जीवन ऊर्जा का महासागर है। काल के किनारे पर अगणित अन्तहीन ऊर्जा की लहरें टकराती रहती हैं। इनकी न कोई शुरुआत है, और न कोई अन्त; बस मध्य है। मनुष्य भी इन अनगिनत तरंगों में एक छोटी सी तरंग है। एक लघु बीज है- असीम सम्भावनाओं का।
तरंग की स्वाभाविक आकांक्षा है सागर होने की और बीज की स्वाभाविक चाहत है कि वृक्ष हो जाय। तरंग जब तक महासागर की व्यापकता में फैले नहीं, बीज जब तक फूलों से खिले नहीं, फलों से लदे नहीं, तब तक तृप्ति असम्भव है। इनके अस्तित्त्व की, इनके जीवन की सफलता भी इसी में है।
मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा है परमात्मा होने की। परमात्मा का अर्थ है जीवन की सफलता और पूर्णता। परमात्मा स्वर्ग या आसमान में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नहीं है। यह तो जीवन की अन्तिम सफलता है, परम पूर्णता है। जीवन की तृप्ति एवं परितोष यही है। इसके पहले पड़ाव तो बहुत हैं पर मंजिल नहीं है।
इस मंजिल तक पहुँचे बिना प्रत्येक मनुष्य पीड़ित रहता है। असफलता का दंश उसे सालता रहा है। वह चाहे जितना धन कमा ले, कितना ही वैभव जुटा ले, किन्तु उसे अपने जीवन की सफलता एवं सार्थकता की अनुभूति नहीं हो पाती। एक कंटीली चुभन, बेचैनी भरा दर्द हमेशा बना रहता है। इसे भुलाने की कितनी ही कोशिशें की जाती हैं, लेकिन हर कोशिश कुंठा में ही तब्दील होती है।
और यह ठीक भी है, क्योंकि यदि कहीं ऐसा हो जाय तो बीज कभी भी वृक्ष न बनेगा। तरंग को कभी सागर की व्यापकता न मिलेगी। बीज जब तक वृक्ष बनकर फूलों से न खिलें, उसकी सुगन्ध मुक्त आकाश में न बिखरे तब तक परितृप्ति कैसी? तरंग जब तक महासागर की व्यापकता न पाए तब तक सफलता कैसी? मनुष्य भी जब तक जीवन के परम शिखर परमात्मा को छूकर उससे एकाकार न हो तब तक उसकी सार्थकता कैसी?
जीवन की सफलता तो परमात्मा की अनन्तता को पाने में है। इसे पाए बिना जिन्होंने समझ लिया कि वे सफल हो गए, बड़े अभागे हैं। बड़भागी तो वे हैं, जो अनुभव करते हैं कि जीवन में कुछ भी करो, कुछ भी पाओ असफलता ही हाथ लगती है। क्योंकि ये एक न एक दिन परमात्मा को पा लेंगे, स्वयं परमात्मा हो जाएँगे।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १३७
तरंग की स्वाभाविक आकांक्षा है सागर होने की और बीज की स्वाभाविक चाहत है कि वृक्ष हो जाय। तरंग जब तक महासागर की व्यापकता में फैले नहीं, बीज जब तक फूलों से खिले नहीं, फलों से लदे नहीं, तब तक तृप्ति असम्भव है। इनके अस्तित्त्व की, इनके जीवन की सफलता भी इसी में है।
मनुष्य की स्वाभाविक आकांक्षा है परमात्मा होने की। परमात्मा का अर्थ है जीवन की सफलता और पूर्णता। परमात्मा स्वर्ग या आसमान में बैठा हुआ कोई व्यक्ति नहीं है। यह तो जीवन की अन्तिम सफलता है, परम पूर्णता है। जीवन की तृप्ति एवं परितोष यही है। इसके पहले पड़ाव तो बहुत हैं पर मंजिल नहीं है।
इस मंजिल तक पहुँचे बिना प्रत्येक मनुष्य पीड़ित रहता है। असफलता का दंश उसे सालता रहा है। वह चाहे जितना धन कमा ले, कितना ही वैभव जुटा ले, किन्तु उसे अपने जीवन की सफलता एवं सार्थकता की अनुभूति नहीं हो पाती। एक कंटीली चुभन, बेचैनी भरा दर्द हमेशा बना रहता है। इसे भुलाने की कितनी ही कोशिशें की जाती हैं, लेकिन हर कोशिश कुंठा में ही तब्दील होती है।
और यह ठीक भी है, क्योंकि यदि कहीं ऐसा हो जाय तो बीज कभी भी वृक्ष न बनेगा। तरंग को कभी सागर की व्यापकता न मिलेगी। बीज जब तक वृक्ष बनकर फूलों से न खिलें, उसकी सुगन्ध मुक्त आकाश में न बिखरे तब तक परितृप्ति कैसी? तरंग जब तक महासागर की व्यापकता न पाए तब तक सफलता कैसी? मनुष्य भी जब तक जीवन के परम शिखर परमात्मा को छूकर उससे एकाकार न हो तब तक उसकी सार्थकता कैसी?
जीवन की सफलता तो परमात्मा की अनन्तता को पाने में है। इसे पाए बिना जिन्होंने समझ लिया कि वे सफल हो गए, बड़े अभागे हैं। बड़भागी तो वे हैं, जो अनुभव करते हैं कि जीवन में कुछ भी करो, कुछ भी पाओ असफलता ही हाथ लगती है। क्योंकि ये एक न एक दिन परमात्मा को पा लेंगे, स्वयं परमात्मा हो जाएँगे।
✍🏻 डॉ. प्रणव पण्ड्या
जीवन पथ के प्रदीप से पृष्ठ १३७