गुरुवार, 3 मार्च 2016

👉 शिष्य संजीवनी (भाग 17)

देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी

उत्तेजना की चाहत केवल इन्द्रियों तक सीमित नहीं है। मन के महादेश में भी इसके अंकुर उगते हैं। मानसिक उत्तेजना उन्नति की महत्त्वाकाँक्षा बनकर प्रकट होती है। अनुभवी साधक कहते हैं कि यह शिष्यत्व की प्रबल विरोधी है। उन्नति की चाहत रखने वाले कभी भी अपने गुरुदेव के दीवाने नहीं हो सकते। उन्हें कभी भी प्रेम एवं समर्पण का स्वाद नहीं मिल सकता। इसलिए शिष्यों के लिए किसी भी तरह की उन्नति की चाहत वॢजत है। उन्हें सभी तरह की लौकिक उन्नति या आध्यात्मिक उन्नति की चाहत से दूर रहना चाहिए। आध्यात्मिक उन्नति की चाहत से दूर रहने की बात थोड़ी विचित्र लग सकती है। पर है यह पूरी तरह से सही। दरअसल सारी चाहतें अहंता के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं और प्रकारान्तर से अहंकार को मजबूत करती हैं। जबकि आध्यात्मिकता सिरे से अहंकार की विरोधी है।

यह फूल की तरह खिलना और विकसित होना है। फूल को तो अपने खिलने का भान भी नहीं होता। सच यही है कि कली कब फूल बन जाती है पता ही नहीं चलता। हाँ यह जरूर है कि वह सदा ही अपनी आत्मा को वायु के समक्ष-प्रकाश के समक्ष खोलने को उत्सुक रहती है। कली समॢपत होती है, प्रकाश के प्रति, हवा के प्रति, समूची प्रकृति के प्रति। इसके अलावा वह कोई और चेष्टा नहीं करती। उसमें तो बस इतनी आतुरता होती है, सिर्फ इतनी प्यास होती है कि उसके भीतर जो सुगन्ध है, वह हवाओं में लुट जाये। इस क्रम में जो सबसे बेशकीमती बात है, वह यह है कि आतुरता के क्षणों में भी कली कोई चेष्टा नहीं करती, बस प्रतीक्षा करती रहती है। निरन्तर एवं अनवरत प्रतीक्षा। उसकी प्रतीक्षा होती है कि सूरज उगेगा, हवायें आयेंगी और फिर वह फूल बन जायेगी। फूल बनकर वह सारी सुगन्ध को हवाओं में लुटा देगी।

बस शिष्यों के लिए भी यही राह है। उत्तेजना एवं उन्नति की चाहत को त्याग कर अपने गुरुदेव के होकर रहना। उन्हें निरन्तर एवं अनवरत समर्पण करते रहना। शिष्य की बस एक ही टेक-एक ही रटन होनी चाहिए-देकर भी करता मन, दे दें कुछ और अभी। शिष्य में होना चाहिए अपने गुरुदेव की कृपा पर अनवरत विश्वास। गुरुकृपा के प्रति उन्मुक्त होकर ही शिष्य की चेतना कली से फूल बनती है, तभी उसके जीवन को सार्थकता मिलती है। यही रहस्य है शिष्य के जीवन का। रहस्य के आयाम और भी हैं।

क्रमशः जारी
- डॉ. प्रणव पण्डया
http://hindi.awgp.org/gayatri/AWGP_Offers/Literature_Life_Transforming/Books_Articles/Devo/bhi
आलोचना से डरें नहीं- उसके लिये तैयार रहें। (भाग 1)

दूसरा कोई समीक्षा करे तो स्वभावतः बुरा लगेगा। निन्दनीय स्थिति किसी की स्वीकार नहीं । उसे सुनने से कष्ट होता है और आमतौर से आलोचना बुरी लगती है।

यह अप्रिय के स्थान पर प्रिय भी हो सकती है, यदि हम वस्तुतः अच्छे हों, अच्छे व्यक्ति को द्वेषवश लाँछन लगाने का दुस्साहस कोई यदा कदा ही करता है। आमतौर से निन्दात्मक आलोचना हमारे दोष दुर्गुणों की ही होती है। नमक मिर्च लगाने की तो लोगों को आदत है पर जो कहा जाता है उसमें कुछ सार जरूर होता है।

आलोचना का लाभ यही है कि यह देखें कि जो कुछ निन्दापरक कहा जा रहा है उसमें कितना तथ्य और सत्य है। जो वास्तविकता हो उसे समझने का प्रयत्न करना चाहिए। अपना चेहरा अपने को दिखाई नहीं पड़ता, उसे देखना हो तो दर्पण का सहारा लेना पड़ेगा। आलोचक हमारे लिए दर्पण की तरह उपयोगी हो सकते हैं। और जहाँ कुरूपता है वहाँ सुधार के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा दे सकते हैं।

 क्रमशः जारी
 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
 अखण्ड ज्योति सितम्बर 1972 पृष्ठ 20
http://literature.awgp.org/magazine/AkhandjyotiHindi/1972/September.20

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