शुक्रवार, 6 मई 2022

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 06 May 2022

शुद्ध व्यवहार और सदाचार समाज की सुदृढ़ स्थिति के दो आधार स्तम्भ हैं। इनसे व्यक्ति का भाग्य और समाज का भविष्य विकसित होता है। शिक्षा, धन एवं भौतिक समुन्नति का सुख भी इसी बात पर निर्भर है कि लोग सद्गुणी और सदाचारी बनें। सामाजिक परिवर्तन का आधार व्यक्ति के अंतःकरण की शुद्धि है। यही समाज में स्वच्छ आचरण और सुन्दर व्यवहार के रूप में प्रस्फुटित होकर सुख और जनसंतोष के परिणाम प्रस्तुत करती है।

हमें मूक सेवा को महत्त्व देना चाहिए। नींव के अज्ञात पत्थरों की छाती पर ही विशाल इमारतें तैयार होती हैं। इतिहास के पन्नों पर लाखों परमार्थियों में से किसी एक का नाम संयोगवश आ पाता है। यदि सभी स्वजनों का नाम छापा जाने लगे तो दुनिया का सारा कागज इसी काम में समाप्त हो जाएगा। यह सोचकर हमें प्रशंसा की ओर से उदास ही नहीं रहना चाहिए, वरन् उसको तिलांजलि भी देनी चाहिए। नामवरी के लिए जो लोग आतुर हैं, वे निम्न स्तर के स्वार्थी ही माने जाने चाहिए।

जो बदले की नीयत से सत्कर्म कर रहा है, वह व्यापारी है। पुण्य और परमार्थ को वाहवाही के लिए बेच देने वाले व्यापारी हीरा बेंचकर काँच खरीदने वाले मूर्ख की तरह हैं। जिसने प्रशंसा प्राप्त कर ली उसे पुण्य फल नाम की और कोई चीज मिलने वाली नहीं है। दुहरी कीमत वसूल नहीं की जा सकती। अहंकार को तृप्त करने के लिए प्रशंसा प्राप्त कर लेने के बाद किसी को यह आशा नहीं करनी चाहिए कि इस कार्य में उसे परमार्थ का दुहरा लाभ भी मिल जाएगा।

पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 श्रद्धा का अर्थ


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 06 May 2022


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👉 आज का सद्चिंतन 06 May 2022

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👉 आंतरिक उल्लास का विकास भाग २६

प्रशंसा का मिठास चखिए और दूसरों को चखाइए

सोते हुए व्यक्ति को जगाना आवश्यक हो तो उसे हाथ पकड कर बिठाया जाता है और जब तक नींद खुल न जाए तब तक उसें सहारा देना पडता है। ठीक यही स्थिति आपको अपने सद्गुणों को जगाने में सामने आवेगी। कुछ दिनों तक ऐसा अभ्यास करना पड़ेगा कि इच्छा न रहते हुए भी मधुर, रुचिकर और प्रेम व्यवहार करें। यदि किसी को हानि ठगने, धोखा देने इच्छा से कोई बनावटी व्यवहार करते तब तो वह अधर्म है, 'किंतु निःस्वार्थ भाव से, हित कामना से, दूसरे की हृदय की कली खिलाने की इच्छा से, अपने संपूर्ण को उन्नत करने की आकांक्षा से बनावटी व्यवहार करते हैं वह निर्दोष है। लंगडा आदमी नकली टांग लगाकर अपना काम चलाता है तो इसमें किसी का कुछ भी अहित नहीं होता, बिना टांग के रहने की अपेक्षा नकली टांग लगवा लेना कोई बुरी बात नहीं है।

इस प्रतीक्षा में बैठे रहना ठीक नहीं है कि जब हमारा हृदय सात्विक प्रेम से परिपूर्ण हो जाएगा, प्राणिमात्र के प्रति आत्मभाव प्रवाहित होने लगेगा, हृदय में प्रसन्नता और उल्लास की तरंगें उठने लगेंगी तभी उनको प्रकट करना आरंभ करेंगे। यह तो ऐसी बात है जैसे कोई कहे कि पानी में पैर तब दूँगा जब तैरने की विद्या में निपुण हो जाऊँगा। तैरना तब आता है जब अनेक बार असफल प्रयत्न कर लिए जाते हैं, अभ्यास न होते हुए भी उलटे-सीधे हाथ- पैर फैंके जाते हैं, कुछ समय बाद अभ्यास परिपक्व हो जाता है और सफलता निकट आती है। विद्यार्थी पहले गलत-सलत लिखता है फिर ठीक-ठाक लिखने लगता है। अध्यापक की खींची हुई रेखाओं के ऊपर कलम फेर कर बालक अक्षरों को लिखता है पीछे बिना सहायता के स्वयं उन्हें बनाने लगता है। आपको अपने सद्गुणों की वृद्धि में भी इसी परिपाटी से काम लेना पड़ेगा। हृदय का सद्गुणों से परिपूर्ण हो जाना अंतिम सफलता है, यह एक दिन में प्राप्त नहीं होती वरन एक या एक से अधिक जन्मों का भी समय इसमें लग सकता है। साधना काल में बार-बार गिर पड़ने, फिर उठ कर चलने का क्रम जारी रहेगा। कई बार भूलें होंगी, कई बार संभलेंगे, प्रतिज्ञाएँ करें प्राचीन संस्कारों के प्रबल झकझोरों से वे टूटेंगी, फिर संभलेंगे, फिर गिरेंगे। हर एक साधक अनेक बार असफल होता है, गिरता पड़ता लगा रहता है तो .एक दिन लक्ष्य तक पहुँच ही जाता है।
 
आप असली-नकली के वितंडाबाद में पड़ कर बेकार ही बहस मत कीजिए। हम कहते हैं कि आप ' को बनावटी रूप से ही सही पर प्रकट करने की आदत इससे हानि किसी की नहीं और लाभ सबका है। अपने को सद्गुणी घोषित करिए अपने को अच्छे काम करने वाला, अच्छे विचार रखने वाला प्रकट होने दीजिए। अपनी अच्छाइयों को प्रकाश में आने दीजिए। अत्यंत, सुगंधित नयनाभिराम पुष्प यदि अज्ञात वन में खिले तो उसकी शोभा 'सुगंधि का लाभ कोई न उठा सकेगा, वह स्वयं भी देवता के ' चरणों पर चढ़ने का सौभाग्य प्राप्त न कर सकेगा। आप में बहुत सी अच्छाइयां हों और लोग उससे परिचित न होने के कारण कुछ लाभ न उठा सकें तो उन अच्छाइयों का क्या महत्त्व रहा? अज्ञात स्थान में छिपकर पड़ा हुआ शीतल जल किसके काम का? जबकि अनेक जीव-जंतु पानी की खोज के लिए सूखे कंठ को लेकर इधर-उधर मारे-मारे फिर रहें हैं।
प्यासों की प्यास न बुझी, उधर बिना खींचे कुँए का पानी सड़ गया, यह अज्ञातवास किसके लिए क्या लाभदायक हुआ? आप दीपक के अनुयायी बनिए। छदाम के मिट्टी के सकोरे में एक पैसे का तेल भरा हुआ है, एक दमड़ी की रुई मिला कर सवा पैसे का सामान है। वह इस बात की लज्जा नहीं करता कि मैं सवा पैसे की पूँजी वाला होकर सिर उठाकर क्यों चमकूँ। वह टुच्चा नहीं है इसलिए टुच्चे विचार भी नहीं करता। सवा पैसे का दीपक सिर उठा कर अपना प्रकाश फैलाता है उसके उजाले में बड़े-बडे धनी, विद्वान अपना काम चलाते हैं।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 आंतरिक उल्लास का विकास पृष्ठ ३८

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👉 भक्तिगाथा (भाग १२८)

भक्त के लिए जरूरी है दंभ का त्याग

‘‘सुशान्त तीव्रतर क्रम में जीवन के घने अंधेरे में घिरता-फँसता, उलझता जा रहा था। स्त्री, धन, वैरी व नास्तिक के विचारों व भावों में उसकी जीवनचेतना जकड़ गयी थी। इस जकड़न ने उसके व्यक्तित्व को बुरी तरह विषाक्त कर दिया था। अब वह पहले की तरह शान्त, शिष्ट, शालीन ब्राह्मणकुमार सुशान्त नहीं रहा। अब तो उसके व्यवहार में अभिमान व दम्भ की दुर्गन्ध फैलने लगी थी। उसे देखने वाले यकीन ही न कर पाते कि यही विप्रकुल शिरोमणि वेदाचार्य पंडित शशांक शर्मा का पुत्र सुशान्त शर्मा है। पंडित शशांक शर्मा का यश अभी भी आस-पास के क्षेत्र में चहुँ ओर व्याप्त था। जन-जन में उनकी चरित्रनिष्ठा, श्रद्धा-आस्था का विषय था। ऐसे विद्वान, तपस्वी ब्राह्मण के कुल में ऐसा पातक, ऐसा घना अंधियारा।

पर आज का सच यही था। जो पंडित शशांक शर्मा के हितैषी थे, उन्होंने उनके पुत्र सुशान्त को समझाने, सही राह पर लाने की बहुतेरी कोशिशें की। लेकिन उन्हें कोई कामयाबी न मिली। बल्कि उल्टे उन्हें सुशान्त के मित्रों के हाथों अपमानित व तिरस्कृत होना पड़ा। यद्यपि उन सबने इसका कोई बुरा नहीं माना। क्योंकि इन सब पर पंडित शशांक शर्मा ने अनेकों उपकार किए थे। उनका हार्दिक स्नेह व अपनत्व इन सबने पाया था। अभी तक इनमें से किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो गया? बचपन से इतना अधिक सदाचरण में निरत रहने वाले सुशान्त में यह विषाक्तता आयी कैसे? लेकिन इसका उत्तर अभी तक किसी के पास न था।

रही बात सुशान्त की तो वह अभी भी नगरवधू लावण्या के रूपजाल में उलझा था। लावण्या और उसके सहयोगी मिलकर सुशान्त का धन-वैभव लूट रहे थे। वासना का विष, द्युत-क्रीड़ा का व्यसन, वैरियों के प्रति द्वेष उसकी चिन्तन चेतना में हावी हो चुका था। नास्तिकों के संग साथ के कारण नारायण का पावन नाम कब का विस्मृत-विलीन हो चुका था। जितने भी हितैषी थे, वे सभी परेशान-हैरान थे। जितने कुटिल कुचाली थे, उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था।’’ ब्रह्मर्षि क्रतु सुशान्त शर्मा की स्थिति का वर्णन-विवरण दिए जा रहे थे। अन्य सभी शान्त भाव से उन्हें सुन रहे थे। लेकिन अचानक न जाने क्यों महर्षि क्रतु ने देवर्षि की ओर देखते हुए कहा- ‘‘हे भक्तश्रेष्ठ! आप भक्ति का अगला सूत्र कहें। मेरा विश्वास है कि आपका अगला सूत्र भक्ति के आचारशास्त्र को और भी अधिक प्रकट व प्रकाशित करेगा।’’

महर्षि के इस कथन पर देवर्षि गम्भीर हुए और बोले- ‘‘हे ऋषिश्रेष्ठ! आप परम भागवत हैं। आपसे अधिक भक्त के आचरण का ज्ञान किसे होगा? फिर भी आपकी आज्ञा शिरोधार्य करके मैं कहता हूँ’’-
‘अभिमानदम्भादिकं त्याज्यं’॥ ६४॥
अभिमान दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए।

देवर्षि के इस सूत्र ने प्रायः सभी के चिन्तन सरोवर में अनेको विचारउर्मियों को अठखेलियाँ करने पर विवश कर दिया, हालांकि बोला कोई कुछ भी नहीं- सबके सब मौन बने रहे। काफी देर तक यूं ही नीरवता वातावरण में व्याप्त रही। फिर इस चुप्पी को तोड़ते हुए ऋषि क्रतु बोले- ‘‘जिस तरह से यह सच है कि भक्त को अभिमान व दम्भ आदि का त्याग कर देना चाहिए। उसी तरह से इस सच का दूसरा पहलू यह भी है कि भक्ति के अभाव में व्यक्ति अभिमान-दम्भ आदि से घिर जाता है जैसा कि सुशान्त शर्मा के जीवन में घटित हुआ।’’

.... क्रमशः जारी
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
📖 भक्तिगाथा नारद भक्तिसूत्र का कथा भाष्य पृष्ठ २५२


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👉 प्रेरणादायक प्रसंग 30 Sep 2024

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