बुधवार, 28 अप्रैल 2021

👉 भक्तिगाथा (भाग ११)

असंभव को संभव करती है भक्ति

परम भक्त नारद के इस कथन के साथ ऋषियों एवं देवों ने महर्षि मार्कण्डेय की ओर निहारा। महर्षि पुलह ने तो उन्हें सभा मध्य लगे उच्चासन में पधारने का अनुरोध किया। कल्पजीवी महर्षि ऋषियों के इस अनुरोध को अस्वीकार न कर सके। वे बड़ी सहजता से पुलह व क्रतु के पास आकर बैठ गए। इसी के साथ उन्होंने अपनी अन्तर्दृष्टि से स्मृति कोष को निहारा। वहाँ उन्हें भगवान् सदाशिव एवं भवतारिणी माता आशीष देते नजर आए।
    
उनके पावन स्मरण ने मार्कण्डेय ऋषि को पुलकित कर दिया और वे कहने लगे- ‘‘मेरे पिता महर्षि भृकण्डु एवं माता सुयशा ने शिवभक्ति के प्रसाद के रूप में मुझे पाया था। श्रद्धेय माता मुझे बचपन में समझाया करती थीं कि पुत्र! जीवन का सार प्रभु का नाम है। इसकी सार्थकता भक्ति में है। भक्ति का अर्थ उदारता, सहनशीलता, परदुःखकातरता, सहज निष्कपटता है। जो नर में नारायण की झांकी देख सकता है, वही भक्त है।
    
माता के वात्सल्य एवं पिता के संरक्षण की छांव में मुझे भक्ति के तीनों चरणों उपासना, साधना एवं आराधना की सहज सीख मिली। भगवान् सदाशिव का स्मरण उन महाकाल का ध्यान, यही मेरी उपासना थी। कठोर व्रतों का पालन, तितीक्षामय जीवन, शरीर, वाणी व मन पर महासंयम को मैंने अपनी साधना का रूप दिया था और जीव में शिव का अनुभव करते हुए उनकी सेवा में तल्लीनता मेरी आराधना थी। इस क्रम में मेरा बचपन गुजरा और किशोरवय आ पहुँची। जैसे-जैसे मैं किशोरावस्था में पहुँचने लगा, पता नहीं क्यों मेरे पिता उदास होते गए। मेरी मां की आँखें भी भरी-भरी रहने लगीं।
    
एक दिन सायं जब भगवान् सूर्यदेव अस्ताचल को गमन कर रहे थे, उनकी लालिमा से गगन लोहित हो रहा था। मैंने माता से उनकी उदासी का कारण पूछा, पिता भी वहीं समीप खड़े थे। मेरे प्रश्न के स्पर्श से वे दोनों ही फफक उठे। उन्होंने लगभग बिलखते हुए बताया- पुत्र! तुम्हारी आयु केवल सोलह साल की है और अब तुम तेरहवें वर्ष पूरे कर रहे हो। लगभग तीन वर्ष शेष हैं तुम्हारी आयु के। बस यही हम दोनों के दुःख का कारण है। उनकी इन बातों पर मैंने कहा आप दोनों ने मुझे यह सिखाया- भक्ति असम्भव को सम्भव करती है। भगवान् महाकाल काल के भी विनाशक हैं। ऐसे भगवान् भोलेनाथ के रहते क्या चिन्ता? आप तो बस मुझे आशीष दें कि मैं भगवान् सदाशिव की कृपा पा सकूँ।
    
माता-पिता का आशीष लेकर मैं उसी क्षण घर से निकल पड़ा। और पुष्पभद्रा नदी के तीर पर मैं कुटी बनाकर शिव भक्ति में लीन हो गया। नियमित पार्थिव पूजन, यजुर्वेद के महामंत्रों से प्रतिः-सायं रुद्राभिषेक। रुद्राष्टाध्यायी का पाठ, संध्या, गायत्री के साथ महामृत्युञ्जय मंत्र का जप। अहर्निश भगवान् भोलेनाथ का स्मरण मेरी दिनचर्या बन गयी। नित्य प्रति मेरा विश्वास दृढ़ होने लगा कि भक्ति से कुछ भी सम्भव है, कुछ भी यानि कि कुछ भी। दिन-महीने-वर्ष बीतने लगे। और एक दिन वह घड़ी भी आ पहुँची, जिसके लिए मेरे पिता-मेरी मां डर रहे थे।
    
संध्या बेला थी- मैं रुद्राभिषेक पूरा करके मृत्युञ्जय स्तोत्र से शिवस्तवन कर रहा था। तभी कज्जल गिरि के समान भीम-भयानक आकृति लिए कालदेव आ पहुँचे। मैंने उनकी मंशा जान ली और उनसे कहा ठहरो- पहले मैं अपना स्तवन पूरा कर लूँ, तब मैं तुमसे बात करूँगा। परन्तु अधीर कालदेव को भला कहाँ इतना धैर्य, उन्होंने क्रोधपूर्वक मुझे ग्रसना चाहा। परन्तु तभी काल की क्रोध भरी हुंकार के साथ भगवान् महाकाल की महाहुंकार वहाँ गूँज उठी। उनके चरण प्रहार से कालदेव पीड़ित होकर दूर जा गिरे। चेत आने पर मैंने देखा कि भगवान् भोलेनाथ के साथ माता सिंहवाहिनी भी पधारी हैं। प्रभु ने, माँ ने मुझे ढेर सारा प्यार किया। माता ने तो मेरा सिर अपनी गोद में रखते हुए कहा- पुत्र! भक्ति के प्रभाव से तुम शिवतत्त्व को जानने वाले होगे।
    
कृपालु मां ने बिन मांगे वरदान दिया कि मेरा दिव्यचरित श्रीदुर्गासप्तशती तुम्हारे माध्यम से लोक में प्रचारित होगा। भक्तवत्सल भगवान् सदाशिव ने मुझसे वरदान मांगने के लिए कहा तो मैंने केवल इतना कहा- दयामय! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वरदान दें कि भगवान् में मेरी अविचल भक्ति हो। आपमें मेरी स्थिर श्रद्धा रहे। भगवद्भक्तों के प्रति मेरे मन में अनुराग रहे और सचमुच ही वात्सल्यस्वरूपा माँ जगदम्बा एवं जगदीश्वर प्रभु सदाशिव की कृपा से, उनकी भक्ति के प्रसाद से मुझे स्वतः ही सब कुछ प्राप्त है।’’ महर्षि मार्कण्डेय की पवित्र अनुभूति को सुनकर ऋषियों को अपार हर्ष हुआ। वे सभी कुछ और सुनने के लिए उत्सुक हो उठे। परन्तु देवर्षि नए रहस्य को उजागर करने के पहले भगवन्नाम का कीर्तन करने में लीन हो गए। उनके स्वरों में सभी के स्वर सम्मिलित हो उठे।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २६

👉 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति (भाग ११)

👉 कोई रंग नहीं दुनिया में

प्रातःकाल का अरुणोदय और लाल रंग का सूर्य निकलना इस रंग भ्रम जंजाल की एक झलक है। सूर्य वस्तुतः सफेद ही होता है, पर सवेरे वह सिर पर नहीं पूर्व में तिरछी स्थिति में होता है। इसलिए उसकी किरणों को बहुत लम्बा वायुमंडल पार करना पड़ता है। इस मार्ग में बहुत अधिक धूलि कण आड़े आते हैं। वे कण लाल रंग नहीं सोख पाते अस्तु वे किरणें हम तक चली आती हैं और सवेरे का उगता हुआ सूर्य लाल दिखाई पड़ता है।

आंखें कितना अधिक धोखा खाती हैं और मस्तिष्क कितनी आसानी से बहक जाता है इसका एक उदाहरण रंगों की दुनिया में पहला पैर रखते ही विदित हो जाता है। अन्य विषयों में भी हमारी भ्रान्ति का ठिकाना नहीं। जीवन का स्वरूप, प्रयोजन और लक्ष्य एक प्रकार से पूरी तरह विस्मृत कर दिया है और जड़ पदार्थों पर अपनी ही मान्यता को बखेर कर उन्हें प्रिय-अप्रिय के रूप में देखने की स्थिति को संसार से मिलने वाले सुख-दुख मान लिया है। आत्म-ज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि यदि मिल सके तो पता लगेगा कि हम अज्ञान, माया और भ्रम के जिस जंजाल में फंसे हुए हैं उनसे निकले बिना सत्य के दर्शन नहीं हो सकते और सत्य के बिना सुख नहीं मिल सकता।

वेदान्त दर्शन संसार को माया बताता है और संसार को स्वप्न कहता है इसका अर्थ यह नहीं कि जो कुछ दीखता है उसका अस्तित्व ही नहीं अथवा जो सामने है वह झूठ है। वर्तमान स्वरूप एवं स्थिति में वे सत्य भी हैं। यदि ऐसा न होता तो कर्म फल क्यों मिलते? पुण्य और तप तितीक्षा करने की क्या आवश्यकता होती। कर्तव्य और अकर्तव्य में क्या अन्त होता? धर्मकृत्यों की क्या उपयोगिता रह जाती? और पाप कर्मों से डरने बचने की क्या आवश्यकता रहती?

माया का अर्थ वेदान्त ने इस अर्थ में किया है जिसमें जो भाषित होता हो वह तत्वतः यथार्थ न हो। जगत को इसी स्थिति में—इसी स्तर का माना गया है। वह जैसा कुछ प्रतीत होता है, क्या वह वैसा ही है? इस प्रश्न पर जब गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो प्रतीत होगा कि संसार में जो कुछ हम इन्द्रियों द्वारा देखते हैं, अनुभव करते हैं वह यथार्थ में वैसा ही नहीं होता। इन्द्रिय छिद्रों के माध्यम से मस्तिष्क को होने वाली अनुभूतियों का नाम ही जानकारी तभी सत्य हो सकती है जब वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को सही रूप में इन्द्रियां समझ सकें। यदि वे धोखा खाने लगें तो मस्तिष्क गलत अनुभव करेगा और वस्तुस्थिति उलटी दिखाई पड़ने लगेगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 तत्व दृष्टि से बन्धन मुक्ति पृष्ठ १६
परम पूज्य गुरुदेव ने ये पुस्तक 1979 में लिखी थी

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