे और सम्मान भी कम नहीं पाया, पागल प्रशंसा न करें इसमें हमें एतराज नहीं- पर अपने आप से हमें कोई शिकायत नहीं- आत्मा से लेकर परमात्मा तक सज्जनों से लेकर दूरदर्शियों तक अपनी क्रिया पद्धति प्रशंसनीय मानी गयी। जोखिम भी कम और नफा भी ज्यादा।
🔵 खर्चीली, तृष्णाग्रस्त, बनावटी, भारभूत जिन्दगी पाप और पतन के पहियों वाली गाड़ी पर ढोई जा सकती है। अपना सबकुछ हल्का रहा, बिस्तर बगल में दबाया और चल दिये। न थकान, न चिन्ता, हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि आदर्शवादी जीवन सरल है। उसमें प्रकाश, सन्तोष, उल्लास सबकुछ है। दुष्ट लोग आक्रमण करके कुछ हानि पहुँचा दें, तो यह जोखिम पापी और घृणित जीवन में भी कम कहाँ है? सन्त और सेवाभावियों को जब इतना त्रास सहना पड़ता है, तो प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या- व्देष और प्रतिशोध के कारण भौतिक जीवन में और भी अधिक खतरा रहता है। कत्ल, खून, डकैती, आक्रमण की जो रोमांचकारी घटनाएँ जो आये दिन सुनने को मिलती रहती हैं उनमें भौतिक जीवन जीने वाले ही अधिक मरते- खपते देखे जाते हैं। इतने व्यक्ति अगर स्वेच्छापूर्वक अपने प्राण और धन गँवाने को मजबूर हो जाते, तो उन्हें देवता माना जाता और इतिहास धन्य हो जाता।
🔴 ईसा, सुकरात, गाँधी जैसे सन्त या उस वर्ग के लोग थोड़ी संख्या में ही मरे हैं। उससे हजार गुने अधिक की तो पतन्मुखी क्षेत्र में ही हत्याएँ होती रहती हैं। दान से गरीब हुए भामाशाह तो उँगलियों पर गिने जाने वाले ही मिलेंगे पर ठगी, विश्वासघात, व्यसन, व्यभिचार, आक्रमण, मुकदमा, बीमारी, बेवकूफी के शिकार होने वाले आये दिन अमीर के फकीर बनते लाखों व्यक्ति रोज ही देखे जाते हैं। आत्मिक क्षेत्र में घाटा, आक्रमण, मुकदमा, कम है, भौतिक में अधिक। इस तथ्य को अगर ठीक तरह से समझा गया होता, तो लोग आदर्शवादी जीवन से घबराने और भौतिक लिप्सा में औंधे मुँह गिरने की बेवकूफी न करते।
🔵 हमारा व्यक्तिगत अनुभव यही है कि तृष्णा- वासना के प्रलोभन में व्यक्ति पाता कम खोता अधिक है। हमें जो खोना पड़ा वह नगण्य है, जो पाया वह इतना अधिक है कि जी बार- बार यही सोचता है कि हर व्यक्ति को आध्यात्मिक जीवन जीने को उत्कृष्ट और आदर्शवादी परम्परा अपनाने के लिए कहा जाय्, पर बात मुश्किल है। हमें अपने अनुभवों को साक्षी देकर उज्ज्वल जीवन जीने की गुहार मचाते मुद्दत हो गयी, पर कितनों ने उसे सुना और सुनने वालों में से कितनों ने उसे अपनाया?
🌹 क्रमशः जारी
🌹 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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