बुधवार, 22 जनवरी 2020
👉 उत्तराधिकार
एक राजा के तीन योग्य पुत्र थे, सभी परीक्षा में एक समान नम्बर लाते थे, एक से बढ़कर एक साधक थे, एक से बढ़कर एक योद्धा थे, एक से बढ़कर एक राजनीतिज्ञ थे। लेकिन राज्य किसके हाथ मे सौंपा जाय, यह तो अनुभव और जीवन जीने की कला पर निर्णय होना था। राजा ने सबसे सलाह ली, जिनमें एक बुद्धिमान किसान की युक्ति राजा को पसन्द आयी।
तीनो राजकुमार को बुलाकर एक एक बोरा गेहूँ का दाना दिया। बोला मैं तीर्थ यात्रा में जा रहा हूँ कुछ वर्षों में लौटूंगा। मुझे मेरे गेहूँ तुमसे वापस चाहिए होगा।
पहले राजकुमार ने पिता की अमानत तिज़ोरी में बन्द कर दी, पहरेदार सैनिक लगवा दिए।
दूसरे ने सैनिक बुलाये और बोरी को खाली जमीन में फिकवा दिया, और भगवान से प्रार्थना कि हे भगवान जैसे आप प्रत्येक जीव का ख्याल रखते हो, इन बीजों का भी रखना। मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ इसलिए तुम इन बीजों को पौधे बना देना और खाद-पानी दे देना। न जमीन के खर-पतवार हटाये और न ही स्वयं खाद पानी दिया, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़के साधना में लग गया।
तीसरा राजकुमार किसानों को बुलवाया, उनसे खेती के गुण धर्म समझा। उचित भूमि का चयन किया, स्वयं किसान-मज़दूरों के साथ लगकर जमीन तैयार की, गेहूं बोया और नियमित खाद पानी दिया। रोज यज्ञ गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र से खेत पर करता, बची हुई राख खेत मे छिड़कर भगवान से प्रार्थना करता भगवान मेरे खेत की रक्षा करना और पिता के गेंहू मैं लौटा सकूँ इस योग्य बनाना। फ़सल अच्छी हुई और गेहूं अन्य किसानों से उत्तम क़्वालिटी का निकला। अन्य किसानों ने बीज मांगा तो उसने सहर्ष भेंट कर दिए, साथ में बीजो में प्राण भरे इस हेतु साधना और यज्ञ सिखा दिया। सभी किसानों की खेती अच्छी हुई तो आसपास के समस्त गांवों में भी खेती के गुण, साधना-स्वाध्याय के गुण, यज्ञ इत्यादि सिखा दिया। खेतों में अनाज के साथ साथ लोगों के हृदय में अध्यात्म की खेती लहलहा उठी। सर्वत्र राजकुमार की जय हो उठी।
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पांच वर्ष बाद राजा लौटा, बड़े पुत्र को बुलाया और गेहूं मांगा तो तिज़ोरी खोली गयी। घुन ने गेंहू को राख कर दिया था। राजा बोला जिसने जीवित सम्भवनाओ के बीज को मृत कर दिया। वो इस राज्य को भी मृत कर देगा। तुम अयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए।
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दूसरे को बुलाया, तो भगवान को कोसने लगा। बोला गुरुजी झूठे है, भगवान पक्षपाती है। गुरुजी ने कहा था भगवान भक्त की रक्षा करता है, लेकिन भगवान ने मेरे गेंहू के बीजो की रक्षा नहीं की और न हीं उन्हें पौधा बनाया। जो प्रकृति का निर्माता है उसने मेरे बीजों के साथ पक्षपात किया। राजा पिता ने कहा, तूने तो जीवन की शिक्षा पाई ही नहीं केवल पुस्तको का कोरा ज्ञान अर्जित किया। कर्मप्रधान सृष्टि को समझा ही नहीं, ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता हैं। उपासना के साथ साधना और आराधना भी करनी होती है ये समझा ही नहीं। उपासना रूपी सम्भावना को साधना -आत्मशोधन/मिट्टी की परख/निराई-गुणाई की ही नहीं। तू अयोग्य है। तू मेरा राज्य भी भगवान भरोसे चलाएगा। तूने तो धर्म का मर्म ही नहीं समझा, तू अयोग्य साबित हुआ।
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तीसरे पुत्र को बुलाया, लेकिन यह क्या कई सारे ग्रामवासी बैलगाड़ियों में गेहूँ लिए आये चले जा रहे हैं। राजकुमार और राजा जी की जय बोलते हुए। राजा ने कहा, बेटा मुझे केवल मेरा गेहूँ वापस चाहिए गांव वालों से नहीं।
राजुकमार ने मुस्कुरा के पिता को प्रणाम करके कहा- पिताजी आपके द्वारा दिये सम्भवनाओ के बीज अत्यंत उच्च कोटि के थे, हम सबने मेहनत करके उसको विस्तारित कर दिया। ये इतनी सारी बोरियां उसी सम्भवनाओ/गेंहू के बीज से उपजी है। यह सब आपकी ही है, इन्होंने ने लाखों लोगों की क्षुधा भी शांत की। धन्यवाद पिताश्री आपने मुझे सेवा का सौभाग्य दिया।
पिता पुत्र पर गौरान्वित हुआ, हृदय से लगा लिया और अपने राज्य का उत्तराधिकार सहर्ष सौंप दिया।
तीनो राजकुमार को बुलाकर एक एक बोरा गेहूँ का दाना दिया। बोला मैं तीर्थ यात्रा में जा रहा हूँ कुछ वर्षों में लौटूंगा। मुझे मेरे गेहूँ तुमसे वापस चाहिए होगा।
पहले राजकुमार ने पिता की अमानत तिज़ोरी में बन्द कर दी, पहरेदार सैनिक लगवा दिए।
दूसरे ने सैनिक बुलाये और बोरी को खाली जमीन में फिकवा दिया, और भगवान से प्रार्थना कि हे भगवान जैसे आप प्रत्येक जीव का ख्याल रखते हो, इन बीजों का भी रखना। मैं तुम्हारी पूजा करता हूँ इसलिए तुम इन बीजों को पौधे बना देना और खाद-पानी दे देना। न जमीन के खर-पतवार हटाये और न ही स्वयं खाद पानी दिया, सब कुछ भगवान भरोसे छोड़के साधना में लग गया।
तीसरा राजकुमार किसानों को बुलवाया, उनसे खेती के गुण धर्म समझा। उचित भूमि का चयन किया, स्वयं किसान-मज़दूरों के साथ लगकर जमीन तैयार की, गेहूं बोया और नियमित खाद पानी दिया। रोज यज्ञ गायत्री मंत्र और महामृत्युंजय मंत्र से खेत पर करता, बची हुई राख खेत मे छिड़कर भगवान से प्रार्थना करता भगवान मेरे खेत की रक्षा करना और पिता के गेंहू मैं लौटा सकूँ इस योग्य बनाना। फ़सल अच्छी हुई और गेहूं अन्य किसानों से उत्तम क़्वालिटी का निकला। अन्य किसानों ने बीज मांगा तो उसने सहर्ष भेंट कर दिए, साथ में बीजो में प्राण भरे इस हेतु साधना और यज्ञ सिखा दिया। सभी किसानों की खेती अच्छी हुई तो आसपास के समस्त गांवों में भी खेती के गुण, साधना-स्वाध्याय के गुण, यज्ञ इत्यादि सिखा दिया। खेतों में अनाज के साथ साथ लोगों के हृदय में अध्यात्म की खेती लहलहा उठी। सर्वत्र राजकुमार की जय हो उठी।
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पांच वर्ष बाद राजा लौटा, बड़े पुत्र को बुलाया और गेहूं मांगा तो तिज़ोरी खोली गयी। घुन ने गेंहू को राख कर दिया था। राजा बोला जिसने जीवित सम्भवनाओ के बीज को मृत कर दिया। वो इस राज्य को भी मृत कर देगा। तुम अयोग्य उत्तराधिकारी साबित हुए।
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दूसरे को बुलाया, तो भगवान को कोसने लगा। बोला गुरुजी झूठे है, भगवान पक्षपाती है। गुरुजी ने कहा था भगवान भक्त की रक्षा करता है, लेकिन भगवान ने मेरे गेंहू के बीजो की रक्षा नहीं की और न हीं उन्हें पौधा बनाया। जो प्रकृति का निर्माता है उसने मेरे बीजों के साथ पक्षपात किया। राजा पिता ने कहा, तूने तो जीवन की शिक्षा पाई ही नहीं केवल पुस्तको का कोरा ज्ञान अर्जित किया। कर्मप्रधान सृष्टि को समझा ही नहीं, ईश्वर उसकी मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता हैं। उपासना के साथ साधना और आराधना भी करनी होती है ये समझा ही नहीं। उपासना रूपी सम्भावना को साधना -आत्मशोधन/मिट्टी की परख/निराई-गुणाई की ही नहीं। तू अयोग्य है। तू मेरा राज्य भी भगवान भरोसे चलाएगा। तूने तो धर्म का मर्म ही नहीं समझा, तू अयोग्य साबित हुआ।
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तीसरे पुत्र को बुलाया, लेकिन यह क्या कई सारे ग्रामवासी बैलगाड़ियों में गेहूँ लिए आये चले जा रहे हैं। राजकुमार और राजा जी की जय बोलते हुए। राजा ने कहा, बेटा मुझे केवल मेरा गेहूँ वापस चाहिए गांव वालों से नहीं।
राजुकमार ने मुस्कुरा के पिता को प्रणाम करके कहा- पिताजी आपके द्वारा दिये सम्भवनाओ के बीज अत्यंत उच्च कोटि के थे, हम सबने मेहनत करके उसको विस्तारित कर दिया। ये इतनी सारी बोरियां उसी सम्भवनाओ/गेंहू के बीज से उपजी है। यह सब आपकी ही है, इन्होंने ने लाखों लोगों की क्षुधा भी शांत की। धन्यवाद पिताश्री आपने मुझे सेवा का सौभाग्य दिया।
पिता पुत्र पर गौरान्वित हुआ, हृदय से लगा लिया और अपने राज्य का उत्तराधिकार सहर्ष सौंप दिया।
👉 QUERIES ABOUT JAP AND DAILY UPASANA (Part 7)
Q. 14. What is the purpose of self-control in Abhiyan Sadhana?
Ans. Tap is meant for conservation of life-force and utilising it for elevation of soul to higher levels of consciousness. The three outlets through which about 80% of this vital force continues to leak out of human body are: indulgence in delicious food, intemperate utterances and sexual distractions and actions. The moment these are controlled, the doors to progress open.
Self-control, however, does not simply mean control on sensory organs and the thought process. The field of self-control encompasses control on misuse of all types of resources. For instance, one is advised to utilize each and every moment of life judiciously right from leaving the bed in the morning till one falls asleep. Other self-controls are maintenance of balance in physical labour, honest earnings i.e. taking a livelihood based on just and lawful means of production and expenditure of earnings for noble purposes. Amongst all these, control on sensory organs is of prime importance.
Q.15. What are the rules of Akhand (unbroken) Jap?
Ans. Akhand Jap is performed on special auspicious occasions like Gayatri Jayanti, Guru Poornima, Vasant Panchami etc. There are two ways of doing it. It may be performed either for twenty-four hours or between sunrise and sun-set. During the visibility of the sun (day-time) a vocal mass chanting with rosary may be performed.
The time of beginning and end of an Akhand Jap should be the same in the forenoon and afternoon. When it is meant for twenty-four hours, the period involved includes a day and night in equal proportion. Traditions permit a vocal chanting during the day and mental Jap in the night. Wherever this procedure can be conveniently adhered to, it may be adopted. Otherwise, mental Jap is generally more convenient for the sake of uniformity. Dhoop-Deep should be kept continuously burning during the period of Jap.
Q.16. What to do if there are disruptions during Jap?
Ans. If one is required to go to toilet in between a sessions, the Jap can be resumed after cleaning of hands and feet. Taking bath after each such disruption is not necessary. On sneezing, passing of wind, yawning etc., purification is achieved by taking three Aachmans.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 59
Ans. Tap is meant for conservation of life-force and utilising it for elevation of soul to higher levels of consciousness. The three outlets through which about 80% of this vital force continues to leak out of human body are: indulgence in delicious food, intemperate utterances and sexual distractions and actions. The moment these are controlled, the doors to progress open.
Self-control, however, does not simply mean control on sensory organs and the thought process. The field of self-control encompasses control on misuse of all types of resources. For instance, one is advised to utilize each and every moment of life judiciously right from leaving the bed in the morning till one falls asleep. Other self-controls are maintenance of balance in physical labour, honest earnings i.e. taking a livelihood based on just and lawful means of production and expenditure of earnings for noble purposes. Amongst all these, control on sensory organs is of prime importance.
Q.15. What are the rules of Akhand (unbroken) Jap?
Ans. Akhand Jap is performed on special auspicious occasions like Gayatri Jayanti, Guru Poornima, Vasant Panchami etc. There are two ways of doing it. It may be performed either for twenty-four hours or between sunrise and sun-set. During the visibility of the sun (day-time) a vocal mass chanting with rosary may be performed.
The time of beginning and end of an Akhand Jap should be the same in the forenoon and afternoon. When it is meant for twenty-four hours, the period involved includes a day and night in equal proportion. Traditions permit a vocal chanting during the day and mental Jap in the night. Wherever this procedure can be conveniently adhered to, it may be adopted. Otherwise, mental Jap is generally more convenient for the sake of uniformity. Dhoop-Deep should be kept continuously burning during the period of Jap.
Q.16. What to do if there are disruptions during Jap?
Ans. If one is required to go to toilet in between a sessions, the Jap can be resumed after cleaning of hands and feet. Taking bath after each such disruption is not necessary. On sneezing, passing of wind, yawning etc., purification is achieved by taking three Aachmans.
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 Gayatri Sadhna truth and distortions Page 59
👉 वासन्ती हूक, उमंग और उल्लास यदि आ जाए जीवन में (भाग १)
ॐ भूभुर्वः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
देवियो! भाइयो!!
वसन्त पंचमी उमंगों का दिन है, प्रेरणा का दिन है, प्रकाश का दिन है। वसन्त के दिनों में उमंग आती है, उछाल आता है। समर्थ गुरु रामदास के जीवन में इन्हीं दिनों एक उछाल आया—क्या हम अपनी जिन्दगी का बेहतरीन इस्तेमाल नहीं कर सकते? क्या हमारी जिन्दगी अच्छी तरह से खर्च नहीं हो सकती? एक तरफ उनके विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। समर्थ गुरु रामदास को शक्ल दिखाई पड़ी, औरत, औरत के बच्चे, बच्चे के बच्चे, शादियाँ, ब्याह आदि की बड़ी लम्बी शृंखला दिखाई पड़ी। दूसरी तरफ आत्मा ने संकेत दिया, परमात्मा ने संकेत दिया और कहा—अगर आपको जिन्दगी इतनी कम कीमत की नहीं जान पड़ती है, अगर आपको महँगी मालूम पड़ती है तो आइए दूसरा वाला रास्ता आपके लिए खुला पड़ा है। महानता का रास्ता खुला हुआ पड़ा है। समर्थ गुरु ने विचार किया। उछाल आया, उमंग आई और ऐसी उमंग आई कि रोकने वालों से रुकी नहीं। वह उछलते ही चले गए। मुकुट को फेंका अलग और कंगन को तोड़ा अलग। ये गया, वो गया, लड़का भाग गया। दूल्हा कौन हो गया? समर्थ गुरु रामदास हो गया। कौन? मामूली-सा आदमी छोटा-सा लड़का छलाँग मारता चला गया और समर्थ गुरु रामदास होता चला गया।
यहाँ मैं उमंग की बात कह रहा था। उमंग जब भीतर से आती है तो रुकती नहीं है। उमंग जब आती है वसन्त के दिनों में। इन्हीं दिनों का किस्सा है बुद्ध भगवान का। उनका ऐसा ही किस्सा हुआ था। सारे संसार में फैले हुए हाहाकार ने पुकार और कहा कि आप समझदार आदमी हैं। आप विचारशील आदमी हैं और आप जबरदस्त आदमी हैं। क्या आप दो लोगों के लिए जियेंगे? औरत और बच्चे के लिए जियेंगे? यह काम तो कोई भी कर सकता है। बुद्ध भगवान के भीतर किसी ने पुकारा और वे छलाँग मारते हुए, उछलते हुए कहीं के मारे कहीं चले गए। बुद्ध भगवान हो गये।
शंकराचार्य की उमंग भी इन्हीं दिनों की है। शंकराचार्य की मम्मी कहती थीं कि मेरा बेटा बड़ा होगा, पढ़-लिखकर गजेटेड ऑफिसर बनेगा। बेटे की बहू आएगी, गोद में बच्चा खिलाऊँगी। मम्मी बार-बार यही कहतीं कि मेरा कहना नहीं मानेगा तो नरक में जाएगा। शंकर कहता—अच्छा मम्मी कहना नहीं मानूँगा तो नरक जाऊँगा। हमको जाना है तो अवश्य जाएँगे महानरक में अच्छे काम के लिए। मेरे संकल्प में रुकावट लगाती हो तो आत्मा और परमात्मा का कहना न मानकर तुम कहाँ जाओगी? विचार करता रहा, कौन? शंकराचार्य।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
देवियो! भाइयो!!
वसन्त पंचमी उमंगों का दिन है, प्रेरणा का दिन है, प्रकाश का दिन है। वसन्त के दिनों में उमंग आती है, उछाल आता है। समर्थ गुरु रामदास के जीवन में इन्हीं दिनों एक उछाल आया—क्या हम अपनी जिन्दगी का बेहतरीन इस्तेमाल नहीं कर सकते? क्या हमारी जिन्दगी अच्छी तरह से खर्च नहीं हो सकती? एक तरफ उनके विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। समर्थ गुरु रामदास को शक्ल दिखाई पड़ी, औरत, औरत के बच्चे, बच्चे के बच्चे, शादियाँ, ब्याह आदि की बड़ी लम्बी शृंखला दिखाई पड़ी। दूसरी तरफ आत्मा ने संकेत दिया, परमात्मा ने संकेत दिया और कहा—अगर आपको जिन्दगी इतनी कम कीमत की नहीं जान पड़ती है, अगर आपको महँगी मालूम पड़ती है तो आइए दूसरा वाला रास्ता आपके लिए खुला पड़ा है। महानता का रास्ता खुला हुआ पड़ा है। समर्थ गुरु ने विचार किया। उछाल आया, उमंग आई और ऐसी उमंग आई कि रोकने वालों से रुकी नहीं। वह उछलते ही चले गए। मुकुट को फेंका अलग और कंगन को तोड़ा अलग। ये गया, वो गया, लड़का भाग गया। दूल्हा कौन हो गया? समर्थ गुरु रामदास हो गया। कौन? मामूली-सा आदमी छोटा-सा लड़का छलाँग मारता चला गया और समर्थ गुरु रामदास होता चला गया।
यहाँ मैं उमंग की बात कह रहा था। उमंग जब भीतर से आती है तो रुकती नहीं है। उमंग जब आती है वसन्त के दिनों में। इन्हीं दिनों का किस्सा है बुद्ध भगवान का। उनका ऐसा ही किस्सा हुआ था। सारे संसार में फैले हुए हाहाकार ने पुकार और कहा कि आप समझदार आदमी हैं। आप विचारशील आदमी हैं और आप जबरदस्त आदमी हैं। क्या आप दो लोगों के लिए जियेंगे? औरत और बच्चे के लिए जियेंगे? यह काम तो कोई भी कर सकता है। बुद्ध भगवान के भीतर किसी ने पुकारा और वे छलाँग मारते हुए, उछलते हुए कहीं के मारे कहीं चले गए। बुद्ध भगवान हो गये।
शंकराचार्य की उमंग भी इन्हीं दिनों की है। शंकराचार्य की मम्मी कहती थीं कि मेरा बेटा बड़ा होगा, पढ़-लिखकर गजेटेड ऑफिसर बनेगा। बेटे की बहू आएगी, गोद में बच्चा खिलाऊँगी। मम्मी बार-बार यही कहतीं कि मेरा कहना नहीं मानेगा तो नरक में जाएगा। शंकर कहता—अच्छा मम्मी कहना नहीं मानूँगा तो नरक जाऊँगा। हमको जाना है तो अवश्य जाएँगे महानरक में अच्छे काम के लिए। मेरे संकल्प में रुकावट लगाती हो तो आत्मा और परमात्मा का कहना न मानकर तुम कहाँ जाओगी? विचार करता रहा, कौन? शंकराचार्य।
.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
👉 सद्गुरु की खोज
सद्गुरु की खोज कठिन है। साधक के प्राणों की पीर जब पुकार बनती है, तभी वह इस डगर पर पहला कदम रख पाता है। इसके लिए उसे अपने अस्तित्व को गला कर, प्राणों को पिघलाकर स्वयं को एक नये रूप में ढालना पड़ता है। और यह नया रूप होता है-शिष्य का। जो साहस, संकल्प एवं समर्पण की त्रिधातु से ढाला जाता है। जो स्वयं को शिष्य के रूप में रूपान्तरित नहीं कर पाते, वे कभी भी सद्गुरु की खोज में सफल नहीं होते।
सद्गुरु सदा ही केवल शिष्य को मिलते हैं। जो स्वयं को शिष्य के रूप में नहीं गढ़ पाया, उसे वे मिलकर भी नहीं मिलते। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से उस युग के सभी जन सुपरिचित थे, लेकिन किसी के वे सखा थे, तो किसी के भ्राता, तो कोई उन्हें भगवान् के रूप में पूजता था। लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, निषादराज गुह, परम अनुरागिनी शबरी सभी के प्राणों में वह बसे थे। महामति विभीषण तो उन्हें पाने के लिए अपने प्रियजनों व कुटुम्बियों को भी छोड़ आये थे। वानरराज सुग्रीव एवं युवराज अंगद भी उनके लिए रण-समर में प्राणोत्सर्ग करने के लिए दौड़ आये थे।
लेकिन इन सभी अनुरागियों में कुछ निजता का अंश शेष था। सभी को प्रभु प्रिय थे, तो सब प्रभु को प्रिय। प्रभु ने अपने इन प्रियजनों को, इनकी निजता को कृतार्थ भी किया। पर हनुमान इन सभी में एक होते हुए भी इन सबसे भिन्न थे। उनमें निजता का लेश भी शेष न था। उनकी बज्रांग मूर्ति साहस, संकल्प एवं समर्पण की त्रिधातु से ही बनी थी। उनकी न तो कोई चाहत थी और न ही उनमें अपने किसी कर्तृत्व का अभिमान था। सच तो यह कि वे कभी भी अपने प्रभु से विलग ही नहीं थे। उन्होंने सहज ही अपना अतीत, वर्तमान एवं भविष्य प्रभु अर्पित कर दिया था।
वह न तो मोक्ष के अभिलाषी थे और न तत्त्वज्ञान के। उनके लिए तो प्रभु स्मरण एवं प्रभु समर्पण ही जीवन का सार-सर्वस्व था। उन्हें तो प्रभु के प्रत्यक्ष सान्निध्य का भी कोई लोभ न था। लेकिन जीवन की जिस डगर पर वह चले थे, उसने उन्हें सहज ही शिष्य के रूप में रूपान्तरित कर दिया। अध्यात्म रामायण की कथा कहती है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उन्हें और केवल उन्हें ही सद्गुरु के रूप में मिले। माता सीता की खोज के साथ वह सद्गुरु की खोज में भी सफल हुए। श्रीराम ने उन्हें तत्त्वज्ञान प्रदाता एवं मोक्षदाता बनाया। उनके शिष्यत्व में सद्गुरु की खोज के सभी सूत्र निहित हैं।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६६
सद्गुरु सदा ही केवल शिष्य को मिलते हैं। जो स्वयं को शिष्य के रूप में नहीं गढ़ पाया, उसे वे मिलकर भी नहीं मिलते। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से उस युग के सभी जन सुपरिचित थे, लेकिन किसी के वे सखा थे, तो किसी के भ्राता, तो कोई उन्हें भगवान् के रूप में पूजता था। लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, निषादराज गुह, परम अनुरागिनी शबरी सभी के प्राणों में वह बसे थे। महामति विभीषण तो उन्हें पाने के लिए अपने प्रियजनों व कुटुम्बियों को भी छोड़ आये थे। वानरराज सुग्रीव एवं युवराज अंगद भी उनके लिए रण-समर में प्राणोत्सर्ग करने के लिए दौड़ आये थे।
लेकिन इन सभी अनुरागियों में कुछ निजता का अंश शेष था। सभी को प्रभु प्रिय थे, तो सब प्रभु को प्रिय। प्रभु ने अपने इन प्रियजनों को, इनकी निजता को कृतार्थ भी किया। पर हनुमान इन सभी में एक होते हुए भी इन सबसे भिन्न थे। उनमें निजता का लेश भी शेष न था। उनकी बज्रांग मूर्ति साहस, संकल्प एवं समर्पण की त्रिधातु से ही बनी थी। उनकी न तो कोई चाहत थी और न ही उनमें अपने किसी कर्तृत्व का अभिमान था। सच तो यह कि वे कभी भी अपने प्रभु से विलग ही नहीं थे। उन्होंने सहज ही अपना अतीत, वर्तमान एवं भविष्य प्रभु अर्पित कर दिया था।
वह न तो मोक्ष के अभिलाषी थे और न तत्त्वज्ञान के। उनके लिए तो प्रभु स्मरण एवं प्रभु समर्पण ही जीवन का सार-सर्वस्व था। उन्हें तो प्रभु के प्रत्यक्ष सान्निध्य का भी कोई लोभ न था। लेकिन जीवन की जिस डगर पर वह चले थे, उसने उन्हें सहज ही शिष्य के रूप में रूपान्तरित कर दिया। अध्यात्म रामायण की कथा कहती है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम उन्हें और केवल उन्हें ही सद्गुरु के रूप में मिले। माता सीता की खोज के साथ वह सद्गुरु की खोज में भी सफल हुए। श्रीराम ने उन्हें तत्त्वज्ञान प्रदाता एवं मोक्षदाता बनाया। उनके शिष्यत्व में सद्गुरु की खोज के सभी सूत्र निहित हैं।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १६६
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