शुक्रवार, 6 नवंबर 2020

👉 उचित मार्ग पर पदार्पण

उचित दिशा में चलता हुआ मन आशावादी, दूरदर्शी, पुरुषार्थ, गुणग्राही, और सुधारवादी होता रहने वाला, तुरन्त की बात सोचने वाला, भाग्यवादी, कठिनाइयों की बात सोच−सोचकर खिन्न रहने वाला और आपका पक्षपात करने वाला होता है। वह परिस्थितियों के निर्माण में अपने उत्तरदायित्व को स्वीकार नहीं करता। मन पत्थर या काँच का बना नहीं होता जो बदला न जा सके। प्रयत्न करने पर मन को सुधारा और बदला जा सकता है। यह सुधार ही जीवन का वास्तविक सुधार है। युग−निर्माण का प्रमुख आधार यह मानसिक परिवर्तन ही है। दुमुँहे साँप की उलटी चाल को यदि सीधी कर दिया जाय तो वह पीछे लौटने की अपेक्षा स्वभावतः आगे बढ़ने लगेगा। 

हमारा मन यदि अग्रगामी पथ पर बढ़ने की दिशा पकड़ ले तो जीवन के सुख शान्ति और भविष्य के उज्ज्वल बनने में कोई सन्देह नहीं रह जाता। कई लोग ऐसा सोचते रहते हैं कि आज जो कठिनाइयाँ सामने हैं वे कल और बढ़ेंगी, इसलिए परिस्थिति दिन−दिन अधिक खराब होती जावेंगी और अन्त बहुत दुखमय होगा। जिनके सोचने का क्रम यह है कल्पना शक्ति उनके सामने वैसे ही भयंकर संभावनाओं के चित्र बना-बनाकर खड़ी करती रहती है, जिससे दिन−रात भयभीत होने और परेशान रहने का वातावरण बना रहता है। निराशा छाई रहती है। भविष्य अन्धकारमय दीखता है। दुर्भाग्य की घटाऐं चारों ओर से घुमड़ती आती हैं। इस प्रकार के कल्पना चित्र जिसके मन में उठते रहेंगे वह खिन्न और निराश ही रहेगा और बढ़ने एवं पुरुषार्थ करने की क्षमता दिन−दिन घटती चली जायगी। अन्त में वह इसी मानसिक दुर्बलता के कारण लुञ्ज−पुञ्ज एवं सामर्थ्यहीन बन जायेगा किसी काम को आरंभ करते ही उसके मन में असफलता की आशंका सामने खड़ी काम करते न बन पड़ेगा। ऐसे लोगों का शंका शंकित मन से किया हुआ कार्य सफलता की मंजिल तक पहुँच सकेगा इसकी संभावना कम ही रहेगी।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जून 1962 

👉 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान (भाग ६२)

गुरुओं के गुरु हैं—प्रभु

ऐसे ही एक गुरु की कथा गुरुदेव सुनाते थे। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का मन है। उच्च शिक्षित ये गुरु एक ख्यातिनामा संस्था के संचालक थे। देश-विदेश में उन्हें प्रवचन के लिए आमंत्रित किया जाता था। आमंत्रित अतिथि के रूप में ये एक बार विदेश में किसी पागलखाने में गए। वहाँ उन्हें सुनने वालों में कर्मचारियों एवं चिकित्सकों के साथ पागलखाने के पागल भी थे। प्रवचन करते समय इन गुरु महोदय का उस समय भारी अचरज हुआ जब उन्होंने देखा कि पागलखाने के सारे पागल उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। कर्मचारी एवं चिकित्सकों का सुनना तो उन्हें स्वाभाविक लगा, पर पागलों का इस तरह से सुनना....? आखिर इसमें रहस्य क्या है?

इस खोज में उन गुरु ने पागलखाने के अधीक्षक से अपनी जिज्ञासा कही। और उनसे निवेदन किया कि आप जरा इन पागलों से पूछकर तो देखिए कि इन्हें मेरी क्या बात पसन्द आयी। उनके निर्देशानुसार अधीक्षक ने पागलों से बात की और उनके पास आए। बताइए न क्या बातें हुई- गुरु महोदय में भारी उत्सुकता थी। अधीक्षक ने थोड़ा हिचकिचाते हुए बोला- महोदय! आप मुझे क्षमा करें, ये सभी पागल यह कह रहे थे कि ये प्रवचन करने वाले तो बिल्कुल हम लोगों जैसे हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि हम लोग यहाँ भीतर हैं और ये बाहर घूम रहे हैं।

गुरुदेव ने इस हास्य कथा को सुनाते हुए कहा था कि आज के दौर में ज्यादातर गुरुओं की यही स्थिति है। दूसरी श्रेणी के गुरु वे होते हैं, जिन्हें भगवान् अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करता है। इस श्रेणी में रमण महर्षि, श्री अरविन्द, सन्त गुरजिएफ आदि महापुरुष आते हैं। स्वयं गुरुदेव की चर्चा भी इस कोटि में की जा सकती है। ये सब ईश्वरीय चेतना में निवास करते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस के शब्दों में इनका शरीर भगवान् का घर होता है। भगवान् ही इनके शरीर के माध्यम से कार्य करता है।

तीसरी श्रेणी में ईश्वर स्वयं गुरु होते हैं। अपनी देह विसर्जित करके ब्राह्मी चेतना में विलीन महापुरुष भी इस कोटि में जा पहुँचते हैं। यह स्थिति सभी कालों से परे होती है। क्योंकि ब्राह्मी चेतना की परम भावदशा में काल का अस्तित्व लोप होता है। ईश्वर इसी परम भावदशा का नाम है। जिन साधकों ने उन्हें इस रूप में जान लिया, वे भी उसी स्थिति में जा पहुँचते हैं। अपने गुरु को ईश्वर के रूप में जानकर भी यह स्थिति पायी जा सकती है, वस्तुतः तब प्रयास स्वतःस्फूर्त होने लगते हैं।

.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १०६
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या

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