शनिवार, 20 मई 2023

👉 आत्मचिंतन के क्षण Aatmchintan Ke Kshan 20 May 2023

सत्य-असत्य का भेद करने के लिए मनोभूमि निष्पक्ष होनी चािहए। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह नहीं होने चाहिए। किसी मान्यता पर आग्रह जमा हो तो मनोभूमि पक्षपात ग्रसित हो जाएगी। तब अपनी ही बात को किसी न किसी प्रकार सिद्ध करने के लिए बुद्धि-कौशल चलता रहेगा। बुरी से बुरी बात को भली सिद्ध करने के लिए तर्क ढूँढे जा सकते हैं और अपने पक्ष के समर्थन में कितने ही तथ्य तथा उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस तरह के विवादों का कभी अंत नहीं होता।

अनीतिपूर्वक सफलता पाकर लोक-परलोक, आत्म-संतोष, चरित्र, धर्म तथा कर्त्तव्य निष्ठा का पतन कर लेने की अपेक्षा नीति की रक्षा करते हुए असफलता को शिरोधार्य कर लेना कहीं ऊँची बात है। अनीति मूलक सफलता अंत में पतन तथा शोक, संताप का ही कारण बनती है। रावण, कंस, दुर्योधन जैसे लोगों ने अधमपूर्वक न जाने कितनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाईं, किन्तु अंत में उनका पतन ही हुआ और पाप के साथ लोक निन्दा के भागी बने। आज भी उनका नाम घृणापूर्वक ही लिया जाता है।

जिसमें स्वार्थ परायण व्यक्ति अधिक हों, वह समाज जीवित नहीं रह सकता और न वह उन्नति और विकास की ओर अग्रसर हो सकता, क्योंकि केवल अपने स्वार्थ को महत्त्व देने वाले व्यक्ति अपने-अपने लाभ की, छीना-झपटी में परस्पर संघर्षरत रहेंगे। जहाँ एक दूसरे के प्रति षड्यंत्र, संदेह, अविश्वास का बोलबाला होगा वहाँ द्वेष, वैमनस्य उनका धर्म बन जाएगा और अन्ततोगत्वा ऐसा समाज छिन्न-भिन्न हो जाएगा।

परिवार का संतुलन सही रखना हो तो मोह से बचते हुए कर्त्तव्य तक सीमित रहना होगा। परिवार के लोगों के प्रति असाधारण मोह ही उनका स्तर गिराने और अपने कर्त्तव्य च्युत होने का प्रधान कारण होता है। यदि परिजनों की उचित-अनुचित माँगों को, प्रसन्नता-अप्रसन्नता को महत्त्व न दिया जाय और विवेक दृष्टि रखते हुए उनके कल्याण एवं अपने कर्त्तव्य भर की बात सोची जाय तो प्रत्येक परिवार का स्तर ऊँचा रह सकता है और उसमें से नर-रत्नों के उत्पन्न होने का आधार बन सकता है।

✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य

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👉 समर्थ और प्रसन्न जीवन की कुँजी (भाग 1)

हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्र ईकाई है। उसे अपनी समस्यायें सुलझाने और प्रगति की व्यवस्था बनाने का ताना बाना स्वयं ही बुनना पड़ता है। कठिनाइयाँ आती और चली जाती है। सफलता मिलती और प्रसन्नता की झलक झाँकी कर देने के उपरान्त स्मृतियाँ छोड़ जाती है। दिन और रात की तरह यह चक्र चलता ही रहता है। कोई जीवन ऐसा नहीं बना जिसमें ज्वार भाटे न आते हो। निष्क्रियता की तरह निश्चिंतता भी मरण का चिन्ह है। जीवन एक संग्राम है जिसमें एक एक कदम पर गुत्थियों को सुलझाते हुए चलना पड़ता है। पहाड़ों की चोटियों पर जम जाने के उपरान्त दूसरे के लिए जगह बनाने की सोचते है। नीचे कितनी गहरी खाई रह गई, इसे देखने से डर लग सकता है, ऊपर कितना चढ़ना बाकी है यह जानने के लिए चोटी की ऊंचाई आँकना हैरानी उत्पन्न करेगा।

इस यात्रा के लिए अटूट धैर्य और साहस की आवश्यकता है, इससे भी अधिक इस बात की कि हर हालत में सन्तुलन बना रहे। सन्तुलन डगमगा जाना आधी सफलता हाथ से गवाँ देना और वजन को दूना बढ़ा लेना है। हर समझदार आदमी को हर गाँठ बाँध रखनी चाहिए कि जन्म के समय वह अकेला आया था। मरने के समय भी चिता पर अकेले ही सोना है। अपना खाया ही अंग लगता है। अपने पढ़ने से ही शिक्षित बना जाता है। यह काम किसी और से नहीं कराये जा सकते।

अपने बदले में किसी और को सोने के लिए नौकर रखा जाए तो नींद की आवश्यकता पूरी नहीं हो सकती। रास्ता अपने पैरों ही चल कर पार करना पड़ता है। रोग की व्यथा स्वयं ही सहनी पड़ती है। पड़ोसी और संबंधी, सहायता करने के जो काम है।, उन्हें कर सकते है पर चढ़ी हुई बीमारी को सहन करने के लिए अपने ऊपर नहीं ले सकते। इसलिए स्वावलम्बी बनने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। स्वावलम्बन से ही स्वाभिमान की रक्षा होती हैं। नौकरों और सहायकों की बहुलता काम सरल तो बना सकती है पर उन पर सब कुछ छोड़कर निश्चित हो जाना भूल है। इंजन बुझा दिया जाए और डिब्बों को दौड़ते हुए आगे स्टेशन पर जा पहुँचने का हुक्म देना समझदारी नहीं है।

यों प्रत्यक्ष काम तो हाथ पैर ही करते है, पर वास्तविकता यह है कि उनके पीछे जुड़ी रहने वाली मन की शक्ति ही अधिकाँश जुगाड़ बिठाती है। इसलिए छोटा बड़ा जो भी काम करना हो उसमें मन को सही स्थिति में संलग्न होना आवश्यक है। मन डगमगाया तो समझना चाहिए कि नाव का संतुलन बिगड़ा। बुद्धिमान वे है जो अपने मन को सही स्थिति में रखे रहते है। सड़क पर मोटर के पहिये दौड़ते है और सवारियाँ सीटों पर बैठती है, पर ढक्कन के नीचे लिया हुआ इंजन ही यात्रा पूरी करता है। तेल पानी चुक जाए या गड़बड़ा जाए तो अच्छी तरह रंग रोगन की हुई गाड़ी भी मंजिल पार न कर सकेगी।

.... क्रमशः जारी
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
📖 अखण्ड ज्योति मार्च 1988 पृष्ठ 56

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