जब मिलते हैं व्यक्ति और विराट्
संसार वस्तुओं एवं व्यक्तियों का भी है और ऊर्जाओं का भी और सम्भव है इनमें पारस्परिक परिवर्तन भी, परन्तु यह बात कोई वैज्ञानिक ही समझेगा। ठीक इसी भाँति दुनिया अहंता की भी है, जहाँ मैं-मेरे और तू-तेरे की दीवारें हैं और आत्म-व्यापकता, ब्रह्मनिष्ठता की भी, जहाँ ये काल्पनिक लकीरें ढहती नजर आती हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि ये भेद कभी था हीं नहीं। पर ये बात कोई अध्यात्मतत्त्व का अनुभवी ही समझेगा और कोई नहीं।
कहते हैं कि एक बड़े धनपति को अपने धन का भारी अहं था। उसे गर्व था अपनी बड़ी फैक्ट्री का। ये धनाड्य महोदय राजस्थान के थे और परम पूज्य गुरुदेव से मिलने के लिए गायत्री तपोभूमि मथुरा पहुँचे थे। अपनी बातों के बीच-बीच में फैक्ट्री एवं हवेली की चर्चा जरूर कर देते, परन्तु गुरुदेव ने उनकी इन बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। थोड़ी देर तक वार्तालाप यूँ चलता रहा। तभी गुरुदेव हँसते हुए उठे और एक बड़ा सा नक्शा सामने लाकर बिछा दिया। यह नक्शा विश्व का था। इसे दिखाते हुए वह उन सेठ जी से बोले-सेठ जी! जरा इसमें ढूँढ़िये तो सही कि अपना भारत देश कहाँ है। थोड़े से आश्चर्यचकित सेठ ने जैसे-तैसे एक जगह पर अंगुली रखकर भारत देश बताया।
अब गुरुदेव ने उनसे राजस्थान की बात पूछी, बड़ी मुश्किल से बेचारे राजस्थान बता पाये और अपना शहर जयपुर बताने में तो उन्हें पसीना आ गया। कहीं पर उन्हें जयपुर ढूँढे ही न मिला। जब गुरुदेव ने उनसे अपनी फैक्ट्री एवं हवेली बताने को कहा, तो वे चकरा गये और बोले-आचार्य जी! आप तो मजाक करते हैं, भला इसमें मेरी फैक्ट्री-हवेली कहाँ मिलेगी। उन्हें इस तरह परेशान होते देखकर गुरुदेव बोले-सेठ जी! कुछ ऐसे ही ब्रह्माण्ड के नक्शे में अपनी धरती नहीं ढूँढी जा सकती और जब बात भगवान् की हो, तो हमारा अपना अहं बड़ा होने पर भी कहीं नजर नहीं आता। इस प्रसंग को गुरुदेव ने अपनी चर्चाओं में एक बार बताते हुए कहा था-योग साधक का चित्त जैसे-जैसे शुद्ध होता है-वैसे ही उसके अहं का अस्तित्व विलीन होता है। कुछ वैसे ही जैसे कि बर्फ का टुकड़ा वाष्पीभूत हो जाता है।
और जब अहं ही नहीं, तब अहंता के संस्कार कैसे? वह तो विराट् में घटने वाली घटनाओं का साक्षी बन जाता है। उसे स्पष्ट अनुभव होता है कि सत्, रज एवं तम के त्रिगुणात्मक ऊर्जा प्रवाह वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति में एक आश्चर्यकारी उलटफेर कर रहे हैं। बस एक दिव्य क्रीड़ा चल रही है। एक दिव्यजननी माँ परम प्रकृति के इंगित से सारे परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे में क्रियाएँ तो होती दिखती हैं, पर कर्त्ता नहीं। उसे स्पष्ट अनुभव होता है कि वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थति इन क्रियाओं की घटने वाली घटनाओं का माध्यम है। यह मात्र कल्पना या विचार नहीं, एक अनुभव है, प्रगाढ़ एवं विस्तीर्ण। जो योग साधक में सम्पूर्ण बोध बनकर उतरता है। इस अवतरण के साथ ही उसके चित्त में क्रियाओं, भावों एवं विचारों के प्रतिबिम्ब तो पड़ते हैं, परन्तु उनका कोई निशान उस पर नहीं अंकित हो पाता।
बल्कि अंतश्चेतना की इस अनूठी भावदशा में जो भाव एवं विचार उपजते हैं, वे रहे-बचे संस्कारों का भी नाश करते हैं। इस अनुभव को पाने वाले के बोध में किसी भी वस्तु या व्यक्ति में विराट् घुलता नजर आता है। तभी तो अंग्रेजी भाषा के कवि वर्ड्सवर्थ ने यह बात कही कि यदि मैं एक फूल को जान लूँ, तो परमात्मा को जान लूँगा। लोगों ने उस महाकवि से सवाल किया भला यह कैसे? तो जवाब में वह हँसा और बोला कि इस एक के बिना परमात्मा का अस्तित्व जो नहीं है। सुनने वाला कोई पादरी था, उसने कहा-यह कैसे बात करते हो? तो उस कवि ने अपनी रहस्यमयी वाणी में कहा-तुम यह भी जान लो कि परमात्मा का अस्तित्व तो मेरे बिना भी नहीं है। पादरी को लगा कि यह कवि पागल हो गया है, पर सच्चाई यह थी कि वह महाकवि उस भावदशा को पा चुका था, जहाँ व्यक्ति एवं विराट् घुलते हुए अनुभव होते हैं। इस अनुभव की व्यापकता में देह के प्रति ममता नहीं रह पाती और न बचता है मन का कोई पृथक् अस्तित्व। अहंता यहाँ अस्तित्व को खो देती है। और चित्त के दर्पण में झाँकी होती है ब्रह्म की। ऐसे में किसी नये संस्कारों का उपजना सम्भव नहीं। यह ऐसी रहस्य कथा है, जिसे अनुभवी कहते हैं और अनुभवी ही समझते हैं। जो अनुभव पाने की डगर पर हैं, वे इस सूत्र को पकड़कर अपना नया अनुभव पा सकते हैं।
.... क्रमशः जारी
📖 अन्तर्जगत् की यात्रा का ज्ञान-विज्ञान पृष्ठ १९४
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या