सत्य-असत्य का भेद करने के लिए मनोभूमि निष्पक्ष होनी चािहए। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह नहीं होने चाहिए। किसी मान्यता पर आग्रह जमा हो तो मनोभूमि पक्षपात ग्रसित हो जाएगी। तब अपनी ही बात को किसी न किसी प्रकार सिद्ध करने के लिए बुद्धि-कौशल चलता रहेगा। बुरी से बुरी बात को भली सिद्ध करने के लिए तर्क ढूँढे जा सकते हैं और अपने पक्ष के समर्थन में कितने ही तथ्य तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस तरह के विवादों का कभी अंत नहीं होता।
अनीतिपूर्वक सफलता पाकर लोक-परलोक, आत्म-संतोष, चरित्र, धर्म तथा कर्त्तव्य निष्ठा का पतन कर लेने की अपेक्षा नीति की रक्षा करते हुए असफलता को शिरोधार्य कर लेना कहीं ऊँची बात है। अनीति मूलक सफलता अंत में पतन तथा शोक, संताप का ही कारण बनती है। रावण, कंस, दुर्योधन जैसे लोगों ने अधमपूर्वक न जाने कितनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाईं, किन्तु अंत में उनका पतन ही हुआ और पाप के साथ लोक निन्दा के भागी बने। आज भी उनका नाम घृणापूर्वक ही लिया जाता है।
जिसमें स्वार्थ परायण व्यक्ति अधिक हों, वह समाज जीवित नहीं रह सकता और न वह उन्नति और विकास की ओर अग्रसर हो सकता, क्योंकि केवल अपने स्वार्थ को महत्त्व देने वाले व्यक्ति अपने-अपने लाभ की, छीना-झपटी में परस्पर संघर्षरत रहेंगे। जहाँ एक दूसरे के प्रति षड्यंत्र, संदेह, अविश्वास का बोलबाला होगा वहाँ द्वेष, वैमनस्य उनका धर्म बन जाएगा और अन्ततोगत्वा ऐसा समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
अनीतिपूर्वक सफलता पाकर लोक-परलोक, आत्म-संतोष, चरित्र, धर्म तथा कर्त्तव्य निष्ठा का पतन कर लेने की अपेक्षा नीति की रक्षा करते हुए असफलता को शिरोधार्य कर लेना कहीं ऊँची बात है। अनीति मूलक सफलता अंत में पतन तथा शोक, संताप का ही कारण बनती है। रावण, कंस, दुर्योधन जैसे लोगों ने अधमपूर्वक न जाने कितनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाईं, किन्तु अंत में उनका पतन ही हुआ और पाप के साथ लोक निन्दा के भागी बने। आज भी उनका नाम घृणापूर्वक ही लिया जाता है।
जिसमें स्वार्थ परायण व्यक्ति अधिक हों, वह समाज जीवित नहीं रह सकता और न वह उन्नति और विकास की ओर अग्रसर हो सकता, क्योंकि केवल अपने स्वार्थ को महत्त्व देने वाले व्यक्ति अपने-अपने लाभ की, छीना-झपटी में परस्पर संघर्षरत रहेंगे। जहाँ एक दूसरे के प्रति षड्यंत्र, संदेह, अविश्वास का बोलबाला होगा वहाँ द्वेष, वैमनस्य उनका धर्म बन जाएगा और अन्ततोगत्वा ऐसा समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।
परिवार का संतुलन सही रखना हो तो मोह से बचते हुए कर्त्तव्य तक सीमित रहना होगा। परिवार के लोगों के प्रति असाधारण मोह ही उनका स्तर गिराने और अपने कर्त्तव्य च्युत होने का प्रधान कारण होता है। यदि परिजनों की उचित-अनुचित माँगों को, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को महत्त्व न दिया जाय और विवेक दृष्टि रखते हुए उनके कल्याण एवं अपने कर्त्तव्य भर की बात सोची जाय तो प्रत्येक परिवार का स्तर ऊँचा रह सकता है और उसमें से नर-रत्नों के उत्पन्न होने का आधार बन सकता है।
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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