शुक्रवार, 31 मई 2019

मंत्र की महिमा Power of Mantra | डॉ चिन्मय पंड्या



Title

👉 आज का सद्चिंतन विद्या का उद्देश्य Vidya Ka Uddesya


👉 प्रेरणादायक प्रसंग अहंकार छोडो

Prernadayak Prasang Ahnkaar Chhodo


👉 सर्वस्व दान Sarvsy Daan

एक पुराना मंदिर था। दरारें पड़ी थीं। खूब जोर से वर्षा हुई और हवा चली। मंदिर का बहुत-सा भाग लडख़ड़ा कर गिर पड़ा। उस दिन एक साधु वर्षा में उस मंदिर में आकर ठहरे थे। भाग्य से वह जहां बैठे थे उधर का कोना बच गया। साधु को चोट नहीं लगी। साधु ने सवेरे पास के बाजार में चंदा जमा करना प्रारंभ किया। उन्होंने सोचा- ‘‘मेरे रहते भगवान का मंदिर गिरा है तो इसे बनवा कर ही तब मुझे कहीं जाना चाहिए।’’

बाजार वालों में श्रद्धा थी। साधु विद्वान थे। उन्होंने घर-घर जाकर चंदा एकत्र किया। मंदिर बन गया। भगवान की मूर्त की बड़े भारी उत्सव के साथ पूजा हुई। भंडारा हुआ। सबने आनंद से भगवान का प्रसाद लिया। भंडारे के दिन शाम को सभा हुई। साधु बाबा दाताओं को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए। उनके हाथ में एक कागज था। उसमें लम्बी सूची थी।

उन्होंने कहा- ‘‘सबसे बड़ा दान एक बुढिय़ा माता ने दिया है। वह स्वयं आकर दे गई थीं।’’ लोगों ने सोचा कि अवश्य किसी बुढिय़ा ने एक-दो लाख रुपए दिए होंगे लेकिन सबको बड़ा आश्चर्य हुआ जब बाबा ने कहा- ‘‘उन्होंने मुझे एक रुपए का सिक्का और थोड़ा-सा आटा दिया है।’’

लोगों ने समझा कि साधु मजाक कर रहे हैं। साधु ने आगे कहा- ‘‘वह लोगों के घर आटा पीस कर अपना काम चलाती हैं। यह एक रुपया वह कई महीने में एकत्र कर पाई थीं। यही उनकी सारी पूंजी थी। मैं सर्वस्व दान करने वाली उन श्रद्धालु माता को प्रणाम करता हूं।’’

लोगों ने मस्तक झुका लिए। सचमुच बुढिय़ा का मन से दिया हुआ यह सर्वस्व दान ही सबसे बड़ा था।

👉 अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष (भाग 1)

इस संसार में मानव-जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। एकमात्र मानव-जीवन ही वह अवसर है, जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। इसका सदुपयोग मनुष्य को कल्पवृक्ष की भाँति फलीभूत होता है।

जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने में प्रमाद करता है, तो यह उसका एक बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। मानव-जीवन वह पवित्र क्षेत्र है, जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियाँ बीज रूप में रख दी है, जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किन्तु इन विभूतियों का विकास होता तभी है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो विभूतियों के स्थान पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।

जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे अपनाकर चलने पर ही इसमें वाँछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है। अन्यथा इसकी भी वही गति होती है, जो अन्य पशु-प्राणियों की होती है। जीवन को सुचारु रूप से चलाने की वह वैज्ञानिक पद्धति एकमात्र अध्यात्म ही है। जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जा सकता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है। उसे, उनमें से कोई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले पड़े है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिनके अंतर्गत आदि से लेकर अन्त तक की सारी सफलतायें सन्निहित है, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते है।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 8


http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1969/January/v1.8

👉 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति (भाग 5)

अथर्वण विद्या की चमत्कारी क्षमता

ऐसी अनेकों सत्य घटनाएँ हैं, जो ऋषि भूमि भारत की आध्यात्मिक चिकित्सा के पुण्य प्रवाह की साक्षी रही हैं। आधुनिक बुद्धि भले ही इन्हें कल्पित गल्प माने, लेकिन जिन्हें भारतीय इतिहास के सच का ज्ञान है,जो ऋत् के प्रति आस्थावान हैं, वे इन्हें स्वीकारने में संकोच न करेंगे। जिस सत्य घटना का जिक्र यहाँ किया जा रहा है, वह उत्तर वैदिक काल की है। उन दिनों वेदत्रयी की ही मान्यता थी। अथर्वण विद्याएँ अपनी प्रतिष्ठा पाने के लिए प्रयत्नशील थीं। इन्हीं दिनों हस्तिनापुर नरेश महाराज शान्तनु बीमार पड़े। उनका दूसरा विवाह सत्यवती से हो चुका था। और कुरुवंश के गौरव देवव्रत युवराज पद को त्याग कर भीष्म बन चुके थे।

उनकी पितृभक्ति, महात्याग, कर्त्तव्यनिष्ठा एवं निरन्तर सेवा मिलकर भी महाराज शान्तनु को राहत नहीं दे पा रहे थे। उनका स्वास्थ्य निरन्तर गिरता जा रहा था। मन की क्लान्ति एवं अशान्ति बढ़ती जा रही थी। महारानी सत्यवती भी घबराई हुई थीं। क्योंकि प्राणवान औषधियाँ निष्प्राण साबित हो रही थीं। और गुणवान वैद्य गुणहीन प्रमाणित हो रहे थे। किसी को उम्मीद नहीं थी कि महाराज शान्तनु का जीवन बच पाएगा। सत्यवती ने अन्तिम प्रयास के रूप में महर्षि व्यास का स्मरण किया। पितृभक्त भीष्म उन्हें आदरपूर्वक ले आए।
व्यास ने स्थिति की सम्पूर्ण जानकारी ली और माता सत्यवती से कहा- माँ! यह कार्य कम से कम मेरे लिए तो असाध्य है। हाँ परम तपस्वी महर्षि दध्यङ्ग अथर्वण चाहे तो वे कुछ कर सकते हैं। व्यास की बातें सुनकर भीष्म उन्हें लेने के लिए उनके पास पहुँचे। पहले तो उन्होंने चलने से मना किया, पर बाद में महर्षि व्यास के अनुरोध पर तैयार हो गए। राजमहलों, राजपुरुषों एवं राजनीति से पर्याप्त दूरी बनाकर रखने वाले महर्षि अथर्वण का हस्तिनापुर आना किसी चमत्कार से कम न था। आते ही उन्होंने महाराज शान्तनु को देखा और जोर से ठहाका मार कर हँसे। उनकी हँसी देर तक बिना रूके चलती रही। सभी उपस्थित जन चकित थे।

तभी उन्होंने थोड़े से आक्रोशित लहजे में कहा- महाराज, दिखने में तो आप की देह रोगी है, पर दरअसल आप प्रारब्ध के कुयोग एवं अपनी मनोग्रन्थियों से पीड़ित हैं। समग्र उपचार के लिए आपको चिन्तन शैली एवं जीवन क्रम बदलना होगा। शान्तनु के आश्वासन देने पर उन्होंने अपनी चिकित्सा प्रारम्भ की। इसमें औषधियों के कल्प थे तो मंत्रों के प्रयोग भी। कई तरह के ऐसे अनुष्ठान थे जिनके प्रभाव से शान्तनु की देह एवं मन की स्थिति बदलने लगी। अथर्वण विद्या के प्रभाव को सभी देख रहे थे। इस घटना के साक्षी बने महर्षि व्यास ने उनसे कहा ऋषिवर! आध्यात्मिक चिकित्सा की आपकी विधियाँ चमत्कारी हैं। यह पुण्य प्रक्रिया चलती रहे, इसके लिए अथर्ववेद का प्रणयन आवश्यक है। अथर्वण के आशीर्वाद से अथर्ववेद रचा गया। और सभी ने आध्यात्मिक चिकित्सक के रूप में वेदज्ञानी गुरु का महत्त्व पहचाना।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति पृष्ठ 9

👉 The Absolute Law Of Karma (Part 22)

WELCOME THE SUFFERINGS
Distress is an unwelcome phenomenon. Its immediate experience is bitterness. Nevertheless, ultimately it is meant for the well-being and happiness of man. Distress is an extraordinarily effective mechanism provided by God for rectification of evil traits and augmentation of positive values. Life is a blissful and self-enlightened spark of the Supreme-Being. He/She has self-created this world which is intrinsically blissful. The brief interludes of unhappiness in life are provided to give the needed momentum to the progressive evolution of the soul, by reminding the being about the true purpose of life, which is awakening to its original nature as a Spark of the Divine. Events producing unhappiness in life are few and their impact is self-evident. Nevertheless, we must remember that whatever little suffering we come across, is the result of our own forgetfulness of our Divine Source. Being a spark of the Blissful Supreme Being, the soul is intrinsically blissful. Nor is there any natural unhappiness in the basic structure of the cosmos, which is orderly and harmonious.

Do not be afraid of the misfortunes, which create unhappiness. Do not loose your mental equilibrium. Face misfortunes boldly. Instead of getting worried or uneasy, be prepared to sail through them. Embrace misfortune as though it were an ill-mannered but warm-hearted friend, who uses foul language, makes unpleasant criticism. Nevertheless, when it (misfortune) goes, it leaves behind the gift of a large treasure of wisdom and insight. Like a brave soldier, face misfortune defiantly and say, “O oncoming misfortunes! you are like my children. I am your creator. Therefore, I welcome you with open arms. You are my legitimate offspring. Therefore, I won’t disown you. You are free to play in the courtyard of my life. I am not a coward. I won’t shed tears in desperation on meeting you. I am not morally so bankrupt as to avoid paying for my own misdeeds. Being a creation of That Supreme Being, I am a Spark of That Absolute Truth, Absolute Benefaction and Absolute Virtue. Come ugly products of my ignorant karmas. Come! I have courage to accommodate you in my life. I don’t need help from anyone. You have arrived to test how courageous I am? I am
prepared to face you.”

Friends! Don’t commit blasphemy. Don’t ever say this world is bad, wicked, unvirtuous and full of unhappiness. In this world, created by God, each elements masterpiece. Nothing is bad in the wholistic view of creation. If you blame the creation, you are also casting aspersions on its Creator. Saying that the pot is badlymade means commenting on the proficiency of the potter. How dare you underrate the qualification of your Omnipotent Father/Mother? When you say that this world is full of misery you are casting aspersions on the integrity of God. In this celestial creation, there is not an iota of unhappiness. Our ignorance itself is the cause of our bad karmas and consequent miseries. Come! Let us cleanse and purify our inner selves of our evil thoughts and wickedness so that we are totally and finally released from our miseries and acquire ultimate deliverance.

.... to be continue
✍🏻 Pt. Shriram Sharma Acharya
📖 The Absolute Law Of Karma Page 37

👉 ऋषि जैमिनि सात दिन कक्ष में बन्द रहे:-

प्रख्यात आर्ष दार्शनिक जैमिनि जिन्होंने ''मीमांसा"  की रचना की, के साथ एक घटना ऐसी जुडी़ है जो विचारों की शक्ति भी बताती है व इस ग्रन्थ रचना की पृष्ठभूमि थी। जब वे मीमांसा दर्शन के सूत्रों को क्रमबद्ध कर रहे थे, अपनी धर्मपत्नी को उन्होंने कह दिया ''जब तक वे न कहें  कक्ष का द्वार न खोला जाय। चाहे रात्रि का आगमन हो जाय एवं अगले दिन का अरुणोदय, कोई उनके कार्य में व्यवधान न डाले।'' बिना आहार लिए वे उसी कक्ष में ७ दिन तक बन्द रहे। बाहर निकले तो चेहरे पर अभूतपूर्व तेज था एवं सफलता कीं मुस्कान थी। वे महत्त्वपूर्ण सूत्रों को क्रमबद्ध करके ग्रन्थ की रचना पूरी कर चुके थे। ''मीमांसा दर्शन'' नामक यह ग्रन्थ अध्यात्म के मूल सिद्धांतों का आधार बना।

📖 प्रज्ञा पुराण भाग 1

👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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