🔶 गाँवों में रहने वाले लोगों को प्रायः लकड़बग्घे, बाघ या भेड़ियों का सामना करना पड़ जाता है। शहरी लोग चिड़िया−घरों में इन जन्तुओं को देखते हैं, जो इनके समीप से गुजरे होंगे उन्हें मालूम होगा कि उनके पास पहुँचने के काफी दूर से कितनी भयंकर दुर्गन्ध आने लगती है, उनके पास तो अधिक देर खड़ा भी नहीं हुआ जाता। यह दुर्गन्ध दरअसल और कुछ नहीं माँसाहार से रक्त में बढ़े मूत्र (यूरिआ) और सार्कोलैक्टिक एसिड के कारण होती है। यह तत्त्व मनुष्य के रक्त में मिलकर मस्तिष्क में दुर्गन्ध भर देते हैं, उससे कई बार लोग अच्छी स्थिति में अशाँति, असन्तोष, उद्विग्नता और मानसिक कष्ट अनुभव करते हैं, यह तो स्थूल बुराइयाँ हैं, आत्मा पर पड़ने वाली मलिनता तो इससे अतिरिक्त और अधिक निम्नगामी स्थिति में पटकने वाली होती है।
🔷 माँस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबॉलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुँचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियां (डक्टलेस ग्लैंड्स) पूरा करती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं संपर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या विक्टैवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिलता (काम्प्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहाँ के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशाँति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति हो छोड़ेंगे।
🔶 इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जार्ज बर्नार्ड शा को जब माँसाहार की अनैतिकता मालूम पड़ गई थी, उसी दिन से उन्होंने माँसाहार बन्द कर दिया था। जहाँ इस तरह के पाश्चात्य विचारक माँसाहार से घृणा कर रहे हैं, दुर्भाग्य ही है कि यहाँ हमारे देश के शाकाहारी लोग भी भ्रम में पड़कर माँसाहार को बढ़ावा देते चले जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पूर्व भी धीरे-धीरे पश्चिम बनता जा रहा है। अपने देश को इससे बचाने के लिये एक व्यापक विचार क्राँति लानी पड़ेगी। माँसाहार करने वालों को इन बुराइयों से अवगत और सचेत किए बिना हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-शाँति एवं व्यवस्था सुरक्षित न रह पायेगी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27
🔷 माँस के प्रोटीन उपापचय (मेटाबॉलिज्म) पर बुरा प्रभाव डालते हैं। शरीर में आहार पहुँचने से लेकर उसके द्वारा शक्ति बनने तक की क्रिया को उपापचय (मेटाबॉलिज्म) कहते हैं, यह कार्य निःस्रोत ग्रन्थियां (डक्टलेस ग्लैंड्स) पूरा करती हैं। इन ग्रन्थियों द्वारा ही मनुष्य की मनःस्थिति एवं संपर्क में आने वाले लोगों के साथ व्यवहार (रिएक्शन या विक्टैवियर) निर्धारित होता है। प्रोटीन्स की यह जटिलता (काम्प्लेक्सिटी) इन ग्रन्थियों को उत्तेजित करती रहती है, इसलिये ऐसा व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के साथ कभी भी कुछ भी बुरा कार्य चोरी, छल, अपमान, लूटपाट, उच्छृंखलता और बलात्कार कर सकता है। पाश्चात्य देशों में यह बुराइयां इतनी सामान्य (कॉमन) हो गई हैं कि लोगों का इस ओर ध्यान ही नहीं रहा कि क्या यह आहार की गड़बड़ी का परिणाम तो नहीं। जिस दिन वहाँ के लोग यह अनुभव कर लेंगे कि मन, आहार की ही एक सूक्ष्म शक्ति है और उनकी मानसिक अशाँति का कारण मानसिक विकृति है, उस दिन सारे पाश्चात्य देश तेजी से इस दुष्प्रवृत्ति हो छोड़ेंगे।
🔶 इतिहास प्रसिद्ध घटना है कि जार्ज बर्नार्ड शा को जब माँसाहार की अनैतिकता मालूम पड़ गई थी, उसी दिन से उन्होंने माँसाहार बन्द कर दिया था। जहाँ इस तरह के पाश्चात्य विचारक माँसाहार से घृणा कर रहे हैं, दुर्भाग्य ही है कि यहाँ हमारे देश के शाकाहारी लोग भी भ्रम में पड़कर माँसाहार को बढ़ावा देते चले जा रहे हैं। उसी का परिणाम है कि पूर्व भी धीरे-धीरे पश्चिम बनता जा रहा है। अपने देश को इससे बचाने के लिये एक व्यापक विचार क्राँति लानी पड़ेगी। माँसाहार करने वालों को इन बुराइयों से अवगत और सचेत किए बिना हमारी आने वाली पीढ़ियों की सुख-शाँति एवं व्यवस्था सुरक्षित न रह पायेगी।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1970/January/v1.27