रविवार, 7 अप्रैल 2019

👉 26 साल के इंजिनियर ने नौकरी छोड़ जिंदा किए मरते 10 तालाब

मरते तालाबों को जिंदा करने को मकैनिकल इंजिनियर रामवीर तंवर ने अपनी नौकरी को बाय-बाय कह दिया। रामवीर मकैनिकल इंजिनियरिंग में बीटेक हैं और एक एमएनसी में काम करते थे। ग्रेटर नोएडा में रहने वाले रामवीर ने कहा, 'जल संरक्षण के काम में करियर मेरे लिए एसी ऑफिस में बैठने से ज्यादा अहमियत रखता है।' पिछले 5 सालों में रामवीर 10 तालाबों को जिंदा कर चुके हैं।

ग्रेटर नोएडा गौतम बुद्ध नगर जिले का हिस्सा है और यहां सैकड़ों छोटे-छोटे तालाब हैं, जिनकी देखरेख नहीं हो पा रही थी। अब रामवीर ने यह बीड़ा उठाया है। रामवीर ग्रेटर नोएडा के ही एक किसान के बेटे हैं। 60 एकड़ में फैले सूरजपुर वेटलैंड जैसे बड़े जलाशयों को तो वन संरक्षण नियमों के मुताबिक संरक्षण मिला हुआ है लेकिन डाढा गांव में आए दिन पानी की दिक्कत पेश आती थी। यहीं पले-बढ़े रामवीर देखते थे कि किस तरह छोटे-छोटे जलाशय सूख रहे हैं और उनका इस्तेमाल कूड़ा फेंकने के लिए होना लगा, जबकि इन्हीं जलाशयों पर यहां रहने वाले कई परिवारों की पानी की जरूरत निर्भर करती है। वह बताते हैं, 'मैं जलाशयों के साथ होते इस गलत व्यवहार को देखते-देखते हुए बड़ा हुआ हूं।'

21 साल की उम्र में जब रामवीर कॉलेज स्टूडेंट थे, उन्होंने जलाशयों की सफाई के लिए गांववालों की जल चौपाल लगाई। नौकरी छोड़ने के बाद रामवीर पूरी तरह इसी काम में लग गए।

👉 खर्च चलाने को देते हैं ट्यूशन

धीरे-धीरे इस काम के लिए वॉलंटियरों की टीमें बनाई गईं। रामवीर ने बताया, जल्द जल चौपाल एक ऐसा प्लैटफॉर्म बन गई, जो एक गांव से दूसरे गांव जाकर लोगों को जल संरक्षण के बारे में बताते हैं। वे बताते हैं कि जलाशयों में कूड़ा फेंकना बंद करने की जरूरत है। वॉलंटियरों ने सबसे पहले 2014 में डाबरा गांव में जलाशय की सफाई का काम किया। रामवीर बताते हैं कि उस जलाशय में बहुत कूड़ा था। उस साफ करने में महीनों लग गए। इसके बाद एक फिल्टर सिस्सटम बनाकर हमने पानी की सफाई की, उसे सिंचाई के लिए किसानों के उपयोग लायक बनाया। जलाशय को साफ बनाए रखने के लिए उसने मछलीपालन को प्रोत्साहित किया गया।

जलाशयों को जिंदा करने के लिए और लोगों की जरूरत थी, इसके लिए रामवीर ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। वह बताते हैं, हमारे फेसबुक पेज 'बूंद-बूंद पानी' के अब एक लाख से ज्यादा सदस्य हैं। जब भी हमें वॉलंटिअर्स की जरूरत हुई, हम पेज पर अनाउंस कर देते और हर बार करीब 100 लोग संरक्षण के इस काम लिए पहुंच जाते, फिर चाहे इलाका दूरदराज का ही क्यों न हो।

रामवीर ने अपना जॉब छोड़ा और शाम के समय ट्यूशन देकर घर का खर्च चलाते हैं। उनके काम ने लोगों का ध्यान तब खींचा, जब पिछले साल उन्होंने #सेल्फीविदपॉन्ड के के साथ गांववालों को अपने इलाके के जलाशयों की तस्वीरें भेजने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया। इसके बा से स्पॉन्सरशिप के मौके आए। रामवीर ने बताया, 'काफी मेहनत के बाद हमें साल 2018 में 2.5 लाख की सीएसआर फंडिंग मिली।' उन्होंने पूरे पैसे को जलाशयों को जीवंत करने के काम पर लगा दिए।

👉 अपनी कमजोरियों को दूर कीजिये (अंतिम भाग)

(6) अन्य मनुष्यों से किसी वस्तु के मिलने की आशा मत रखिये। आप यदि दूसरों से कुछ मिलने की आशा करेंगे, तो वह वस्तु न मिलने पर अवश्य ही आप दुखी होंगे अतः दिल से भी किसी की वस्तु मत माँगिये! दूसरों के स्वभाव को परिवर्तित करने की व्यर्थ चेष्टा मत करिये। जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दीजिये। जो मनुष्य ऐसा नहीं करते वे पिता-पुत्र, पति-पत्नी, सम्बन्धी एवं कोई भी हों, स्वभाव के कारण एक दूसरे के व्यवहार से अत्यन्त दुखी रहते हैं।

उपर्युक्त ढंग से बुरे विचारों से पूर्ण मानसिक दशा को परिवर्तित करिए, इस प्रकार आप दुखी होने से बच सकेंगे। बातों पर विचार करिए और प्रसन्नता एवं आनन्द का अनुभव करिए

(7) किसी भी परिचित मनुष्य की, जिससे आपको कुछ कार्य भी सिद्ध करना है, इच्छाओं, और कठिनाइयों, जिनके कारण वह दुखी है लिख लीजिए। उसकी सहायता करने और उसे प्रसन्न करने की चेष्टा करिये। दूसरे मनुष्यों को सुखी एवं प्रसन्न करने का सच्चा प्रयत्न स्वर्गीय आनन्द प्राप्त करने का मूल मन्त्र है जो वर्णन नहीं, केवल अनुभव ही किया जा सकता है! उस मनुष्य का, जिसे आपने प्रसन्न करने की चेष्टा की है, सन्तोष, हर्ष, उल्लास एवं आनन्द से प्रसन्न मुख देखकर आप स्वयं हर्ष से फूल उठेंगे।

कल के विषय में न सोचने का दृढ़ संकल्प कर लीजिये। उमर खय्याम की भाँति जीवन के प्रति क्षण में आनन्द और सुख का अनुभव कीजिये। न बीते हुए पर दुखी होइए और न भविष्य से डरिए।

.....क्रमशः जारी
📖 अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1956/February/v1.27

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 7 April 2019


👉 आज का सद्चिंतन 7 April 2019


👉 The Absolute Law Of Karma (Part 4)

HOW DOES CHITRAGUPTA MAINTAIN THE RECORD?

Let us now discuss the working of Chitragupta. Why and how this deity evaluates the deeds of a person and what are the yardsticks of this evaluation? We shall also find out how after physical death, the lines of fate drawn by Chitragupta determine a soul’s new incarnation in conditions of hell or heaven. In the foregoing discussion, the reader has been introduced to the concept that our sub-conscious mind, itself operates as the deity Chitragupta. It keeps a continuous micro-record of our good and evil deeds in a condensed form, like the recordings on a small compact disc, the details of our virtuous and sinful deeds registered microscopically and subtly on certain neurons on the inner chambers of mind. In this way the writings of Chitragupta could be regarded as shorthand notes taken by the divine stenographer, Chitragupta, for presentation as testimony for objective evaluation of the total span of our life.

We are aware that human mind works on two levels- one external and the other internal. The outer mind is analytical. It analyses the pros and cons, accepts and discards, takes decisions and changes resolutions. The inner mind, on the other hand, is like an innocent but resolute child. It neither accepts nor discards anything, but as the true faithful representative of the Divine, functions impartially toward divine justice. The external mind may think of escaping punishment by suppressing or overlooking the recordings of the lines of evil deeds and highlight only the virtuous deeds for reward. The inner mind (conscience is one of its constituents), on the other hand, works differently.

It takes decisions like an unbiased judge of highest integrity, who cannot be influenced by allurement, fear or vested interest. It is said that in each human being there co-exist a saint and a devil. You may consider the secret inner mind as a representative of divinity and the external mind, which is ever engaged in reasoning, rationalizing, deliberating, conspiring and hypocrisy, as a tool of the devil. The external mind may deceive the soul by justifying each and every action of a person. The inner-mind, on the contrary, is the flame of the soul and a projection of the Absolute Truth. It is, therefore, incapable of conceit and deceit and is innately calm and detached. That is why God has entrusted it with such crucial responsibility. For the common man, it is the deity Chitragupta. Being absolutely impartial, this deity has been given the high seat of Divine Judge. Like a secret service agent, this deity is all the time vigilantly shadowing a person and recording his action in its secret diary.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 10

👉 आत्मचिंतन के क्षण 7 April 2019

★ अंतरात्मा में यदि किसी दिव्य वाणी को सुनने की शक्ति हो तो अपने  भीतर बैठा हुआ कोई ‘नैतिक’ यह कहते हुए पाया जायेगा कि जो सुख-साधन समाज के अनुग्रह से मिले हैं, उन्हें लूट का माल न समझा जाय, ऋण माना जाय और उसका प्रतिदान चुकाया जाय। यदि इस आत्मा की पुकार को न सुना जाय तो उसका प्रतिफल यह होगा कि ऋणग्रस्तों की तरह अपना अंतःकरण भारी होता चला जाएगा और उस उल्लास की अनुभूति न हो सकेगी, जो जीवन देवता के अनुग्रह से हर घड़ी होती रहनी चाहिए।

◆ अपने साथ पक्षपात की आदत से प्रायः सभी लोग घिरे रहते हैं। दूसरों की आलोचना करने के लिए काफी तथ्य संग्रह कर लिये जाते हैं, पर अपनी खामियाँ, खराबियाँ ढूँढने के लिए किसी की रुचि नहीं होती। इतना ही नहीं, कोई वैसा सुझाता है तो बुरा लगता है। इस स्वभावगत दुर्बलता से लोहा लेकर जो अपनी कमजोरियों को स्वयं ढूँढते हैं, उन्हें स्वीकार करते हैं और सुधारने के लिए बार-बार असफल होने पर भी धैर्यपूर्वक जुटे रहते हैं उन्हें बहादुर ही कहा जाएगा।

◇ एक बार हमारा एक नौकर काशीनाथ बीमार हुआ। उसे प्लेग की गिल्टी निकल आई। वह चुपचाप अस्पताल को चला गया और रिश्तेदार को एक पत्र लिख दिया कि जज साहब को खबर न होने पावे, वरना वे मेरे लिए बहुत चिन्ता करेंगे। फिर भी मेरी पत्नी को किसी प्रकार पता चल गया और हम लोग उसकी सेवा सुश्रूषा करने अस्पताल नित्य जाने लगे। हमारे एक मित्र ने कहा-छोटे नौकर के लिए हाईकोर्ट के प्रधान जज को इतनी दौड़ धूम करना उचित नहीं। मैंने हँसते हुए कहा- जज होने से पहले मैं मनुष्य हूँ और मनुष्य का धर्म है कि अपने से छोटे व्यक्तियों की शक्ति भर सहायता करे।

■ विचारों का परिष्कार एवं प्रसार करके आप मनुष्य से महामनुष्य, दिव्य मनुष्य और यहाँ तक ईश्वरत्त्व तक प्राप्त कर सकते हैं। इस उपलब्धि में आड़े आने के लिए कोई अवरोध संसार में नहीं। यदि कोई अवरोध हो सकता है, तो वह स्वयं ेका आलस्य, प्रमाद, असंमय अथवा आत्म अवज्ञा का भाव। इस अनंत शक्ति का द्वार सबके लिए समान रूप से खुला है और यह परमार्थ का पुण्य पथ सबके लिए प्रशस्त है। अब कोई उस पर चले या न चले यह उसकी अपनी इच्छा पर निर्भर है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

👉 अपंगो ने शक्ति पायी-खोयी

एक बार पाँच ने असमर्थ और अपंग इकट्ठे हुए। अन्धा बोला- मेरी आँखें होती तो जो कुछ अनुपयुक्त दिखाई देता उसे ठीक करता। लँगड़ा बोला- मैं तो दौड़- दौड़कर लोगों की भलाई करता। निर्बल बोला- मेरे पास बल होता तो दीन- दुखियों की सेवा करता। निर्धन ने कहा- मैं धनी होता तो किसी को भूखा न रहने देता। मूर्ख बोला- मैं पण्डित होता तो लोगों को सच्चा ज्ञान देता। वरुणदेव ने उनकी बातें सुनी तो दया आ गई। उनकी इच्छायें उन्होंने पूरी कर दीं। पर अब तो अन्धा सौन्दर्य दर्शन में ही लीन रहने लगा। लंगड़ा सैर- सपाटे के लिए निकल पड़ा। निर्धन धन के नशे में डूब गया। निर्बल दूसरों को सताने लगा और मूर्ख अपनी ही शेखी बघारने लगा। वरुणदेव ने यह देखा तो उन्हें बड़ा दु :ख हुआ। अपनी दी हुई शक्तियां उनसे छीन ली।

इसी तथ्य को रामायणकार ने इस प्रकार लिखा है-
करम प्रधान विश्व करि राखा। जो जस करहिं तो तस फल चाखा।

मनुष्य के लिए तो यही उचित है कि वह अपनी गरिमा के अनुरूप सदैव उत्थान की ओर बढ़े। अन्यों को भी साथ ले।

ऊर्ध्य उठे फिर ना गिरे, यही मनुज को कर्म। औरन ले ऊपर उठे, इससे बडौ न धर्म।
इस तथ्य को मनुष्य समझ नहीं पाता और अपनी ही रची नारकीय सृष्टि से दूर भागने का विफल प्रयास करते देखा जाता है।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रज्ञा पुराण (भाग 1 द्वितीयोSध्याय) श्लोक 7 से 8

सामर्थ्यन्यूनतायां तु साधनाभाव एव वा।
प्रतिकूलस्थितौ वापि नरस्त्वसफलो भवेत्॥७॥
यत्रैतन्नास्ति तन्नापि सृष्टिरत्नं नर: कथम् ?
दैन्येन ग्लपितेनाथ जीवतीह घृणास्पद: ॥८॥

टीका-  सामर्थ्य की न्यूनता, साधनों का अभाव, प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने पर तो सफल न हो सकने की बात समझ में आती है किन्तु जहाँ ऐसा कुछ भी न हो, वहाँ मनुष्य जैसा सृष्टि का मुकुटमणि हेय स्तर का जीवन क्यों जिये? और क्यों घृणास्पद बने? ॥७-८॥

व्याख्या- यदि वह सब न होता जिससे मानव समृद्ध-सम्पन्न बन सका है तो मानव के उपरोक्त दो प्रयोजनों, सृष्टि उत्पत्ति, सृष्टि संचालन में असफल रहने की बात स्वीकार्य भी होती, पर ऐसा तो कुछ है नहीं। इसके स्थान पर जन्म देने के बाद उसे तो साधन, सामर्थ्य एवं सहयोगकारी परिस्थितियों का अनुदान भी परम पिता ने दिया है। फिर वह सदैव प्रतिकूलताओं का रोना क्यों रोता है? यह ब्रह्मज्ञानी जिज्ञासु के लिए एक ऊहापोह बना हुआ है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 प्रज्ञा पुराण (भाग १) पृष्ठ 38

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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