त्याग और सेवा द्वारा सच्चे प्रेम का प्रमाण दीजिए।
त्याग में कितना मिठास है, इसे बेचारे स्वार्थ परायण और कंजूस भला क्या समझेंगे? जो इस के अमर मिठास का आस्वादन करना चाहते हैं उनकी नीति होनी चाहिये "आप लीजिए-मुझे नहीं चाहिए। '' यही नीति है जिसके आधार पर सुख और शांति का होना संभव है। "मैं लूँगा आपको न दूँगा की नीति को अपनाकर कैकेयी ने अयोध्या को नरक बना दिया था।
सारी नगरी विलाप कर रही थी। दशरथ ने तो प्राण ही दे दिए। राजभवन मरघट की तरह शोकपूर्ण हो गया। राम जैसे निर्दोष तपस्वी को वनवास ग्रहण करना पड़ा। किंतु जब '' आप लीजिए- मुझे नहीं चाहिए '' की नीति व्यवहार में आई तो दूसरे ही दृश्य हो गए। राम ने राज्याधिकार को त्यागते हुए भरत से कहा-' बंधु ! तुम्हें राज्य सुख प्राप्त हो, मुझे यह नहीं चाहिए। ' सीता ने कहा- नाथ! यह राज्यभवन मुझे चाहिए मैं तो आपके साथ रहूँगी।'
सुमित्रा ने लक्ष्मण से कहा-' ' अवध तुम्हार काम कछु नाहीं। जो पै राम सिय बन जाहीं।। '' पुत्र! जहा राम रहे, वहीं अयोध्या मानते हुए उनके साथ रहो। कैसा स्वर्गीय प्रसंग है। भरत ने तो इस नीति को और भी सुंदर ढंग से चरितार्थ किया। उन्होंने राज-पाट में लात मारी और भाई के चरणों से लिपट कर बालकों की तरह रोने लगे। बोले-' भाई! मुझे नहीं चाहिए इसे तो आप ही लीजिए। ' राम कहते हैं-' भरत! मेरे लिए तो वनवास ही अच्छा है। राज्य सुख तुम भोगो। ' त्याग के इस सुनहरी प्रसंग में स्वर्ग छिपा हुआ है। एक परिवार के कुछ व्यक्तियो ने त्रेता को सतयुग में परिवर्तित कर दिया। सारा अवध सतयुगी रंग में रंग गया। वहां के सुख सौभाग्य का वर्णन करते-करते वाल्मीकी और तुलसीदास अघाते नहीं है।
प्रभु ने मनुष्य को इसलिए इस पृथ्वी पर नहीं भेजा है कि एक दूसरे को लूट खाए और आपस में रक्त की होली खेलें। परम पिता की इच्छा है कि लोग प्रेमपूर्वक भाई- भाई की तरह आपस में मिल-जुल कर रहें। यह तभी हो सकता है जब त्याग की नीति को प्रधानता दी जाए स्वार्थ की अपेक्षा परमार्थ का अधिक ध्यान रखा जाए।
आप किसी को कुछ दें या उसका किसी प्रकार का उपकार करें तो बदले में किसी प्रकार की आशा न रखें। जो कुछ आप देंगे वह हजार गुना होकर लौट आवेगा परंतु उसके लौटने की तिथि नहीं गिननी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए देते चलिए क्योंकि देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। ध्यानपूर्वक देखिए सारा विश्व आपको कुछ दे रहा है जितने आनंदादायक पदार्थ आपके पास हैं वे सब आपके ही बनाए हुए नहीं हैं वरन वे दूसरों के द्वारा आपको प्राप्त होते हैं फिर आप दूसरों को देने में इतना संकोच क्यों करते हैं?
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ १४