सोमवार, 12 नवंबर 2018

👉 बडा हुआ तो क्या हुआ……

🔶 एक शेर अपनी शेरनी और दो शावकों के साथ वन मे रहता था। शिकार मारकर घर लेकर आता और सभी मिलकर उस शिकार को खाते। एक बार शेर को पूरा दिन कोई शिकार नही मिला, वह वापस अपनी गुफा के लिए शाम को लौट रहा था तो उसे रास्ते मे एक गीदड का छोटा सा बच्चा दिखा। इतने छोटे बच्चे को देखकर शेर को दया आ गई। उसे मारने के बजाए वह अपने दांतो से हल्के पकड कर गुफा मे ले आया। गुफा मे पहुँचा तो शेरनी को बहुत तेज भूख लग रही थी, किन्तु उसे भी इस छोटे से बच्चे पर दया आ गई और शेरनी ने उसे अपने ही पास रख लिया। अपने दोनों बच्चो के साथ उसे भी पालने लगी। तीनों बच्चे साथ साथ खेलते कूदते बड़े होने लगे। शेर के बच्चो को ये नही पता था की हमारे साथ यह बच्चा गीदड है। वे उसे भी अपने जैसा शेर ही समझने लगे। गीदड का बच्चा शेर के बच्चो से उम्र मे बड़ा था, वह भी स्वयं को शेर और दोनो का बडा भाई समझने लगा। दोनों बच्चे उसका बहुत आदर किया करते थे।

🔷 एक दिन जब तीनों जंगल मे घूम रहे तो अचानक उन के सामने एक हाथी आया। शेर के बच्चे हाथी को देखकर गरज कर उस पर कूदने को ही थे कि एकाएक गीदड बोला, “यह हाथी है हम शेरो का कट्टर दुश्मन इससे उलझना ठीक नही है, चलो यहाँ से भाग चलते है” यह कहते हुए गीदड अपनी दुम दबाकर भागा। शेर के बच्चे भी उसके आदेश के कारण एक दूसरे का मुँह देखते हुए उसके पीछे चल दिए। घर पहुँचकर दोनों ने हँसते हुए अपने बड़े भाई की कायरता की कहानी माँ और पिता को बताई, की हाथी को देखकर बड़े भय्या तो ऐसे भागे जैसे आसमान सर पर गिरा हो और ठहाका मारने लगे। दूसरे ने हँसी मे शामिल होते हुए कहा यह तमाशा तो हमने पहली बार देखा है शेर और शेरनी मुस्कराने लगे गीदड को बहुत बुरा लगा की सभी उसकी हँसी उड़ा रहे है। क्रोध से उसकी आँखें लाल हो गई और वह उफनते हुए दोनों शेर के बच्चों को कहा, “तुम दोनों अपने बड़े भाई की हँसी उड़ा रहे हो तुम अपने आप को समझते क्या हो?”

🔶 शेरनी ने जब देखा की बात लड़ाई पर आ गई है तो गीदड को एक और ले जाकर समझाने लगी बेटे ये तुम्हारे छोटे भाई है। इनपर इस तरह क्रोध करना ठीक नही है। गीदड बोला, “वीरता और समझदारी में मै इनसे क्या कम हूँ जो ये मेरी हँसी उड़ा रहे है” गीदड अपने को शेर समझकर बोले जा रहा था। आखिर मे शेरनी ने सोचा की इसे असली बात बतानी ही पड़ेगी, वर्ना ये बेचारा फालतू मे ही मारा जाएगा। उसने गीदड को बोला, “मैं जानती हूँ बेटा तुम वीर हो, सुंदर हो, समझदार भी हो लेकिन तुम जिस कुल मे जन्मे हो, उससे हाथी नही मारे जाते है। तुम गीदड हो। हमने तुम पर दया कर अपने बच्चे की तरह पाला। इसके पहले की तुम्हारी हकीकत उन्हें पता चले यहाँ से भाग जाओ नही तो ये तुम्हें दो मिनट भी जिंदा नही छोड़ेंगे।” यह सुनकर गीदड बहुत डर गया और उसी समय शेरनी से विदा लेकर वहाँ से भाग गया ॥

🔷 स्वभाव का अपना महत्व है। विचारधारा अपना प्रभाव दिखाती ही है। स्वभाव की अपनी नियति नियत है।

👉 साधना- अपने आपे को साधना (भाग 7)

🔶 सधाने से सामान्य स्तर के प्राणी आश्चर्यजनक कार्य करके दिखाते हैं। बन गये मनुष्य को पास भी नहीं आने देतीं ओर खेतों को उजाड़ कर रख जाती हैं, पर जब वे पालतू हो जाती हैं तो दूध, बछड़े गोबर आदि बहुत कुछ देती हैं। स्वयं सुखी रहती है और उसके पालने वाले भी लाभान्वित होते हैं यही बात अन्य वन्य पशुओं के बारे में लागू होती है। जंगली घोड़े, कुत्ते, सुअर, हाथी आदि स्वयं भूखे मरते, कष्ट उठाते और अनिश्चित जीवन जीते हैं। फालतू बन जाने पर वे स्वयं निश्चिन्ततापूर्वक रहते हैं और अपने पालने वालों को लाभ पहुँचाते हैं। अपने भीतर शरीर तथा मन− क्षेत्र में एक से एक बढ़कर शक्तिशाली धाराएँ प्रवाहित होती हैं।

🔷 वे निरुद्देश्य और अनियन्त्रित स्थिति में रहकर वन्य पशुओं जैसी असंगत बनी रहती हैं। फलतः विकृत होकर वे सड़ी दुर्गन्ध की तरह अपने समूचे प्रभाव क्षेत्र को विषैला बना देती हैं। आग जहाँ भी रहती है वहीं जलाती है, तेजाब की बोतल जहाँ भी फैलती है वहीं गलाती है। विकृत प्रवृत्तियाँ छितराई हुई आग और फूटी तेजाब की बोतल की तरह हैं, उनसे केवल विनाश ही सम्भव होता है। यह दोनों ही वस्तुएँ यदि सुनियोजित रखी जा सकें तो उनसे उपयोगी लाभ मिलते हैं और वे इतने बढ़े−बढ़े होते हैं कि सामान्य दीखने वाला मनुष्य पग−पग पर अपनी असामान्य स्थिति का परिचय देता है। साधना जीवन के बहिरंग और अन्तरंग क्षेत्रों में सुसंस्कारित सुव्यवस्था उत्पन्न करने का नाम है। इसे समझ पाने और कर पाने का प्रतिफल, जंगली जानवरों को पकड़ कर पालतू बनाने की कला में प्रवीण व्यवसाइयों जैसा ही प्राप्त होता।

🔶 सरकस के जानवर कितने आश्चर्यजनक करतब दिखाते हैं। देखने वाले बाग−बाग हो उठते हैं। इन बंधे जानवरों को प्रशंसा मिलती है—प्रतिष्ठा होती है और अच्छी खुराक मिलती है। सधाने वाले और सिखाने वालों को अच्छा वेतन मिलता है और सरकस के मालिकों को उन्हीं जानवरों के सहारे धनवान बनने का अवसर मिलता है जो उच्छृंखल होने की स्थिति में स्वयं असन्तुष्ट रहते और दूसरों को रुष्ट करते थे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1976 पृष्ठ 15

http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1976/January/v1.15

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 12 November 2018


👉 आज का सद्चिंतन 12 Nov 2018

👉 Just make not break too

🔶 Secret to good gardening lies not only in nourishing the plants but also in pruning the weeds. Plants need to be cared after, given nourishments, yes but the weeds need to be trimmed too. Only then the dream of a beautiful garden can be realized.

🔷 In much the same way, secret of self-progress lies in not only constructive activities like reading, contemplation, pious company, religious observances but also in performing corrective actions necessary for self reform. For the eradication of negative imprints and inferior traits we need to undergo the arduous penance of introspection and self-reform.

🔶 For progress and reform it is necessary to adopt a balanced approach that does justice to both aspects of the process. It was the vile side effect, of our extremist, inappropriately lax and one-sided religiousness that India had to suffer the curse of long political enslavement, which lasted for a thousand years.

🔷 Yes we must foster that which is good and noble, but the eradication of what is bad and vile is our pious duty too. Only if we fully understand and appreciate this eternal truth, can each one of us uphold justice and strike down injustice like it was done in the days of yore.

✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Dharma Tattva kā darśan aura marma Vangmay 53 Page 1.35

👉 धर्म की स्थापना ही नहीं, अधर्म की अवहेलना भी

🔶 जिस प्रकार माली को पौधों में खाद-पानी लगाना पड़ता है साथ ही बेढंगी टहनियों की काट-छाँट तथा समीपवर्ती खर-पतवार को भी उखाड़ना पड़ता है तभी सुन्दर बाग का सपना साकार होता है, उसी प्रकार आत्मोन्नति के लिए जहाँ स्वाध्याय, सत्संग, धर्मानुष्ठान आदि करने पड़ते हैं, वहाँ कुसंस्कारों और दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए आत्मशोधन की प्रताड़ना तपश्चर्या भी अपनानी होती है। प्रगति और परिष्कार के लिए सृजन और उन्मूलन की उभयपक्षीय प्रक्रिया अपनानी होती है।

🔷 अतिवादी, उदारपक्षी, एकांगी धार्मिकता का ही दुष्परिणाम था जो हजार वर्ष की लम्बी राजनैतिक गुलामी के रूप में अपने देश को अभिशाप की तरह भुगतना पड़ा। सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी परम पवित्र मानवीय कर्त्तव्य हैं। यदि वह सनातन सत्य ठीक तरह समझा जा सके तो प्राचीनकाल की तरह आज भी हर व्यक्ति को न्याय के औचित्य का पोषण और अन्याय के का निराकरण को सकता है।

✍🏻 पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 धर्म तत्त्व का दर्शन और मर्म वांग्मय 53 पृष्ठ-1.35

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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