बुधवार, 6 अक्टूबर 2021

👉 ऐसा यज्ञ करो

महाभारत की समाप्ति के उपरान्त पांडवों ने एक महान यज्ञ किया। कहते हैं कि वैसा यज्ञ उस जमाने में और किसी ने नहीं किया था। गरीब लोगों को उदारतापूर्वक इतना दान उस यज्ञ में दिया गया था कि उनके घर सोने से भर गये। वैसी दानवीरता को देख कर सबने दांतों तले उंगली दबाई।

इस यज्ञ की चर्चा देश-देशान्तरों में फैली हुई थी। यहां तक कि पशु-पक्षी भी उसे सुने बिना न रहे। एक नेवले ने जब इस प्रकार के यज्ञ का समाचार सुना तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। क्योंकि एक छोटे से यज्ञ के उच्छिष्ट अन्न से छू जाने के कारण उसका आधा शरीर सोने का हो गया था। इस छोटे यज्ञ में जूठन के जरा से कण ही मिले थे जिनसे वह आधा ही शरीर स्पर्श कर सका था। तब से उसकी बड़ी अभिलाषा थी कि किसी प्रकार उसका शेष आधा शरीर भी सोने का हो जावे। वह जहां यज्ञ की खबर सुनता वहीं दौड़ा जाता और यज्ञ की जो वस्तुएं इधर-उधर पड़ी मिलतीं उनमें लोटता, किन्तु उसका कुछ भी प्रभाव न होता। इस बार इतने बड़े यज्ञ की चर्चा सुनकर नेवले को बड़ी प्रसन्नता हुई और वह अविलम्ब उसकी जूठन में लोटने के लिये उत्साहपूर्वक चल दिया।

कई दिन की कठिन यात्रा तय करके नेवला यज्ञस्थल पर पहुंचा और वहां की कीच, जूठन, यज्ञस्थली आदि में बड़ी व्याकुलता के साथ लोटता फिरा। एक बार नहीं कई-कई बार वह उन स्थानों पर लोटा और बार-बार आंखें फाड़ कर शरीर की परीक्षा की कि देखें मैं सोने का हुआ या नहीं। परन्तु बहुत करने पर भी कुछ फल न हुआ। तब वह एक स्थान पर बैठ कर सिर धुनधुन कर पछताने लगा।

नेवले के इस आचरण को देखकर लोग उसके पास इकट्ठे हो गये और इसका कारण पूछने लगे। उसने बड़े दुःख के साथ उत्तर दिया कि इस यज्ञ की प्रशंसा सुनकर मैं दूर देश से बड़ा कष्ट उठा कर यहां तक आया था, पर मालूम होता है कि यहां यज्ञ हुआ ही नहीं। यदि यज्ञ हुआ होता तो मेरा आधा अंग भी सोने का क्यों न हो जाता? लोगों की उत्सुकता बढ़ी, उन्होंने नेवले से कहा आपका शरीर सोने का होने और यज्ञ से उसका संबंध होने का क्या रहस्य है कृपया विस्तारपूर्वक बताइये।

नेवले ने कहा—सुनिए! एक छोटे से ग्राम में एक गरीब ब्राह्मण अपने परिवार सहित रहता था। परिवार में कुल चार व्यक्ति थे। (1) ब्राह्मण (2) उसकी स्त्री (3) बेटा (4) बेटे की स्त्री। ब्राह्मण अध्यापन कार्य करता था। बालकों को पढ़ाने से उसे जो कुछ थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती थी, उसी से परिवार का पेट पालन करता था। एक बार लगातार तीन वर्ष तक मेह न बरसा जिससे बड़ा भारी अकाल पड़ गया। लोग भूख के मारे प्राण त्यागने लगे। ऐसी दशा में वह ब्राह्मण परिवार भी बड़ा कष्ट सहन करने लगा। कई दिन बाद आधे पेट भोजन की व्यवस्था बड़ी कठिनाई से हो पाती। वे बेचारे सब के सब सूखकर कांटा होने लगे। एक बार कई दिन उपवास करने के बाद कहीं से थोड़ा-सा जौ का आटा मिला। उसकी चार रोटी बनीं। चारों प्राणी एक-एक रोटी बांट कर अपनी थालियों में रख कर खाने को बैठने ही जाते थे कि इतने में दरवाजे पर एक अतिथि आकर खड़ा हो गया।

गृहस्थ का धर्म हैं कि अतिथि का उचित सत्कार करे। ब्राह्मण ने अतिथि से कहा—पधारिए भगवन्! भोजन कीजिये। ऐसा कहते हुए उसने अपनी थाली अतिथि के आगे रख दी। अतिथि ने उसे दो-चार ग्रास में खा लिया और कहा—भले आदमी, मैं दस दिन का भूखा हूं, इस एक रोटी से तो कुछ नहीं हुआ उलटी भूख और अधिक बढ़ गई। अतिथि के वचन सुनकर ब्राह्मण पत्नी ने अपनी थाली उसके आगे रखदी और भोजन करने का निवेदन किया। अतिथि ने वह भोजन भी खा लिया, पर उसकी भूख न बुझी। तब ब्राह्मण पुत्र ने अपना भाग उसे दिया। इस पर भी उसे संतोष न हुआ तो पुत्र वधू ने अपनी रोटी उसे दे दी। चारों की रोटी खाकर अतिथि की भूख बुझी और वह प्रसन्न होता हुआ चलता बना।
उसी रात को भूख की पीड़ा से व्यथित होकर वह परिवार मर गया। मैं उसी परिवार की झोंपड़ी के निकट रहता था। नित्य की भांति बिल से बाहर निकला तो उस अतिथि सत्कार से बची हुई कुछ जूठन के कण उधर पड़े हुए थे। वे मेरे जितने शरीर से छुए उतना ही सोने का हो गया। मेरी माता ने बताया कि किसी महान् यज्ञ के कण लग जाने से शरीर सोने का हो जाता है। इसी आशा से मैं यहां आया था कि पाण्डवों का यह यज्ञ उस ब्राह्मण के यज्ञ के समान तो हुआ होगा, पर यहां के यज्ञ का वैसा प्रभाव देखा तो अपने परिश्रम के व्यर्थ जाने का मुझे दुख हो रहा है।

कथा बतलाती है कि दान, धर्म या यज्ञ का महत्व उसके बड़े परिमाण पर नहीं, वरन् करने वाले की भावना पर निर्भर है। एक धनी का अहंकारपूर्वक लाखों रुपया दान करना एक गरीब के त्यागपूर्वक एक मुट्ठी भर अन्न देने की समता नहीं कर सकता। प्रभु के दरबार में चांदी सोने के टुकड़ों का नहीं, वरन् पवित्र भावनाओं का मूल्य है।

✍🏻 पं श्री राम शर्मा आचार्य
📖 धर्मपुराणों की सत्कथाएं

👉 सुविधा सम्पन्न होने पर भी थकान-ग्रस्त क्यों? (भाग १)

लोग समझते हैं कि थकान अधिक काम करने से आती है अथवा कम पौष्टिक भोजन मिलने से। यह दो बातें भी ठीक हो सकती हैं पर यह नहीं समझना चाहिए कि शक्ति की कमी- शिथिलता- थकान और उदासी के यही दो कारण हैं।

अनेक साधन सम्पन्न व्यक्ति-अमीर अफसर- या ऐसी स्थिति में होते हैं जिनके पास काम भी उतना नहीं होता और अच्छी खुराक प्राप्त करने में भी कोई असुविधा नहीं होती। फिर भी वे बुरी तरह थके रहते हैं। अपने अन्दर जीवनी शक्ति अथवा क्रिया शक्ति की कमी अनुभव करते हैं और जो करना चाहते हैं- कर सकते हैं- उसमें अपने को असमर्थ अनुभव करते हैं।

दूसरी ओर सामान्य स्तर के अथवा गरीब लोग-गई गुजरी स्थिति में रहने के कारण सुविधा सम्पन्न जीवन नहीं जी पाते। गुजारे के लिये कठोर काम करने पड़ते हैं। अधिक समय तब भी और अधिक दबाव डालने वाले भी । साथ ही गरीबी के कारण उन्हें बहुमूल्य पौष्टिक खाद्य पदार्थ भी नहीं मिल पाते। इतने पर भी वे बिना थके हँसी-खुशी का जीवन जीते हैं- तरोताजा रहते हैं और अपनी स्फूर्ति में कमी पड़ती नहीं देखते।

इससे स्पष्ट है कि काम की अधिकता या खुराक के स्तर की कमी ही थकान का मात्र कारण नहीं है वरन् कुछ दूसरी बातें भी हैं जो आराम और पुष्टि की प्रचुरता रहते हुए भी थकान उत्पन्न करती हैं और दुर्बलता बनाये रहती हैं।

अमेरिका इन दिनों संसार का सबसे अधिक साधन सम्पन्न देश है। वहाँ के लोग कंजूस भी नहीं होते। जो कमाते हैं उसे खर्च करने और हंसी खुशी का जीवन जीने के आदी हैं। ऐश आराम के साधन वहाँ बहुत हैं। सवारी के लिये कार, वातानुकूलित कमरे, शरीर का श्रम घटाने के लिए कारखाने में तथा घर में हर प्रयोजन के लिए बिजली से चलने वाले यन्त्रों की वहाँ भरमार है। श्रम और समय को बचाने के लिए आर्थिक उन्नति और वैज्ञानिक प्रगति का पूरा-पूरा उपयोग किया जाता है। आहार की भी वहाँ क्या कमी है।

विटामिन, मिनिरल, प्रोटीन और दूसरे पौष्टिक तत्वों को भोजन में मिलाने का वहाँ आम रिवाज है। फलों के रस की बोतलें लोग पानी की तरह पीते रहते हैं। थकान से बचने और स्फूर्ति बनाये रहने पर ही विलासी जीवन जिया जा सकता है सो इसके लिये प्रख्यात दोनों कारणों पर वहाँ बहुत ध्यान दिया जाता है। श्रम सुविधा और खाद्य पौष्टिकता में कोई कुछ कमी नहीं रहने देता।

फिर भी वहाँ बुरा हाल है डाक्टरों के पास आधे मरीज ‘थकान’ रोग का इलाज कराने वाले होते हैं। इसके लिए प्रख्यात दवा “एम्फेटैमीन स्टीमुलैन्टस्” प्रयोग की जाती है। यह औषधि स्वल्प मात्रा में ली जाती है तो भी डाक्टरों के परिषद ने चिकित्सा प्रयोजन में हर साल काम ली जाने वाली इस दवा की मात्रा साड़े तीन हजार टन घोषित की है। एक टन-सत्ताईस मन के बराबर होता है। हिन्दुस्तानी हिसाब से यह 3500&27=94500 मन अर्थात् लगभग 1260000 किलो हुई। उस औषधि के निर्माताओं का रिपोर्ट अलग है। उत्पादकों और विक्रेताओं को हिसाब देखने से प्रतीत होता है कि डाक्टरों के परामर्श से इसका जितना सेवन होता है उसकी अपेक्षा तीन गुनी मात्रा लोग खुद ही बिना किसी की सलाह से अपने अनुभव के आधार पर स्वयं ही खरीदते खाते रहते हैं। इस प्रकार इसकी असली खपत चार गुनी मानी जानी चाहिए।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति नवम्बर 1972

👉 भक्तिगाथा (भाग ७२)

महातृप्ति के समान है भक्ति का अनुभव

ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने अपने प्रिय शिष्य को यूँ पुलकित होकर आते हुए देखा तो उन्होंने समझ लिया, कि आज उनके प्रिय अम्बरीश को उनका मनचाहा मिल गया है। उन्होंने सभी ऋषिगणों के साथ भगवान नारायण की अर्चना की। एकादशी के पारायण का यह महोत्सव सरयू नदी के किनारे हो रहा था। भगवान सूर्यदेव का बिम्ब नदी के जल में कुछ इस तरह से पड़ रहा था, जैसे कि सूर्यनारायण अयोध्यावासियों पर कृपालु होकर स्वयं सरयू में उतर आए हों। भगवान नारायण के नाम के मधुर संकीर्तन के साथ यह पारायण उत्सव सचमुच ही मोहक था। दूर-दूर से आए तपस्वी भक्त, साधक, सिद्ध जनों का सम्मिलन अयोध्या के नगर जनों के लिए परम सौभाग्य की बात थी। उन्हें गर्व था अपने प्रजापालक, न्यायप्रिय नरेश पर, जिन्होंने उनको संरक्षण एवं संसाधन के साथ सुसंस्कार भी दिए थे। उन्होंने अपने इन प्रियजनों को साधनों के अर्जन के साथ साधना के अर्जन की भी शिक्षा दी थी।

भावों की इसी पुलकन-सिहरन के साथ सभी भक्ति की लहरों में भीग रहे थे। इन्हीं भीगी भावनाओं के साथ महाराज अम्बरीश सबको लेकर वहाँ पहुँचे- जहाँ भोजन की व्यवस्था की गयी थी। उन्होंने ऋषि विद्रुम एवं ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मपुत्र वशिष्ठ को एक विशिष्ट आसन पर बिठाया। पास में ही उन्होंने अन्य ऋषियों-महर्षियों के साथ ऋषि विद्रुम के शिष्य शील एवं सुभूति को आसन दिया। राजकर्मचारी सभी अभ्यागतों के स्वागत में लगे थे। परन्तु इन ऋषि-तपस्वियों की सेवा महाराज स्वयं ही कर रहे थे। ऐसा करते हुए उनके हर्ष-उत्साह के अतिरेक का पारावार न था। वह सब कुछ बड़े मनोयोग से कर रहे थे। यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण पल था, जिसे हर कोई अपने नयनों में कैद कर लेना चाहता था।

सुखद एवं सुखप्रद राजपरितोष एवं क्षुधा की शान्ति, दोनों का अनुभव सभी को एक साथ हो रहा था। सुस्वादु भोजन का प्रथम ग्रास मुख में लेते समय ऋषि विद्रुम के शिष्यों शील एवं सुभूति को अचानक कुछ याद आ गया। वे दोनों एक दूसरे को देखते हुए मुस्कराए। उनकी इस मुस्कराहट को ऋषि विद्रुम के साथ महर्षि वशिष्ठ ने भी देखा। अपने इन शिष्यों को यूँ मुस्कराते हुए देख महातपस्वी विद्रुम के होठों पर हल्का सा स्मित उभरा। ऋषिश्रेष्ठ वशिष्ठ को भी इस कौतुक का रहस्य जानने की जिज्ञासा हो आयी। पर वह बोले कुछ नहीं, बस मौन ही भोजन करते रहे। भोजन के पश्चात् आचमन आदि करके उन्होंने विद्रुम से उनके स्मित का कारण जानना चाहा। उत्तर में वह प्रसन्न होकर बोले- ‘‘इस हँसी और स्मित में ही तो मेरे आगमन का कारण छुपा है।’’ ऐसा कहते हुए उन्होंने ऋषि वशिष्ठ को काफी दिन पुरानी एक घटना सुनायी।

उन्होंने कहा कि काफी समय पूर्व जब वे अपने शिष्यों को भक्ति-भक्त एवं भगवान का स्वरूप-सत्य समझा रहे थे, तो उन्होंने प्रसंगवश कहा था कि भक्ति का स्वाद ऐसा है जिसे कहकर नहीं, बल्कि अनुभव करके ही जाना जा सकता है। यदि लौकिक सत्यों से इसकी तुलना की जाय तो यह राजपरितोष एवं क्षुधा शान्ति की भांति है। जिसे चर्चा करके नहीं बल्कि स्वयं अनुभव करके जाना जा सकता है। यहाँ पर अपने शिष्यों को मैं इसी सत्य का अनुभव कराने आया था। उनकी उस हँसी में उनकी प्रगाढ़ अनुभूति की प्रसन्नता छलक रही थी। उन्होंने यहाँ आकर भक्ति का स्वाद जाना, अनुभव किया भक्तश्रेष्ठ अम्बरीश की भक्ति को। साथ ही इस भक्ति एवं भक्त में उन्होंने भगवान् की अनुभूति पायी। इस अनुभूति के साथ उन्होंने राजपरितोष एवं क्षुधा शान्ति को भी एक साथ अनुभव किया। अपने शिष्यों को यही अनुभव देने के लिए ही मैं यहाँ आया था। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ के इस संस्मरण ने न केवल महर्षि विद्रुम के अयोध्या आगमन के रहस्य की कथा कही, बल्कि उन्हें देवर्षि को नए सूत्र के लिए प्रेरित किया और देवर्षि कह उठे-
‘न तेन राजपरितोषः क्षुधा शान्तिर्वा’॥ ३२॥

सचमुच ही मात्र जान लेने से न तो राजा की प्रसन्नता होगी, न क्षुधा मिटेगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ १३३

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