तर्क की पहुँच विचारों तक है। विचारों से परे अनुभूतियों के कितने ही दिव्य क्षेत्र मौजूद हैं जो उनकी पकड़ में नहीं आते। मानवी श्रद्धा ही उन्हें अनुभव कर सकती है। मनुष्य के पारस्परिक रिश्ते श्रद्धा से ही संचालित होते हैं। जीवन से उसे निकाल दिया जाये तो भाई-भाई के, भाई-बहन के, माता-पिता के, पिता-पुत्र के रिश्तों का कुछ विशेष मूल्य नहीं रह जाता। प्यार एवं स्नेह की बहने वाली निर्झपिणी सूखे तर्क के आतप में सूखकर मरुस्थल का रूप ले लेती है। वे परिवार, परिवार न रहकर सराय बन जाते हैं। जब सामान्य जीवन में श्रद्धा के बिना काम नहीं चलता तो आध्यात्मिक क्षेत्र में कैसे चल सकता है?
किसी सिद्धान्त, किसी आदर्श अथवा किसी लक्ष्य के प्रति श्रद्धा भी तभी उमड़ती है जब ज्ञान द्वारा उनकी गरिमा की बुद्धि सामर्थ्य के समस्त आवेश के साथ आत्मसात् कर लिया जाता है। एक बार पूरे मन से उनको स्वीकार कर लेने पर तर्क नहीं जन्म लेता। दोष देखने वाली प्रवृत्ति नहीं रहती। “दोष दर्शनानुकूल वृत्ति प्रतिबन्धकवृत्तिः”, श्रद्धा की उपज है पर उसमें भी बुद्धि के पक्ष का सर्वथा अभाव नहीं होता।
श्रद्धाविहीन किसी शंकालु व्यक्ति को साधक की अनुभूति एक कपोल कल्पना या पागलपन प्रतीत हो सकती है पर इससे यथार्थता पर कुछ आँच नहीं आती। ईश्वरीय अनुभूति के उच्च लोक में पहुँचने के बाद व्यक्ति का व्यवहार सामान्य लोगों की दृष्टि में असामान्य तथा असंगत प्रतीत होता है तो इसमें कुछ विशेष आश्चर्य नहीं करना चाहिए। संकीर्णता, चिन्ता, उदासीनता आदि मानसिक व्यतिरेकों के ऊपर उठा हुआ व्यक्ति यदि अपने बन्धनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ जाता है तथा ‘वासुदेवः सर्वंमिति’- सभी कुछ ईश्वर है मानकर चलता है तो इसमें अस्वाभाविकता ही क्या है?
✍🏻 पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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