सोमवार, 30 मई 2022

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ५)

चिन्तन क्रम व्यवस्थित हो

‘जो होगा सो देखा जायेगा’, किसान यह नीति अपनाकर फसलों की देखरेख करना छोड़ दे, निराई-गुड़ाई करने की व्यवस्था न बनाये, खाद-पानी देना बन्द कर दे तो फसल के चौपट होते देर न लगेगी। व्यवसाय में व्यापारी बाजार भाव के उतार-चढ़ाव के प्रति सतर्क न रहे तो उसकी पूंजी के डूबते देरी न लगेगी। सीमा प्रहरी रातों-दिन पूरी मुस्तैदी के साथ सीमा पर डटे चहल-कदमी करते रहते हैं। सुरक्षा की चिन्ता वे न करें तो दुश्मन-घुसपैठियों से देश को खतरा उत्पन्न हो सकता है। मनीषी, विचारक, समाज सुधारक, देशभक्त, महापुरुष का अधिकांश समय विधेयात्मक चिंतन में व्यतीत होता है। उन्हें देश, समाज, संस्कृति ही नहीं समस्त मानव जाति के उत्थान की चिन्ता होती है। सार्वजनीन तथा सर्वतोमुखी प्रगति के लिए वे योजना बनाते और चलाते हैं। यह विधेयात्मक चिन्ता ही है, जिसकी परिणति रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में होती है।

मानव जीवन वस्तुतः अनगढ़ है। पशु-प्रवृत्तियों के कुसंस्कार उसे पतन की ओर ढकेलने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहते हैं। उनकी अभिप्रेरणा से प्रभावित होकर इन्द्रियों को मनमानी बरतने की खुली छूट दे दी जाय तो सचमुच ही मनुष्य पशुओं की श्रेणी में जा बैठेंगे, पर यह आत्म गरिमा को सुरक्षित रखने की चिन्ता ही है जो मनुष्य को पतन के प्रवाह में बहने से रोकती है। मानवी काया में नरपशु भी होते हैं जिनका कुछ भी आदर्श नहीं होता, परन्तु जिनमें भी महानता के बीज होते हैं, वे उस प्रवाह में बहने से इन्कार कर देते हैं। सुरक्षा प्रहरी की तरह वह स्वयं की प्रवृत्तियों के प्रति विशेष जागरूक होते हैं। हर विचार का, मन में आये संवेगों का वे बारीकी से परीक्षण करते हैं तथा सदैव उपयोगी चिन्तन में अपने को नियोजित करते हैं।

चिन्ता करना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। एक सीमा तक वह मानवी विकास में सहायक भी है। पशुओं का जीवन तो प्रवृत्ति तथा प्रकृति प्रेरणा से संचालित होता है। शिश्नोदर जीवन वे जीते तथा उसी में आनन्द अनुभव करते हैं किन्तु मनुष्य की स्थिति भिन्न है। मात्र इन्द्रियों की परितृप्ति से उसे सन्तोष नहीं हो सकता, होना भी नहीं चाहिए क्योंकि उसके ध्येय उच्च हैं। उनकी प्राप्ति के लिए उसे स्वेच्छापूर्वक संघर्ष का मार्ग वरण करना पड़ता है। यह मनुष्य के लिए गौरवमय बात भी है कि वह अपनी यथास्थिति पर सन्तुष्ट न रहे।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ७
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३५)

अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है

महर्षि पुलह ने कथा के सूत्र को अपनी स्मृति के सूत्र से जोड़ते हुए फिर से बरसाने की गोपी मृणालिनी की भक्तिकथा कहनी शुरू की। उन्होंने बताया कि श्रीराधा जी ने मृणालिनी से कहा- ‘‘भक्ति सांसारिक लगाव से भिन्न है। इसमें सांसारिक विसंगतियों के लिए कोई भी स्थान नहीं है। न तो यहाँ वासना है और न आसक्ति। ईर्ष्या या फिर किसी अन्य छल-कपट अथवा अधिकार की कोई मांग नहीं है। भक्त वही है जो न केवल अपने आराध्य को ईश्वर माने, बल्कि स्वयं भी ईश्वरीय गुणों से युक्त हो। जो ईश्वर से सांसारिक सम्बन्ध रखता है अथवा फिर अपने मन में सांसारिक भाव या सांसारिक कामनाएँ संजोये हुए है वह किसी भी तरह से भक्त नहीं हो सकता है।

श्रीराधा जी की ये बातें मृणालिनी के मन-अन्तःकरण में सात्त्विक भाव का सम्प्रेषण कर रही थीं। उसके मन में सर्वत्र एक प्रेरक प्रकाश छाने लगा था। वह बड़े ध्यान से श्रीराधा जी की बातें सुन रही थी। श्रीराधा जी उससे कह रही थीं- भक्त के लिए भगवान नरदेह धारण करने के बावजूद सामान्य मानव नहीं होते। श्रीकृष्ण ने भले ही लीला से नरदेह धारण कर ली हो, पर वह सदा ही दिव्य, लोकोत्तर और षडऐश्वर्य से पूर्ण ईश्वर हैं। यहाँ तक कि उनकी देह मृण्मय होते हुए भी चिन्मय है। मैंने उन्हें इसी रूप में देखा-जाना और अनुभव किया है। श्रीराधा जी की अनुभूति मृणालिनी को बड़ी प्रेरक लगी। लेकिन अभी तक उसका मूल प्रश्न अनुत्तरित था।

दरअसल उसे तो यह जानना था कि श्रीकृष्ण को जब वे पूरी तरह से चाहती हैं, उनकी ही पूरी तरह से हो जाना चाहती है, ऐसे में भला वे श्री कृष्ण उसके कैसे पूर्णरूपेण हो सकते हैं? श्रीराधा जी मृणालिनी के मन की यह बात जान गयीं और मन्द स्मित के साथ बोलीं- यही तो मानवीय भाव एवं ईश्वरीय भाव के बीच का भेद है। मानव, ईश्वरीय संस्पर्श एवं संयोग के बिना कभी भी पूर्ण नहीं हो सकता परन्तु ईश्वर सदा ही पूर्ण है। उनमें कुछ घटाने पर अथवा कुछ बढ़ाने पर भी वे पहले ही की भाँति पूर्ण रहते हैं। उनका हर एक भक्त उन्हें पूर्ण रूप में ही पाता है। बस इसमें महत्त्वपूर्ण बात इतनी ही है कि उन्हें पूर्ण रूप से पाने के लिए स्वयं का पूर्ण रूप से विसर्जन करना पड़ता है। समर्पण व विसर्जन जितना बढ़ता जाता है, उन परमात्मा की प्राप्ति भी उतनी ही होती जाती है।

भक्त अपने भगवान के सिवा अन्य किसी ओर नहीं देखता। उसे इस बात की कोई चिन्ता, फिक्र या परवाह नहीं होती कि उसके भगवान कितने लोगों से किस तरह से और कैसे प्यार करते हैं। उनके प्रति किसका समर्पण कैसा है? भक्त तो बस अपने प्रेम, अनुराग, भक्ति, समर्पण, विसर्जन को बढ़ाना चाहता है। यहाँ तक वह स्वयं को उनमें पूरी तरह से विसर्जित एवं विलीन कर देना चाहता है। यह चाहत ही उसे भक्त बनाती है। यही उसे अपने भगवान् के पूरा पाने का अहसास दिलाती है। अरे मृणालिनी! श्रीकृष्ण तो परमात्मा हैं, उन्ही का एक अंश सृष्टि के समस्त जीवों में है। उनसे मिलने की चाहत तो सभी में नैसर्गिक रूप से है और होनी भी चाहिए।

श्रीराधा की इन बातों को मृणालिनी सुन रही थी। सुनते हुए वह उनकी ओर एकटक देख रही थी। श्रीराधा जी उसे मानव देह में ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न साक्षात ईश्वर लग रही थीं। उनमें भला ईर्ष्या की छुद्रता कैसे हो सकती थी। वह बड़ी अनुरक्ति से उनकी ओर देखती रही। इस तरह से उनको देखते हुए वह अपने मन में सोच रही थी कि सचमुच ही श्रीराधा और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है। श्रीराधा कृष्ण हैं और श्रीकृष्ण ही राधा हैं। सम्भवतः यही एकान्त भक्ति का निहितार्थ है। यही भक्ति का चरम व परम है।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६३

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ४)

चिन्तन क्रम व्यवस्थित हो

जीवन एक लम्बा पथ है जिसमें कितने ही प्रकार के झंझावात आते रहते हैं। कभी संसार की प्रतिकूल परिस्थितियां अवरोध खड़ा करती हैं तो कभी स्वयं की आकांक्षायें। ऐसे में सन्तुलित दृष्टि न हो तो भटकाव ही हाथ लगता है। असफलताओं के प्रस्तुत होते ही असन्तोष बढ़ता जाता है तथा मनुष्य अनावश्यक रूप से भी चिन्तित रहने लगता है। सन्तुलन के अभाव में चिन्ता- आदत में शुमार होकर अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म देती है। अधिकांश कारण इनके निराधार ही होते हैं।

चिन्ता किस प्रकार उत्पन्न होती है? इस सम्बन्ध में प्रख्यात मनोवैज्ञानिक मैकडूगल लिखते है कि ‘मनुष्य की इच्छाओं की आपूर्ति में जब अड़चनें आती है तो उसका विश्वास, आशंका और निराशा में परिवर्तित हो जाता है, पर वह आयी अड़चनों तथा विफलताओं से पूर्णतः निराश नहीं हो जाता, इसलिए उसकी विभिन्न प्रवृत्तियां अपनी पूर्ति और अभिव्यक्ति का प्रयास करती रहती हैं। सामाजिक परिस्थितियां तथा मर्यादायें मनुष्य के लिए सबसे बड़ी अवरोध बनकर सामने आती हैं तथा इच्छाओं की पूर्ति में बाधक बनती हैं, जिससे उसके मन में आंतरिक संघर्षों के लिए मंच तैयार हो जाता है। इसी में से असन्तोष और चिन्ता का सूत्रपात होता है, अनावश्यक चिंता उत्पत्ति के अधिकांश कारण मनोवैज्ञानिक होते हैं।’

एक सीमा तक चिंता की प्रवृत्ति भी उपयोगी है, पर जब वह मर्यादा सीमा का उल्लंघन कर जाती है तो मानसिक संतुलन के लिए संकट पैदा करती है। व्यक्तिगत पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन से जुड़े कर्तव्यों के निर्वाह की चिन्ता हर व्यक्ति को होनी चाहिए। बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षण एवं विकास की, उन्हें आवश्यक सुविधायें जुटाने की चिन्ता अभिभावक न करें, अपनी मस्ती में डूबे रहें, भविष्य की उपेक्षा करके वर्तमान में तैयारी न करें तो भला उनके उज्ज्वल भविष्य की आशा कैसे की जा सकती है। विद्यार्थी खेलकूद में ही समय गंवाता रहे—आने वाली परीक्षा की तैयारी न करे तो उसके भविष्य का अन्धकारमय होना सुनिश्चित है।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ६
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३४)

अनन्य भक्ति ही श्रेष्ठतम है

‘‘श्रीराधा की बात मृणालिनी को अच्छी तो बहुत लगी, पर किंचित आश्चर्य भी हुआ। उसे एक ही समय में दो अनुभवों ने घेर लिया। पहला अनुभव इस खुशी का था कि स्वयं श्रीराधा उसे श्रीकृष्ण के प्रेम का रहस्य समझा रही हैं। इससे अधिक सौभाग्य उसका और क्या हो सकता है? क्योंकि यह सच तो ब्रज धरा के नर-नारी, बालक-वृद्ध सभी जानते थे कि श्रीकृष्ण के हृदय का सम्पूर्ण रहस्य वृषभानु की लाडली के अलावा कोई नहीं जानता। यह बात ब्रज के मानवों को ही नहीं, वहाँ के पशु-पक्षियों, वृक्ष-वनस्पतियों को भी मालूम थी कि बरसाने की राधा नन्दगाँव के कृष्ण के रहस्य के सर्वस्व को जानती हैं। और वही राधा इस रहस्य को मृणालिनी को कहें, समझाएँ, बताएँ इससे अधिक सुखकर-सौभाग्यप्रद भला और क्या होगा?

लेकिन मृणालिनी के अनुभव का एक दूसरा हिस्सा भी था। इसी हिस्से ने उन्हें अचरज में डाल रखा था। यह आश्चर्य की गुत्थी ऐसी थी, जिसे वह चाहकर भी नहीं सुलझा पा रही थी। यह आश्चर्य भी श्रीराधा से ही जुड़ा था। उसे लग रहा था कि जब श्रीराधा स्वयं कृष्ण से प्रेम करती हैं, तब वह अपने इस प्रेम का दान उसे क्यों करना चाहती हैं। ऐसे में तो उन्हें स्वयं वञ्चित रहना पड़ेगा। कृष्णप्रेम का अधिकार उसे सौंप कर स्वयं ही राधा रिक्त हस्त-खाली हाथ क्यों होना चाहती हैं। मृणालिनी के लिए यह ऐसी एक अबूझ पहेली थी जिसे वह किसी भी तरह से सुलझा नहीं पा रही थी। बस वह ऊहापोह से भरी और घिरी थी। संकोचवश यह पूछ भी नहीं पा रही थी और बिना पूछे उससे रहा भी नहीं जा रहा था।

हाँ! उसके सौम्य-सलोने मुख पर भावों का उतार-चढ़ाव जरूर था, जिसे श्रीराधा ने पढ़ लिया और वह हँस कर बोलीं- अब कह भी दे मृणालिनी, नहीं कहेगी तो तेरी हालत और भी खराब हो जाएगी। श्रीराधा की इस बात से उसका असमञ्जस तो बढ़ा पर संकोच थोड़ा घटा। वह जैसे-तैसे हिचकिचाते हुए लड़खड़ाते शब्दों में बोली- क्या कान्हा से आप रूठ गयी हैं? उसके इस भोले से सवाल पर श्रीराधा ने कहा- नहीं तो। मृणालिनी बोली- तब ऐसे में उन्हें मुझे क्यों देना चाहती हैं? उसकी यह भोली सी बात सुनकर श्रीराधा जी हँस पड़ीं।’’ श्रीराधा की इस हँसी का अहसास ऋषिश्रेष्ठ पुलह के मुख पर भी आ गया। वे ही इस समय भाव भरे मन से उस गोपकन्या मृणालिनी की कथा सुना रहे थे।

लेकिन यह कथा सुनाते-सुनाते उन्हें लगा कि समय कुछ ज्यादा ही हो चला है। अब जैसे भी हो देवर्षि नारद के अगले भक्तिसूत्र को प्रकट होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने मधुर स्वर में कहा- ‘‘मेरी इस कथा का तो अभी कुछ अंश बाकी है। ऐसे में मेरा अनुरोध है कि देवर्षि अपने सूत्र को बता दें। इसके बाद कथा का शेष अंश भी पूरा हो जाएगा।’’ उनकी यह बात सुनकर नारद अपनी वीणा की मधुर झंकृति के स्वरों में हँस दिए और बोले- ‘‘आप का आदेश सर्वदा शिरोधार्य है महर्षि! बस मेरा यह अनुरोध अवश्य स्वीकारें और अपनी पावनकथा का शेष अंश अवश्य पूरा करें।’’ देवर्षि नारद के इस कथन पर ऋषिश्रेष्ठ पुलह ने हँस कर हामी भरी। उनके इस तरह हामी भरते ही देवर्षि ने कहा-
‘भक्ता एकान्तिनोमुख्याः’॥ ६७॥

एकान्त (अनन्य) भक्त ही श्रेष्ठ है।
अपने इस सूत्र को पूरा करके देवर्षि ने कहा- ‘‘हे महर्षि! अब मेरा आपसे भावभरा अनुरोध यही है कि इस सूत्र का विवेचन, इसकी व्याख्या आप अपने द्वारा कही जा रही कथा के सन्दर्भ में करें।’’ नारद का यह कथन सुनकर ऋषिश्रेष्ठ पुलह के होठों पर मुस्कान आ गयी। उन्होंने वहाँ पर उपस्थित जनों की ओर देखा। सभी उनकी इस दृष्टि का अभिप्राय समझ गए और सबने विनीत हो निवेदन किया- ‘‘हे महर्षि! आप कथा के शेष भाग को पूरा करते हुए इस सूत्र का सत्य स्पष्ट करें।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६२

👉 विचारों की सृजनात्मक शक्ति (भाग ३)

विधेयात्मक चिन्तन की फलदायी परिणतियां

विचारों का सही विश्लेषण सतही स्तर पर कर सकता संभव नहीं है। घटना अथवा विषय विशेष की परिस्थिति की गहराई में जाये बिना विचारणा के निष्कर्ष भी अधूरे, एकांगी और कभी-कभी गलत होते हैं। उल्लेखनीय बात यह भी है कि विचार-विश्लेषण की सही प्रक्रिया अपने ही बलबूते सम्पन्न की जा सकती है, न कि दूसरे के सहयोग से। सामयिक रूप से कोई वैचारिक सहयोग, सुझाव एवं परामर्श दे भी सकता है, पर हर क्षण अपने विचारों का निरीक्षण मात्र मनुष्य स्वयं ही कर सकता है। सही ढंग से उचित-अनुचित का विश्लेषण एवं चयन भी वही कर सकता है। कहा जा चुका है कि विचारणा में पूर्व अनुभवों एवं आदतों की भी पृष्ठभूमि होती है। इस तथ्य से दूसरे व्यक्ति नहीं परिचित होते। अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि हर व्यक्ति थोड़े प्रयत्नों से स्वयं पता लगाकर उसमें आवश्यक हेर-फेर कर सकता है। आत्म विश्लेषण के लिए मन एवं उसकी प्रवृत्तियों को विवेक के नेत्रों से देखना पड़ता है। कठिन होते हुए भी यह कार्य असम्भव नहीं है।

क्या उचित है और क्या अनुचित? कौन-सा कार्य औचित्यपूर्ण है, कौन-सा अनौचित्य से भरा इसका पता लगाना असम्भव नहीं है, हर कोई थोड़े प्रयास से इसमें अपने को दक्ष कर सकता है।

एक समय में एक से अधिक विषयों पर चिन्तन करने से भी उथले परिणाम हाथ लगते हैं। एकाग्रता न बन पाने से विषय की गहराई में जाना सम्भव नहीं हो पाता। एक से अधिक विषयों पर एक साथ विचार करने से विचारों में भटकाव आता है, किसी उपयोगी परिणाम की आशा नहीं रहती। कई बातों में विचारों को भटकने देने की खुली छुट देने की अपेक्षा उपयोगी यह है कि एक समय में एक विषय पर सोचा जाय और जितना सोचा जाय पूरे मनोयोगपूर्वक। मनीषी, विचारक, वैज्ञानिक, कलाकार, साहित्यकार कुछ महत्वपूर्ण समाज को इसीलिए दे पाते हैं कि वे अपने विचारों को भटकने-बिखरने नहीं देते, एक ही विषय के इर्द-गिर्द पूरी तन्मयता के साथ उन्हें घूमने देते हैं, सार्थक परिणति भी इसीलिए होती है।

कर्म—विचारों के गर्भ में ही पकते हैं। जैसे भी विचार होंगे उसी ढंग की गतिविधि मनुष्य अपनायेगा। जो प्रयास को सफल उपयोगी और कल्याणकारी बनाना चाहते हैं, उन्हें सर्वप्रथम अपनी विचारणा की प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए। अनुपयोगी निषेधात्मक को सुधारने-बदलने तथा उपयोगी को बिना किसी असमंजस के स्वीकारने के लिए सतत् तैयार रहना चाहिए।

.... क्रमशः जारी
📖 विचारों की सृजनात्मक शक्ति पृष्ठ ५
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 भक्तिगाथा (भाग १३३)

जिन प्रेम कियो तिनहिं प्रभु पायो

देवर्षि के इस सूत्र ने ऋषिश्रेष्ठ पुलह को भावविभोर कर दिया। उनके मुख को देखकर लगा जैसे कि वह अतीत की किन्हीं स्मृतियों में खो गए। उनकी इस भावदशा को देखकर देवर्षि नारद ने पूछा- ‘‘हे महर्षि! आप क्या सोचने लगे? क्या किसी भक्त की भक्ति ने आपको विभोर कर दिया है।’’ इस पर ब्रह्मर्षि पुलह ने कहा- ‘‘आपका कथन सत्य है देवर्षि! भक्तिमती मृणालिनी की स्मृतियों ने मुझे भिगो दिया है। आपके सूत्र में जिस सत्य की चर्चा है, वह सभी गुण उस भक्तिमती कन्या में थे।’’ महर्षि पुलह की यह बात सभी को बहुत भायी। देवर्षि तो इससे विशेष रूप से प्रसन्न हुए। उन्होंने विनम्र स्वर में कहा- ‘‘भगवन्! आप उस पावन कन्या की भक्ति गाथा सुनाकर हम सबको कृतार्थ करें।’’
देवर्षि के इस कथन का सभी ने अनुमोदन किया। सब के सब महर्षि पुलह की ओर आशा भरी नजरों से देखने लगे। इससे ऋषि श्रेष्ठ पुलह के मन में भी उत्साह का संचार हुआ। उन्होंने भाव भीगे स्वर में कहा- ‘‘बात द्वापर युग की है। तब यमुना का नीर नीलमणि की भांति पारदर्शी था और उसकी प्रत्येक जलतरंग में देवी यमुना की चेतना घुली हुई थी। यमुना के इस तीर पर बसे वृन्दावन क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण के अवतरण के साथ ही सम्पूर्ण गोलोक धाम अवतरित हुआ था। गोकुल, नन्दगांव, बरसाना और आस-पास के सभी क्षेत्रों में इस दिव्य गोलोक धाम की पवित्र एवं चमत्कारी चेतना का स्पर्श सहज सम्भव था।

यहीं के बरसाने की कन्या थी मृणालिनी। तप्त काञ्चन जैसा रंग था उसका। उसकी देह के सारे अंग जैसे सांचे में ढले थे। उसकी देह का सौन्दर्य अवर्णनीय था। उसकी इस सुन्दर देह से भी कहीं अधिक सुन्दर था उसका मन, जिसमें सदा-सर्वदा कृष्णप्रेम की सरिता उफनती रहती थी। श्रीकृष्ण उसके सर्वस्व थे। सखी वह राधिका की थी। उसे जिन्होंने भी देखा उन्हें यही अनुभव हुआ जैसे कि श्रीराधा उसमें घुली हुई थी। और वह स्वयं श्रीराधा में घुल चुकी थी। श्रीकृष्णप्रेम का अंकुर तो उसमें जन्म से ही था, परन्तु पहले वह श्रीकृष्ण को अपना स्वामी और स्वयं को उनकी सेविका मानकर मन ही मन नित्य अपने प्रभु की सेवा करती थी। घर के सारे काम करते हुए उसका मन सदा-सर्वदा श्रीकृष्ण में ही अनुरक्त रहता था। ऐसा करते हुए उसकी मनोलीनता बहुत गहरी हो जाती थी। ऐसे में उसका देह बोध यदा-कदा जाता रहता। उसकी माता इसे उसकी अन्यमनस्कता मानकर झिड़क देती- लाली! तेरा मन जाने कहाँ अटकता-भटकता रहता है। जरा घर के कामों में मन लगाया कर। माता के ऐसा कहने पर वह मीठे स्वर में कहती- मैया जैसा तू कहती है, वैसा ही करूँगी।

उसने जब अपनी इस मनोदशा की चर्चा राधा से की, तो वह मुस्करायीं और बोली- यह अच्छी बात है परन्तु श्रीकृष्ण कोई जमींदार या अधिकारी नहीं हैं। उन्हें सही ढंग से पाने व पहचानने के लिए यह स्वामी, सेवक एवं सेवा के रूपों को भंग करना पड़ेगा। वे तो हमारी आत्मा के ईश्वर हैं। सच कहूँ- सभी जीवात्माओं के सच्चे पति वही हैं। हमें तो विधाता ने नारी रूप प्रदान कर धन्य कर दिया है। अपने इस रूप में हम उनकी प्रिया व कान्ता होने का सहज अनुभव कर सकती हैं।

ऐसा कहकर श्रीराधा ने उसे कान्ता भक्ति व दास्य भक्ति की महिमा बतायी। ९ वर्षीया मृणालिनी को अपनी प्रिय सखी का उपदेश बहुत अच्छा लगा। श्रीराधा ने उससे कहा- देख मृणालिनी कान्ता भक्ति के अनुभव के लिए आवश्यक है जीवचेतना का देहभाव से मुक्त होना क्योंकि इसमें दैहिक वासनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। तुम वासनाशून्य हो, इसलिए इस भाव को सहज आत्मसात कर सकती हो। जो आत्मा के तल पर जीते हैं, वे ही कान्ताभाव से श्रीकृष्ण को पा सकते हैं। इस भक्ति के अनुभव विशिष्ट हैं, जिसे मैं तुझे आगे बताऊँगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६१ 


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